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शनिवार, 8 मार्च 2014

क्रोनी नही, यह केसिनो कैपिटलिज्म है

महेश राठी
पूंजीवाद विकास की मुक्त व्यापार व उदारवादी अवधारणा के पैरोकार निगमीकृत विकास से इतना अभिभूत हैं कि घटते रोजगार अवसर व बढती आर्थिक विषमताओं जैसी असाधारण घटनाएं भी उनका ध्यान आकर्षित नहीं कर पा रही हैं। सकल घरेलू विकास की उंची दर के दावों से मदहोश नव उदारवाद के समर्थक वास्तव में विकास दर में उछाल को ऐसे रोमांचक ढ़ंग से विकास के रूप में पेश कर रहे हैं कि इस कथित विकास की वास्तविकता से अनभिज्ञ कोई भी सामान्य ज्ञान रखने वाला आमजन इस वृद्धि को विकास मानकर अनायास ही इससे अभिभूत हो उठता है। विकास के इस नये माॅडल से आज भारतीय समाज के बहुमत हिस्से की समाजिक सुरक्षा व रोजगार संकट में है।
दरअसल निगमीकृत विकास पर आधारित सकल घरेलू उत्पाद के दावे जितने चमत्कारिक दिखाई देते हैं उनकी वास्तविकता उतनी ही चैंकाने वाली है। वास्तव में वर्तमान समय में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि को अर्थव्यवस्था के विकास के तौर पर पेश किया जा रहा है, जबकि सकल घरेलू विकास वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन के आकलन को दशानें वाला मापदण्ड भर है और किसी अर्थव्यवस्था का विकास एक सापेक्ष अवधारणा है जिसमें सेवाओं और वस्तुओं के उत्पादन के तरीकों से लेकर राष्ट्रीय आय और लोगों के जीवन स्तर तक को संकलित किया जाता है। आज जब उदारवाद के पैरोकार बेहद उदारता से भारतीय अर्थव्यवस्था की तेज वृद्धि के गुणगान में वयस्त हैं तो बढ़ती आर्थिक विषमता और चैड़ी होती समाजिक असमानता की खाई इस रोजगार नाशक विकास पर एक बडा प्रश्नचिन्ह अवश्य खडा करती है।
सकल घरेलू उत्पाद के बढने से राष्ट्रीय आय में बढ़ोतरी तो होती है, परन्तु वास्तविक प्रश्न उस आय के सृजन की व्यवस्था का है। विकास के वर्तमान माॅडल के आलोचक पूंजीवाद की वर्तमान अवस्था को क्रोनी अथवा याराना पूंजीवाद के रूप में परिभाषित कर रहे हैं, परंतु वास्तविकता यह है कि पूंजीवादी व्यवस्था में राज्य और पूंजीवाद के बीच दोस्ती का यह स्थायी भाव सदैव विद्यमान रहता है। यह याराना कम अथवा अधिक हो सकता है परंतु यह याराना, पूंजी और राजसत्ता के बीच कभी भी खत्म नही होता है। वर्तमान समय में यह दोस्ती अपने उच्चतम स्तर पंहुचकर ऐसी अवस्था में पहंच गई है कि अब पूंजीवाद निरंकुश होकर अनुत्पादक होने की स्थिति में पंहुच चुका है और अपने लाभ के लिए वह सट्टेबाजी का सहारा ले रहा है। ऐसी स्थिति में पूंजीवाद की वर्तमान अवस्था को क्रोनी नही केसिनो कैपिटलिज्म अथवा सट्टा पूंजीवाद कहा जाना चाहिए। क्रोनी पूंजीवाद की अवस्था में राजसत्ता  और पूंजीवाद के बीच याराना तो रहता ही है पंरतु उसमें उत्पादकता बनी रहती है, क्रोनी कैपिटलिज्म का उत्पादन विरोधी होना उसकी चारित्रिक विशेषता नही। वहीं केसिनो कैपिटलिज्म अपने लाभ के लिए गैर उत्पादक गतिविधियों का सहारा लेता है और उत्पादकता विरोधी होकर उत्पादकता से घबराना उसकी चारित्रिक विशेषता होती है।  
