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गुरुवार, 7 मई 2015

जातिवादी भारतीय मीड़िया का पक्षपाती चेहरा

महेश राठी
मीड़िया यूं तो लोकतंत्र का चैथा स्तंभ कहा जाता है परंतु भारतीय मीड़िया जातिवादी भारतीय समाज की वास्तविकता का जीवंत प्रतिबिम्ब और सामाजिक जीवन में निरंतर सक्रिय रहने वाले जातिवादी पक्षपात का उदाहरण है। हालांकि भारतीय मीड़िया की प्रतिक्रिया इन पक्षपात के आरोपों पर तुरंत प्रतिक्रिया देता है एवं हमलावर होती है। फिर भी हमारे सामाजिक राजनीतिक जीवन में ऐसे असंख्य उदाहरण है जो मीड़िया के इस पक्षपाती और जातिवादी चेहरे को हमेशा बेनकाब करते रहते हैं। दिल्ली की सड़कों पर लाखों संगठित और असंगठित मजदूर उतरते हैं और वे और उनकी मांगे किसी भी अखबार अथवा टीवी चैनल में जगह नही बना पाती हैं। खबर नही बन पाने से भी बड़ी त्रासदी होती है मजदूरों के आने से शहर में होने वाले ट्रेफिक जाम की खबर बनना होती है। केवल मजदूरों के आंदोलन ही नही हजारों साल से हाशिये पर पड़ी वंचित जातियों की तकलीफों के सवालों पर भी मीड़िया का पक्षपाती और जातिवादी चरित्र लगतार उजागर होता ही रहता है। 2006 में खैरलांजी की बलात्कार और हत्या की घटना पर एक पखवाड़े तक निर्ममतापूर्वक खामोशी रखने वाले राष्ट्रीय मीड़िया ने उस घटना की खबर दलितों के गुस्से के फूट पड़ने के बाद बनाई। और खबर भी यह कि दलितों के आक्रोश के कारण हुई तोड़फोड़ से महाराष्ट्र के अभिजात्य वर्ग अथवा द्विजों को कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। यह जातिवादी मीड़िया केवल खबरों के प्रकाशन और प्रसारण पर ही धूर्ततापूर्ण खामोशी नही अख्तियार करता है बल्कि खबरों को बनवाने में चतुराई भरी सक्रियता भी दिखलाता है। दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में कुछ वर्षों पहले उभरा आरक्षण विरोध इसी खबर निर्माता मीड़िया की अति सक्रियता का एक अदभुत उदाहरण है। एक तरफ राष्ट्रीय मीड़िया कुछेक अगड़े जातिवादी के छात्रों को एकत्र कर उनके हाथों में नारे लिखी तख्तियां और बैनर पकड़ाकर आंदोलन बनाने की कोशिश कर रहा था तो वहीं दूसरी तरफ डाॅ. अनूप सराया के नेतृत्व में एकजुट होकर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे सैंकड़ों की संख्या में जुटे वंचित तबके की आवाज को स्लेट पर चाॅक से लिखी गई इबारत मिटाने की तरह उड़ा दे रहा था। इसके अलावा अभी हाॅल ही में 23 अप्रैल को सोनीपत की एक वाल्मिकी बस्ती पर जब संघी गुण्ड़ों ने हमला किया और कहर बरपाया तो इसी राष्ट्रीय मीड़िया ने उस खबर को प्रसारित अथवा प्रकाशित करने लायक भी नही समझा। सोनीपत के स्थानीय मीड़िया ने अवश्य ही इस खबर को प्रकाशित किया मगर राज्य की ब्राहम्णवादी संघी सत्ता के मनमाफिक बनाकर। इस पूरी घटना को दो गुटों की लड़ाई के रूप में पेश किया गया। जबकि इस घटना की उपलब्ध सीसीटीवी फुटेज चीख चीखकर गवाही देती है कि यह संघी गुण्ड़ों का एकतरफा हमला था। जिस हमले का कारण आरएसएस दफ्तर के सामने खेलते बच्चों की गेंद का संघ दफ्तर में चले जाने की मामूली सी घटना बनी। 
इसके अलावा इस मीड़िया का ब्राहम्णवादी चेहरा इसकी इसी प्रकार की रिपोर्टिंग से लगातार प्रकट होता है। मजदूरों के आंदोलन से ट्रेफिक जाम पर विलाप करने वाला मीड़िया कभी भी दुर्गा पूजा, राम नवमी, गणेश चतुर्थी के जुलूसों से होने वाले ट्रेफिक जाम पर आंसू का एक भी कतरा बहाता नही देखा गया है। 
