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शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

‘‘मोदी तेरा जेटली, हमें थमा गया चाय की केटली‘‘

महेश राठी
गुजरात में भाजपा ऐसे लड़ रही है कि मानो वह एक हारी हुई लड़ाई लड़ रही हो! गुजरात  चुनावों के पहले चरण के बाद भाजपा की बेचैनी बढ़ती ही जा रही है, अभी तक अपने विकास गीत को सबका कोरस बनाने वाली भाजपा गुजरात में सीडी से लेकर आतंकवाद, मोदी गौरव की रूदाली और व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप के सभी अवास्तविक सवालों पर चुनाव को केन्द्रीत करने की जुगत में लग गई है। वास्तव में गुजरात के हरेक तबके और समुदाय को विकास की असलियत समझ आ चुकी है। तभी गुजरात में आजकल एक जुमला बेहद प्रचलित हो गया है, ‘‘विकास गांड़ौं थयो छे‘‘ अर्थात विकास पागल हो गया है। यह केवल जुमला भर नही गुजरात में भाजपा और मोदी के संपूर्ण कार्य का बयान बन चुका है। पिछले 22 सालों में गुजरात ने जो विकास देखा यह उस विकास का निष्कर्ष उस विकास की पूरी कहानी है।
वास्तव में यदि गुजरात में पिछले दिनों के घटनाक्रम और पिछले दो सालों में घटी घटनाओं को देखें तो गुजरात की जनता के मूड को आयानी से समझा जा सकता है। एक भी ऐसा बड़ा समुदाय नही है जिसमें भाजपा विरोध अथवा भाजपा को हराने की एक संगठित मुहिम नही दिखाई पड़ती हो। भाजपा के परंपरागत मतदाता और समर्थक और वित्त पोषण का आधार रहने वाले गुजराती व्यापारी से लेकर गुजरात के मजबूत पटेल समुदाय तक सभी पिछले दो सालों में सड़कों पर रहे हैं और भाजपा को सबक सिखाने का जनून ही सबका केन्द्रीय और मूल मुद्दा रहा है। पाटीदार अमानत आंदोलन समिति के युवा नेता हार्दिक पटेल से लेकर पिछड़ा वर्ग की आवाज बने अल्पेश ठाकोर और गुजरात और देशभर में अनुसूचित जाति का चेहरा बने जिग्नेश मेवाणी तक सभी एक सुर में 2017 में भाजपा को सबक सिखाने के लिए कमर कसे हुए हैं।
हालांकि राजनीति के कई जानकार इस बात पर भी चिंता जाहिर करते दिखाई पड़ते हैं कि अमानत आंदोलन समिति के नेता हार्दिक पटेल के कई साथी तो भाजपा में शामिल हो चुके हैं। परंतु दिलचस्प तथ्य यह भी है कि भाजपा में शामिल होने से पहले तक इनमें से कईं नामों को लोग जानते भी नही थे। इसके अलावा घूस देकर भाजपा में शामिल कराने के नरेन्द्र पटेल के हाल ही में हुए प्रकारण ने लोगों में यह भी भावना जमा दी है कि भाजपा में शामिल होने की यह कवायद भी भाजपा की बढ़ती हुई बेचैनी की ही गवाह है जो केवल यह दिखाने के लिए कि पटेलों का नया नेतृत्व उनके साथ भी है के लिए कुछ भी साम, दण्ड,़ भेद का सहारा ले रही है। असल में इस मजबूती में ही भाजपा की कमजोरी का राज भी अन्तर्निहित  है। कहने वाले यह तक भी कह रहे हैं कि 2015 में हुए पाटीदार अमानत आंदोलन के समय गुजरात सरकार ने 1500 लोगों पर एफआईआर करके बलवा और फसाद के मुकदमें दर्ज किये थे और तकनीकी तौर वह सभी 1500 लोग हार्दिक पटेल के सहयोगी थे। अब उनमें से यदि 10-20 लोग भाजपा में किसी भी कारण से भाजपा में शामिल हो जाते हैं क्या उससे पटेल समुदाय में भाजपा के खिलाफ बने गुस्से और नाराजगी और भाजपा को हराने की प्रतिबद्धता को कम करने के लिए काफी मान लिया जायेगा। ध्यान रहे कि गुजरात में पटेल समुदाय की आबादी कुल आबादी का लगभग 14 प्रतिशत है।
कमोबेश यही स्थिति और एक स्तर पर इससे भी अधिक नाराजगी गुजरात की अनुसूचित जाति के भीतर दिखाई पड़ रही है। हाल में अनुसूचित जातियों के सबसे चर्चित चेहरे के तौर पर देखे जा रहे जिग्नेश मेवाणी तो जनसभाएं करके सार्वजनिक रूप से भाजपा को हराने की शपथ अपने समुदाय को दिलवा रहे हैं और उनकी सभाओं में जुटती भीड़ जिस प्रकार उनका जवाब दे रही है, उससे साफ जाहिर हो रहा है कि आने वाले चुनावों में गुजरात की अनुसूचित जातियों का क्या रूख रहने वाला है। दरअसल रोहित वेमुला के संस्थानिक कत्ल ने पूरे देश की अनुसचित जातियों में भाजपा और उसके मातृ संगठन संघ के खिलाफ एक बड़े गुस्से को जन्म दिया था और उसके बाद सुरेन्द्रनगर में अनुसूचित जाति के नौजवानों की गौ हत्या के नाम पर बर्बर पिटाई ने उसे गुस्से में आग में घी डालने का काम किया बल्कि उस गुस्से को एक ना खत्म होने वाली नफरत में बदलकर रख दिया था। अब उस समुदाय को मौका मिल रहा है कि वो अपने गुस्से का इजहार करें, बदला लें। यही गुस्सा और बदले का भाव गुजरात की अनुसूचित जातियों की सभाओं में अनुवादित होता रहा है।