मुनाफे की तलाश में सट्टेबाजी का यह भाव विश्वव्यापी है और मुनाफे की तलाश में मुक्त वित्त पूंजी की आवारगी और सकल घरेलू उत्पाद की उंची वृद्धि दर की इस कदमताल के साक्षी नब्बे के दशक में लेटिन अमेरिका और एशियाई टाईगर भी रहे हैं। यह आवारा  पूँजी स्थापित उद्योगों के लाभ को हड़पने अथवा दुनिया में सट्टेबाजी से मुनाफा कमाने के लिए ही भटकती रहती है। भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भो में भी इसकी प्रवृति को आसानी से देखा जा सकता है। यदि हम चीनी उद्योग को एक नमूने के तौर पर लें तो विकास के नाम पर पूँजी के इस छल को समझ सकते हैं। 2009-10 में चीनी उद्योग के मुनाफे में एक बम्पर उछाल देखने में आया और यह उछाल कोई उत्पादन में बढ़ोतरी या लागत में कटौती से पैदा हुआ नही वरन् चीनी के दामों में आए कई गुणा उछाल के कारण था। स्टाॅक एक्सचेंज में सूचीबद्ध  33 चीनी कम्पनियों ने दिसम्बर माह में खत्म तिमाही में अपना मुनाफा 2900 गुणा बढ़ा कर 901 करोड़ कर लिया जो कि पिछले साल 2008 की इसी तिमाही में महज 30 करोड था। विशेषज्ञों के अनुसार यदि गैर सूचीबद्ध निगमों और सहकारी निगमों का मुनाफा भी इसमें शामिल कर लिया जाए तो यह इससे दोगुना हो जाएगा। 2008 की तीसरी तिमाही में घाटा दिखाने वाली चीनी मिलों का मुनाफा 2009 का अन्त आते आते चीनी के बढ़े दामों के कारण जबरदस्त ढ़ंग से फूट पडा। बलरामपुर का लाभ जहां 51.29 से बढ़कर 76.55 करोड़ पर पंहुच गया वहीं त्रिवेणी इंजीनियरिंग 23.98 से 72.94 करोड़ पंहुचा और बजाज, हिन्दुस्तान, सिम्भावली और मवाना चीनी मिल जैसी दर्जन भर कंपनियां जो पिछले साल घाटा दिखा रही थी जबरदस्त मुनाफे में आ गई। उपर उल्लेखित 33 चीनी निगमों का टर्नओवर भी 76 प्रतिशत से अधिक का उछाल दर्ज करते हुए 6443 करोड़ के आंकडे तक पंहुच गया। जाहिर है चीनी उद्योग में मुनाफे के इस ज्वालामुखी के फट पडने का असर सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर में भी प्रकट हुआ। परन्तु उत्पादन के बढ़ने से इस सकल घरेलू उत्पाद का अधिक संबंध नही बल्कि विडम्बना यह है कि सकल घरेलू उत्पाद की बढ़ोतरी कई बार उत्पादन में बढ़त को अपने लिए अहितकर समझती है। मसलन कि मार्च 2010 में जब इस वर्ष चीनी उत्पादन के आंकडों की गणना करते हुए विशेषज्ञों और कृषि मंत्रालय ने यह आशा जाहिर की कि पिछले साल की तुलना में इस वर्ष चीनी का उत्पादन बढ़ जाएगा तो सट्टेबाजी से मुनाफा कमाने में संलिप्त चीनी निगमों में घबराहट हो गई जिससे स्टाॅक एक्सचेंज में सूचीबद्ध  कंपनियों के शेयरों का दाम 8 से 11 प्रतिशत नीचे गिर गया। चीनी उद्योग के उत्पादन, उपभोग और निर्यात के 2000 और 2010 के बीच के दशक के रूझान भी पूँजीवाद के इस बदलते स्वरूप को उजागर करते हैं। 2000 में देश में जहां चीनी का उत्पादन 185.27 मिलियन टन था तो वहीं अगले दस सालों में इसमें तेजी का रूझान देखा गया और 2010 में उत्पादन बढ़कर 243.94 मिलियिन टन हो गया था, वहीं चीनी के उपभोग में इसके अनुरूप तेजी दर्ज नही की। चीनी उपभोग 2000 में 167.81 मिलियन टन से बढ़कर 213.3 के आंकडें तक पहुंचा था, हालांकि 2008 में यह उपभोग 2010 की तुलना में कही अधिक 219.00 मिलियन टन था और इसके बावजूद भी 2010 की पहली तिमाही में चीनी के दाम अपने उच्चतर स्तर पर थे। इसी प्रकार वैश्विक चीनी बाजार में भी भारत की हिस्सेदारी उपभोग की तुलना में उत्पादन में बढ़ी है। वैश्विक चीनी उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी बढ़कर 2000 के 18.51 प्रतिशत की तुलना में 24.30 प्रतिशत हो गयी तो उसके उपभोग में 2000 के 16.20 की तुलना में 2010 में 20.76 प्रतिशत की बढ़ोतरी अर्थात 4.56 प्रतिशत की बढ़ोतरी ही दर्ज की गई थी। चीनी उद्योग के यह रूझान घरेलू बाजार में चीनी की समुचित उपलब्धता को दर्शाते हैं।
