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मंगलवार, 27 सितंबर 2011

ऐसे में तो लगते रहेंगे झटके



महेश राठी
पर्यावरण
सिक्किम और देश के पूवरेतर राज्यों में आई भूकंपीय तबाही ने एक बार फिर से विज्ञान और प्रौद्योगिकी के लिए चुनौती का काम किया है। इस ताजा विपदा ने बर्बादी की कितनी बड़ी और भयावह तस्वीर रची है, उसका अंदाजा प्रत्येक नए समाचार के साथ हताहतों की बढ़ती संख्या और फैलते नुकसान के आंकड़ों से भी लगा पाना मुश्किल है। रिक्टर पैमाने पर 6.8 की तीव्रता वाले भूकंप के इन झटकों ने पूरे उत्तर-पूर्वी राज्यों के साथ ही नेपाल और राजधानी दिल्ली सहित समस्त उत्तर भारत को हिलाकर रख दिया है। देश के सबसे खतरनाक भूकंपीय जोन 4 से उठे इन झटकों को हमारे वैज्ञानिक आने वाले समय के लिए खतरनाक संकेत मानते हैं। भूकंप के ये झटके दक्षिण एशियाई भूभाग में इंडियन प्लेट और यूरेशियन प्लेट के बीच घषर्ण के कारण बनते हैं। जम्मू-कश्मीर से शुरू इंडियन प्लेट यूरेशियन प्लेट के नीचे स्थित हैं और यूरेशियन प्लेट जहां दो मिलीमीटर की गति से अपना स्थान बदल रही है तो वही इंडियन प्लेट चार से पांच मिलीमीटर की गति से अपना स्थान बदल रही है। इनके बीच अक्सर टक्कर होती है जिनसे छोटे भूकंप होते हैं परंतु बड़ी टक्कर होने से बड़े और भयावह भूकंप होते हैं। सिक्किम सहित दुनिया की सबसे युवा पर्वत श्रृंखला हिमालय ऐसे ही भूगर्भीय बदलावों और भूकंपों के परिणाम हैं। यह युवा एवं संवेदनशील हिमालय पर्वत श्रृंखला भारतीय पर्यावरण और जीवन में एक बेहद महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। भारतीय उपमहाद्वीप की भूदृश्यावली, जैवविविधता, वनस्पति जीवन चक्र, मानसून आधारित कृषि पंचांग, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं आर्थिक अवधारणाओं से लेकर उत्सवों तक का नियंतण्रएवं निर्धारण हिमालय की भौगोलिक उपस्थिति से ही होता है। भारतीय उपमहाद्वीप के लिए हिमालय सीमा रेखा भी है, मौसम और मानसून को नियंत्रित व लयबद्ध करने वाली विशालकाय ओट भी। परंतु यही हिमालय आज प्राकृतिक विपदाओं का केन्द्र बनकर जन जीवन पर कहर बरपा रहा है। लगातार और तीव्र भूकंप, निरंतर बादलों का फटना, बढ़ता भूस्खलन, अनियमित वष्राचक्र, बाढ़ रूपी लगातार जारी जलपल्रय हिमालय के टूटते और बिगड़ते पर्यावरण के स्पष्ट संकेत हैं। यह बर्बादी मानव निर्मित भी है। दुनिया के विकास पुरुषों की चिंता के केंद्र में इस नीले ग्रह की खूबसूरती और पर्यावरण से कहीं अधिक औद्योगिक विकास का जनून है। यही कारण है कि हिमालय आज औद्योगिक विकास को गति देने के लिए बढ़ती ऊर्जा की मांग की पूर्ति का एक स्रेत एवं साधन मात्र बनकर रह गया है। इसी ऊर्जा उत्पादन की जरूरतों को पूरा करने के लिए बांध निर्माणों की जैसे बाढ़ सी आ गई है। अभी हिमालय क्षेत्र में छोटे-बड़े कुल मिलाकर साढ़े पांच सौ के लगभग बांधों के निर्माण का कार्य जोरों पर है, जिसके लिए नदियों के पानी के प्रवाह को बांधा जा रहा है, नदियों को सुरंगों में धकेला जा रहा है या छोटी-बड़ी बस्तियों और शहरों को उजाड़कर विशालकाय झीलों में बदल दिया गया है। पूरे हिमालय क्षेत्र में पर्यटन, तीर्थाटन और विकास के नाम पर सड़कों का बड़ा नेटवर्क तैयार हो चुका है जिससे पहाड़ी क्षेत्रों में लोगों एवं वाहनों की आवाजाही बढ़ी है। आम आदमी के लिए देव भूमि कहलाने वाला हिमालय न्यायपालिका की तमाम हिदायतकारी निर्णयों के बावजूद भूमाफियाओं, नौकर शाहों एवं राजनेताओं के भ्रष्ट गठबंधन की मुनाफाखोरी के स्वर्ग में परिवर्तित हो चुका है। पर्यावरणविद् सिक्किम सहित पूरे हिमालय क्षेत्र में जारी इन निर्बाध, अनियंत्रित और अराजक निर्माणों पर चिंताएं जताने के साथ चेतावनी भी जारी करते रहे हैं। सरकार ग्लोबल वार्मिंग और ग्लेशियरों के पिघलने में कमी कितना ही रोना रोए मगर यह बगैर किसी विशेषज्ञता के नंगी आखों से दिखाई देने वाला सच है। औद्योगिक विकास जनित ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव केवल ग्लेशियरों के पिघलने में ही परिलक्षित नहीं हो रहा है। यह हिमालय के तापमान में हुई बढ़ोतरी और उसके दुष्प्रभावों में भी दिखाई देता है। फलों के बदलते स्वाद से लेकर जैव विविधता के लिए पैदा होती चुनौतियों और लुप्त होती कई वनस्पतियों से भी यह अनुवादित हो रहा है। बढ़ती गर्मी ने स्थानीय जल स्रेतों एवं वनस्पतियों से वाष्पीकरण में तेजी आई और आद्र्रतायुक्त गर्म हवाओं ने उन पर ठंडे वातावरण में पहुंचकर संघनन क्रिया के तहत घने बादलों का निर्माण किया और तेज ठंडी हवाओं के सम्पर्क में आने से बादल फटने की भयावह घटना बनी। ऐसी घटनाएं अक्सर अधिक उंचाई वाले क्षेत्रों में ही घटती हैं। दरअसल, अब समय विकास की वर्तमान चाल पर पुनर्विचार करने एवं एक वैकल्पिक विकास की नई राह चुनने का है, जिससे विकास को पर्यावरण के अनुकूल बनाया जा सके और हिमालय का अस्तित्व बच सके क्योंकि हिमालय बचेगा तो देश बचेगा।

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