इसके साथ ही अति पिछड़ा वर्ग में भी पिछले दौर में एक नई चेतना का विस्तार इस पूरे घटनाक्रम के दौरान हुआ है। प्रधानमंत्री मोदी बेशक पिछड़ा होने का दावा करें परंतु अब सबके सामने यही सवाल है कि उन्होंने पिछड़ों को दिया क्या है। 27 प्रतिशत आरक्षण जो उन्हें हासिल है उसे खत्म करने अथवा निष्क्रिय करने के लिए साढ़े तीन साल में मोदी सरकार ने सब यत्न किये हैं। जब आरक्षण की मांग को लेकर पटेल आंदोलन हो रहा था और पटेल पिछड़ा वर्ग में शामिल किये जाने और आरक्षण की मांग को लेकर सड़कों पर थे तभी एक नौजवान अल्पेश ठाकोर ने हुंकार भरते हुए कहा था कि यदि 27 प्रतिशत में किसी को हिस्सेदारी दी गई तो गुजरात सरकार को उसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। अल्पेश ठाकोर के पीछे अगस्त 2015 में ही सूबे के अधिकतर बड़े नेता लामबंद हुए थे और पिछड़ा समुदाय ने एक बैठक बुलाकर सरकार को चेतावनी दी थी। उस सभा में दसियों हजार लोगों ने भाग लेकर पिछड़ा समुदाय को एकताबद्ध करने और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष का ऐलान किया था। अब यह भी बेहद रोचक पहलू है कि पटेल समुदाय को आरक्षण की मांग करने वाला आंदोलन और पिछड़ा आरक्षण को बचाने की शपथ लेने वाला आंदोलन दोनों ही भाजपा को सबक सिखाने की एक ही भाषा बोल रहे हैं और कह रहे हैं कि भाजपा को सीना ठोक कर हरायेंगे।
गुजरात के व्यापारी भाजपा का ऐसा परंपरागत जनाधार रहे हैं कि जिन्होंने भाजपा को तन, मन और धन सब प्रकार से सहारा दिया और राज्य की सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत बनाया। परंतु आज सबसे अधिक ठगा हुआ यदि गुजरात में कोई महसूस कर रहा है तो वह गुजरात का व्यापारी वर्ग है। व्यापारी वर्ग का साफ कहना है कि मोदी सिर्फ एक या दो ही उद्योगपतियों को जानते हैं उन्हें हमारी फिक्र नही है। गुजरात के व्यापारी अभी तक नोटबंदी से त्रस्त थे कि उन पर जीएसटी को गाज मोदी सरकार ने गिरा दी। सूरत के व्यापारियों ने शायद इतनी लंबी हड़ताल अथवा कोई भी आंदोलन इतने लंबे समय तक नही किया होगा जितना कि जुलाई 2016 में उन्होंने किया। आज हालात यह है कि अनेक व्यापारियों ने अपनी बिल बुक पर ही छपवा लिया है कि ‘‘कमल का फूल हमारी भूल‘‘। मोदी और भाजपा विरोध की हद यहां तक है कि गुजरात के व्यापारियों में एक बेहद मजेदार जुमला आम है कि ‘‘मोदी तेरा जेटली, हमें थमा गया चाय की केटली‘‘। इसी तरह के जुमलों और संवादों में भाजपा विरोध और 2017 के चुनाव नतीजों को पढ़ा और सुना जा सकता है और यह भी समझा जा सकता है कि क्यों भाजपा विकास को छोड़ अब सेक्स सीडी के सवाल जवाब और आतंकवाद, आतंकवाद के खेल में उलझी है। गुजरात के पूरे चुनावी परिदृश्य को देखकर कहा जा सकता है कि कहीं भाजपा गुजरात में एक हारी हुई लड़ाई तो नही लड़ रही है? यदि गुजरात में भाजपा का सामुदायिक आधार देखें तो अभी तक पटेल और व्यापारी उसके सबसे बड़ा समर्थन आधार बने हुए थे परंतु अब यदि समुदाय के तौर पर देखें तो केवल जैन ही ऐसा समुदाय है जो अभी तक भाजपा के पास बचा हुआ है। क्योंकि भाजपा अध्यक्ष से लेकर मुख्यमंत्री तक इसी समुदाय से आते हैं परंतु गुजरात में वह कुल आबादी का महज 0.96 प्रतिशत ही हैं अर्थात वह 1 प्रतिशत भी नही हैं। वैसे भी पिछले तीन दशकों में अभी तक सबको अपने एजेंडे चलाने वाली भाजपा अब गुजरात में निर्णायक रूप से अपने एजेंडे पर नही दूसरों के एजेंडे पर प्रतिक्रिया देने के खेल में उलझ गई है और यह किसी भी दल और उसकी राजनीति के लिए हार की शुरूआत ही होती है। आने वाले समय में यह विपक्ष और बेहद कमजोर विपक्ष हो जाने की शुरूआत है। 

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