उत्पादन के विकास से शेयर बाजार का यह विरोधी संबंध ही वर्तमान विकास की वास्तविकता को जाहिर करता है। कीमतें बढ़ने से तथाकथित विकास का यह रूझान केवल चीनी उद्योग में नही वरन् दूसरे क्षेत्रों में भी दिखाई देता है। सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि की कमोबेश यही स्थिति देश के खुदरा बाजार में भी दिखाई देती है। भारतीय खुदरा व्यापार में 2004-05 के 35000 करोड के मुकाबले 2010 में 109000 करोड़ तक की बढ़ोतरी का अनुमान था और यह बढ़ोतरी खुदरा व्यापार में किसी क्रान्तिकारी परिवर्तन से नही कीमतों में भारी बढ़ोतरी से है और कीमतें इस निगमीकृत विकास के स्वामियों के पक्ष में किए गए अनिवार्य वस्तु अधिनियम और वायदा कारोबार में बदलावों से है। मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के देश में पैरवीकार विशेषकर देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कीमतों में इस बढ़ोतरी के संबंध में एक नया और विशेष प्रकार का हास्यास्पद विकासवादी मिथक गढ़ने की कोशिश करते रहे हैं। मनमोहन सिंह ने कई अवसरों पर अपने उद्बोधन में कहा है कि लोगों की आय के बढ़ने के कारण मांग में वृद्धि हुई है और इसी कारण से अनिवार्य वस्तुओं की मांग में बढ़ोतरी से कीमतों में तेजी आई है। परंतु पिछले दस वर्षो के अनिवार्य वस्तुओं के बिक्री के रूझानों और कीमतों में तुलना करके देखा जाए उनके इस तर्क की वास्तविकता सामने आ जाती है। पिछले दस वर्षो में दूध की बिक्री में जहां 51 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है तो वहीं उसकी कीमतों में होने वाली वृद्धि 156 प्रतिशत है। चावल में 2004 से 2014 के बीच बिक्री में महज 12.15 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई तो उसके दामों में 136.36 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। इसी प्रकार का रूझान अन्य खाद्यान्नों, दलहन और तिलहन में भी दर्ज किया गया है। मांग बढ़ने और कीमतों में बढ़ोतरी के मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के वकीलों के इस मिथक की वास्तविकता को एक अन्य रोचक तथ्य भी ध्वस्त कर देता है। 2004 से 2014 के दशक में मांग बढ़ने के अनुरूप दाम बढ़ने के मनमोहन सिंह के सामान्य तर्क के एकदम विपरीत रूझान आॅटोमोबाइल उद्योग में दिखाई पडता है। यदि मारूती के एक ब्राण्ड स्विफ्ट को उदाहरण के रूप में लें तो प्रधानमंत्री का खोखला तर्क स्वयं ही ढ़ेर हो जाता है। देश में 2004 में महज 53171 स्विफ्ट कारों बिक्री हुई थी जो 2014 तक बढ़कर 199000 पर पहुंच गई थी अर्थात एक दशक में इसमें 274.26 प्रतिशत का इजाफा हुआ। वहीं इस बढ़ोतरी की तुलना में स्विफ्ट कार की कीमत में महज 18.35 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। मांग बढ़ने से कीमत बढ़ने का देश के प्रधानमंत्री का यह तर्क संभवतया उन्हीं उत्पादों पर लागू होता है जो लोगों के उपभोग की अनिवार्य वस्तुएं हैं। इसके अलावा कीमतों में वृद्धि के इस रूझान का एक अन्य उल्लेखनीय पहलू यह भी है कि खाद्यान्नों की बिक्री में दर्ज यह बढ़ोतरी 10 वर्षो में क्रमवार हुई है तो वहीं उनकी कीमतों में वृद्धि का प्रमुख कारण 2009 की अंतिम दो तिमाही और 2010 की शुरू की दो तिमाही में आये जबर्दस्त उछाल के कारण अधिक है। यूपीए-1 से वामपंथ की समर्थन वापसी और मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए-2 सरकार बनने के बाद आर्थिक नव उदारवाद के नीति निर्माता और समर्थक मुनाफे की लूट के लिए मानों निरंकुश ही हो गये थे और उसी का परिणाम था कि उन्होंने देश की अर्थव्यवस्था को एक खुले सट्टा बाजार में ही बदलकर रख दिया था। उनकी इस लूट और उससे उपजे विकास के खोखले दावों की गूंज उस समय के मुद्रास्फीति दर, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक और सकल घरेलू उत्पाद के ग्राफ में पूँजीवाद की सट्टेबाजी से जनता की लूट और उस पर खडे विकास की कहानी खुद ही बयां कर देता है। जब देश की जनता कीमतों की बढ़ोतरी से त्राही-त्राही कर रही थी और मुद्रास्फीति का ग्राफ अपने उच्चतम स्तर पर था तो उसी समय मुक्त बाजार के नीति निर्माता सकल घरेलू विकास दर में उछाल के दावे कर रहे थे। 