दरअसल, मीड़िया के इस पक्षपाती व्यवहार का कारण उसमें से दलित, आदिवासी और पिछड़ों के नगण्य प्रतिनिधित्व में अन्तर्निहित है। मीड़िया जो तेजी से समाज में बढ़ती पैठ के कारण इस दौर के राजनीतिक और सामाजिक जीवन में प्रचलित रूझानों का निर्धारक बन बैठा है, वो योजनाबद्ध  ढंग से अपने पक्षपाती एजेंड़े को आगे बढ़ा रहा है। यदि मीड़िया में समाज के सबसे वंचित तबकों को देखें तो उनका प्रतिनिधित्व मीड़िया में इतना कम है कि वह मीड़िया द्वारा परोसी जा रही रिपोर्टिंग को किसी भी प्रकार से प्रभावित करने में सक्षम ही नही है। यदि देश के अंग्रेजी मीड़िया पर एक निगाह ड़ाले तो स्थिति काफी स्पष्ट हो जाती है। आरएनआई (रजिस्ट्रार आॅफ न्यूजपेपर्स फाॅर इण्डिया) की 55वी रिपोर्ट के अनुसार अभी देश में लगभग 1406 अंग्रेजी पत्र हैं और उनमें काम करने वाले लोगों की एक औसत संख्या 20 माने तो देश में अंग्रेजी मीड़िया में काम करने वाले लोगों की संख्या 25 से 30 हजार होती है। परंतु दिल्ली में रहने वाले एक पत्रकार एजाज अशरफ के स्वतंत्र सर्वे की माने तो वे इस अंग्रेजी मीड़िया में महज 21 दलित पत्रकारों को ही पहचान कर पाये थे। दलित पत्रकारों की यह नाममात्र की संख्या भारतीय मीड़िया की तथाकथित निष्पक्षता की पूरी कहानी बयां कर जाती है। 
इसके अलावा भी कईं स्वतंत्र अध्ययन समूहों और व्यक्तियों ने मीड़िया में दलितों के प्रतिनिधित्व पर सर्वे एवं अध्ययन किये हैं। सीएसडीएस द्वारा 2006 में इसी प्रकार के एक सर्वे में पाया गया कि मीड़िया के शीर्ष नीति निर्माताओं में एक भी दलित चेहरा नही है। हालांकि चालकों, चापरासियों, समान ढ़ोने वालों, मशीन के कारगरों में उनकी उपस्थिति है। जाहिर है वे लोग मीड़िया द्वारा दिखाई जा रही रिपोर्ट अथवा भारत के तथाकथित विकास की कहानी बनाने में अपना प्रभाव नही छोड़ सकते हैं। उनका काम उन कहानियों को छापना और छापकर ढ़ोना ही है। 
वंचितों की मीड़िया में अनुपस्थिति 
जब मीड़िया में वंचितों की कमी के उपर सवाल किया जाता है तो उनकी सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि का हवाला दिया जाता है। मीड़िया में वंचितों के कम प्रतिनिधित्व के लिए इससे मिलते जुलते कई तरह के तर्क दिये जाते हैं। जिसमें उनकी उच्च शिक्षा में कम संख्या, सरकारी नौकरियों को प्राथमिकता देना, आदि प्रमुख रहते हैं। हालांकि सबसे बड़ा कारण जातिगत पूर्वग्रह है जिसे छूपाने के लिए और मीड़िया में योग्यतावाद के आधार पर भर्ती के तर्क दिये जाते हैं। वास्तव में योग्यतावाद का गान करने वाला और निष्पक्षता की दुहाई देने वाले इस मीड़िया में जातिगत और क्षेत्रीय दुराग्रहों के  किस्से आम हैं। देश के दिल्ली स्थित एक बहुत ही प्रतिष्ठित माने जाने वाले प्रकाशन संस्थान के कुछ इसी प्रकार के किस्से हाल ही तक काफी लोकप्रिय थे। इस संस्थान की उस समय की मुख्य संपादक के सबंध में विख्यात था कि उनके संस्थान में भर्ती के लिए ब्राहम्ण होना पहली योग्यता है और उस पर व्यक्ति पहाड़ी ब्राहम्ण हो तो योग्यता और बढ़ जाती है और इसके अलावा यदि आवेदक कुमायूनी ब्राहम्ण हो तो उसके जितना कोई दूसरा योग्यता का पैमान नही हो सकता है। ठीक इसी प्रकार के उदाहरण का साक्षी मैं स्वयं बना जब कुछ वर्षों पहले अपनी एक मित्र के साथ दिल्ली के सरोजनी नगर के करीब एक टीवी चैनल के कार्यालय में गया। मैं वहां के स्टाॅफ के कंबीनेशन को देखकर हैरान था। वहां अधिकतर लोग दो क्षेत्रों से ही थे एक दक्षिण भारतीय और दूसरे हरियाणवी। जानकारी लेने पर ज्ञात हुआ कि चैनल के दो प्रमुख नीति नियंत्रक दक्षिण भारत और हरियाणा से हैं। इसी कारण वहां दो ही राज्यों के कर्मचारियों की भरमार थी। दरअसल मीड़िया में दाखिल होने के लिए किसी संपर्क, सिफारिश, किसी के हवाले अथवा एक अच्छे नेटवर्क की आवश्यकता होती है। वर्तमान दौर में भारतीय मीड़िया में दाखिल होने की पहली शर्त सही जाति में पैदा होना और दूसरी आपके संपर्क और किसी खास नेटवर्क का हिस्सा होना है। उपर दिल्ली के जिस प्रकाशन संस्थान की जिक्र किया गया था और उसकी प्रधान संपादक के ब्राहम्णवादी रूख का जिक्र किया गया था, उस संस्थान से वह संपादक विदा हो चुकी हैं। उनकी जगह जिन सज्जन ने ली है वे भी देश के मीड़िया जगत में एक अनूठा उदाहरण हैं उनका अपना नेटवर्क है। अपने साथ अपने विश्वसनीय लोगों की फौज लेकर चलते हैं। उनके उपरोक्त संस्थान में आने के बाद पिछली संपादक द्वारा भर्ती किये गए योग्य व्यक्तियों की योग्यता और नौकरी दोनों पर ही संकट आ खड़ा हुआ था और कई को छंटनी का भी शिकार होना पड़ा। वैसे हमारे लिए भी यह एक संकट ही है किस नेटवर्क को मौलिक योग्य माना जाए। 