2009 में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित औसत वार्षिक मुद्रास्फीति दर 11.98 प्रतिशत अर्थात 12 प्रतिशत के लगभग थी तो वहीं दिसम्बर से दिसम्बर की यही वार्षिक दर लगभग 14 प्रतिशत पहुंच गई थी और ठीक इसी समय यूपीए-2 सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 9.8 प्रतिशत होने के दावे करते हुए उसके दो अंकों में पहुंचने की आशा के हर्षोल्लास में मदहोश था।
दरअसल सकल घरेलू उत्पाद में बढ़ोतरी से लेकर अर्थव्यवस्था का सम्पूर्ण विकास तक पूँजी स्वामियों का छलपूर्ण खेल भर है और स्वाभाविक है कि यदि यह कुछ व्यक्तियों का खेल है तो इसका लाभ भी कुछ सीमित हाथों और तबकों तक रहेगा। देश के विकास का रोडमेप तैयार करने वाले मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के पैरोकार लगातार सांख्यिकीय आंकडों के द्वारा दावा करते हैं कि विकास का वर्तमान उदारवादी रास्ता ही दुनिया के विकास का एकमात्र रास्ता है। अपने दावों को सिद्ध करने के लिए वह लगातार गरीबी घटने की घोषणाएं भी करते रहते हैं परन्तु उन्ही द्वारा बनाए गये आयोग और कमेटियां समय समय पर उनके आंकडों की इस बाजीगरी को झूठलाते रहते हैं। सरकार द्वारा गठित अर्जुन सेनगुप्ता आयोग ने इसी प्रकार के छद्म दावों की हवा निकालते हुए देश के सामने यह तथ्य पेश किए कि हमारी आबादी का 79 प्रतिशत बीस रूपये रोज से भी कम पर गुजारा करता है। अभी अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी की रिर्पोट का शोर थम भी नही पाया था कि प्रधानमंत्री की सलाहकार परिषद के सचिव सुरेश तेंदुलकर कमेटी की रिर्पोट आ गई जिसने योजना आयोग के दावे को झूठलाते हुए बता दिया कि देश में गरीबी घटकर 26 प्रतिशत होने की अपेक्षा बढ़कर 37 प्रतिशत हो गई है। दरअसल इस मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था को बाजार अर्थव्यवस्था कहना ही एक बडा धोखा है क्योंकि यह किसी बाजार व्यवस्था के बुनियादी सिद्धान्तों को ही धत्ता बताती है। इस बाजार अर्थव्यवस्था में निजी स्वामित्व तो है परन्तु प्रतिस्पर्धा नदारद है, जोकि किसी भी बाजार के बाजार होने की बुनियादी आवश्यकता है। दरअसल यह एक एकाधिकारी व्यवस्था है और यह व्यवस्था बाजार की मांग की पूर्ति नही करती वरन् अपने उत्पादों के अनुरूप उपभोक्ता को गुमराह करते हुए नियन्त्रित संचार माध्यमों के द्वारा मांग का निमार्ण करती है। इस बाजार के केन्द्र में उपभोक्ता नही हैं जोकि किसी भी बाजार का आधार होता है, इस बाजार के केन्द्र में वित्त पूँजी के स्वामी और कम लागत अथवा बिना लागत से कमाया उनका लाभ ही है। स्वाभाविक है कि ऐसी स्थिति में लाभ कम उत्पादक, गैर उत्पादक एवं एक वर्ग विशेष तक सीमित होगा और यह विकास अन्तोगत्त्वा इस सीमित वर्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति ही करेगा। इस सीमित विकास को हम जहां तहां वर्गीय रूप से केन्द्रीकृत विकास केे रूप में पाते हैं। आज देश के 18 लाख परिवार ऐसे हैं जिनकी वार्षिक आमदनी 45 लाख रूपये या उससे अधिक है।  35 औद्योगिक घरानों के पास देश के 80 करोड मजदूर किसानों की कुल सम्पदा से भी अधिक सम्पति है। जिससे  विकास का यह केन्द्रीकरण केवल भोगोलिक स्तरों पर नही पूरे देश में सामाजिक स्तरों पर भी दिखाई देती है।

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