2010 में 25 कंपनियों में किये गए एक सर्वे का निष्कर्ष था कि कंपनियों में चयन का योग्यता पैमाना नही है बल्कि रिश्तेदारी, क्षेत्रवादी झुकाव, जाति, सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि, सिफाारिश, शिक्षित अभिभावक और शहरी प्राथमिकता इस चयन में प्रमुख भूमिका अदा करती है। 
लोकतंत्र के चैथे स्तंभ के दुष्टिकोण और रिपोर्टिंग में विविधता के लिए उसमें सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित एवं पिछड़े तबको को प्रतिनिधित्व देने की आवश्यकता है। सभी वर्गो के समान प्रतिनिधित्व के आधार पर ही मीड़िया का दृष्टिकोण तार्किक, संतुलित और समतावादी हो सकता है। जिसके लिए सामाजिक रूप से हाशिये पर पड़े तबकों के उन लोगों को प्रतिनिधित्व देना आवश्यक है जो भारतीय मीड़िया का समतावादी दृष्टिकोण बनाने में सहायक सिद्ध  हो सके। ऐसा समान प्रतिनिधित्व ही मीड़िया में हावी वर्तमान जातिगत प्रभुत्ववादी परिवेश को बदल सकता है।  
मीड़िया में भेदभाव की ठीक यही स्थिति अमेरिका में भी रही है। यहां तक कि 13वां संशोधन भी इस भेदभाव पर कोई विशेष अंतर नही डाल पाया। 1965 में वाॅटस दंगे के बाद अमेरिकी सरकार ने केरनर आयोग नामक एक फेक्ट फाईंडिंग कमेटी का गठन किया। अपनी रिपोर्ट में उसने कहा कि एफ्रो अमेरिकियों के प्रति अमेरिकी मीड़िया पूर्वाग्रह का शिकार है। इस आयोग की रिपोर्ट ने स्पष्टतः अमेरिकी मीड़िया को पिछड़ा बताते हुए कहा कि वह पूरे परिदृश्य को केवल श्वेत आदमी की आंख से ही देखता है। 1970 और 80 के दशक तक काले अमेरिकियों को बेहद हिकारत की दृष्टि से देखा जाता था और मीडिया में उनका प्रतिनिधित्व महज ४ प्रतिशत ही था। उसके बाद 80 के दशक के नागरिक अधिकार आंदोलन के बाद हालात बदलने शुरू हुए मीड़िया में नस्ल भेद खत्म करने और काले लोगों के प्रतिनिधित्व बढ़ाने को लेकर अभियान की शुरूआत हुई। परिणामस्वरूप अब हालात बदल चुके हैं। 2012 में किये गए एक सर्वे के अनुसार अब अमेरिकी अखबारों में काले अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व बढ़कर 12. 37 प्रतिशत हो चुका है। जिसका प्रभाव उनकी रिपोर्टिंग और उनके दृष्टिकोण पर भी साफ दिखाई पड़ता है। 
मीड़िया में आरक्षण का सवाल केवल वंचित तबकों केे प्रतिनिधित्व का सवाल नही है। इससे भी कही बढ़कर यह समाज के सभी हिस्सों को प्रतिनिधित्व देकर भारतीय मीड़िया के एक निष्पक्ष दृष्टिकोण के निर्माण का सवाल है। वर्तमान ब्रहाम्णवादी वर्चस्व मीड़िया के दृष्टिकोण और रिपोर्टिंग को पक्षपाती और अप्रसांगिक बना रहा है। वैसे भी देश की बहुमत आबादी का प्रतिनिधित्व मीड़िया में नही होगा तो बार बार उस पर पक्षपाती होने के आरोप लगते ही रहेंगे। देश की बहुमत आबादी और उसमें भी खासतौर दलित एवं आदिवासियों को प्रतिनिधित्व देना ही नही इस इस समय की सबसे बड़ी मांग उन्हें नीति निर्णय की प्रक्रिया में शामिल करने की है। यह देश के बहुमत वंचित तबकों के साथ ही देश में लोकतंत्र के संतुलित और समतावादी विकास के हितकर होगा अन्यथा आने वाले समय में यह देश के समग्र विकास के लिए सबसे बड़ी रूकावट बनकर इस तथाकथित विकास पर भी बड़ा सवाल खड़ा कर सकता है।         

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