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गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

विकास है, मगर रोजगार नदारद

 भारतीय राजनीति अजीब दुविधापूर्ण मोड़ पर खड़ी है, जहां समस्याएं हैं, असंख्य मुद्दे हैं और ढेरों सवाल भी, परंतु उनके कहीं कोई जवाब नहीं हैं। भूमंडलीकरण और नए आर्थिक सुधारों का यह दौर देश और दुनिया के लिए एक आर्थिक, समाजिक और राजनीतिक संक्रमण का समय है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने दुनिया के लिए जहां विकास की नई राह प्रशस्त की है, वहीं बढ़ती समाजिक विषमताओं ने विकास के इस ढंग पर प्रश्नचिह्न भी खडे़ किए हैं। भारतीय समाजिक और राजनीतिक परिदृश्य भी इन सवालों के दायरे से बाहर नहीं है। आर्थिक मंदी के बावजूद स्थिरता का दावा करने वाली भारतीय अर्थव्यवस्था भी नव उदारवादी विकास जनित इन सवालों से जूझ रही है। विकास है, मगर रोजगार नहीं है। महंगी अनिवार्य वस्तुओं की मार झेल कर भी आम आदमी खामोश है। किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला है कि थमने का नाम नहीं लेता है। निजीकरण ने शिक्षा और स्वास्थ्य को आम आदमी की पंहुच से बाहर कर दिया है। इन अनगिनत सवालों के बावजूद सरकार की जनविरोधी नीतियां लगातार जारी हैं और कारण बिल्कुल साफ है कि इन जनविरोधी नीतियों के खिलाफ जनपक्ष में कोई संगठित आंदोलन और संघर्ष नदारद है। वर्तमान राजनीतिक संदर्भो में कहना होगा कि भारतीय राजनीति एक तरह की विपक्षहीनता का शिकार है। जनांदोलनों का आभाव कोई मुद्दों की कमी के कारण नहीं, बल्कि विपक्ष की अपनी अंतर्कलह, घोर निराशावाद, अवसरवादिता और सुविधाभोगी होने के कारण है। मुख्य विपक्षी दल भाजपा अपनी बढ़ती अंतर्कलह और ताकतवर क्षेत्रीय क्षत्रपों के अराजक द्वंदों के कारण, वामपंथी दल पिछले चुनावों में मिली करारी हार के सदमे और दूरदर्शी राजनीतिक दृष्टिकोण के अभाव में और लालू, मुलायम, पासवान का तथाकथित समाजवादी खेमा अवसरों की तलाश में खामोश है। अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के बाद भाजपा जहां नए नेतृत्व के आभाव से जूझ रही है, वहीं आरएसएस का अप्रत्यक्ष नियंत्रण भी भाजपा के आंतरिक संघर्षो को और तेज कर रहा है। कॉडर आधारित अनुशासित भाजपा आज कई क्षत्रपों की बागी और अराजक गतिविधियों का अखाड़ा बनकर रह गई है, जहां अनुशासन बीते समय की पौराणिक कहानियों से ज्यादा कुछ नहीं है। दरअसल, भाजपा के पास अटल, आडवाणी के बाद न तो कोई जनाधार वाला और उनके कद का नेता है, न कोई ऐसा नेता, जिसकी संगठन पर मजबूत पकड़ हो और जो सर्वमान्य हो। दूसरी तरफ पिछला आम चुनाव साढ़े चार साल तक यूपीए के साथ रहने वाले वामपंथ के लिए सबसे बुरी खबर बनकर आया। आम चुनावों से छह महीने पहले परमाणु करार के मसले पर वामपंथी दलों ने यूपीए सरकार से समर्थन वापस ले लिया और बात यहीं तक भी रहती तो ठीक था, मगर वे सरकार गिराने और नई सरकार बनाने के लिए नए गठजोड़ों में भी लग गए। उन्हें और साथ ही ढेरों राजनीतिक विश्लेषकों को भी लगता था कि भविष्य में वामपंथियों के बगैर कोई सरकार नहीं बन सकती है, लेकिन देश के मतदाताओं का फैसला कुछ और था और आजादी के बाद संभवतया वामपक्ष को सबसे करारी हार का मुंह देखना पड़ा। यह हार इतनी बड़ी और उन्हें हतोत्साहित करने वाली है कि साढ़े चार साल तक सत्तापक्ष के साथ रहते हुए भी विपक्ष की भूमिका निभाने वाला वामपंथ आज विपक्ष के नाम पर या तो कहीं-कहीं कर्मकांडी धरना प्रदर्शनों तक सीमित है या पूरी तरह गुम और खामोश है। सबसे अधिक जनहित के लिए लड़ने के दावे करने वाला वामपंथ शायद अभी तक हार के सदमे से उबर नहीं पा रहा है तो ऐसे में मौके की तलाश में लगातार कांग्रेस के दरवाजे के भीतर-बाहर झांकने वाले लालू, मुलायम और पासवान से क्या आशा की जा सकती है। दरअसल, विकास का यह आधुनिक दौर पुरानी परंपराओं और रूढि़यों को तोड़ने वाला है। अब इसके अनुरूप और इसकी जरूरतों को समझते हुए ही भारतीय राजनीति को आगे बढ़ना होगा। यदि भारतीय राजनीति में विपक्ष इसी प्रकार दूरदर्शिता के अभाव और आपसी अंतर्कलह में उलझा रहेगा तो वह दिन दूर नहीं, जब विपक्षहीनता की यह स्थिति विपक्षी के नाम पर एक बडे़ शून्य का आकार ग्रहण कर लेगी और एक सार्थक विपक्ष का आभाव किसी भी प्रकार लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए बेहतर नहीं है। विचारधाराओं की गुलामी के नाम पर जनहितों और आजादी पर कुठाराघात का दौर अब गुजर चुका। अब वास्तविक रूप से नए जनवादी और समतामूलक समाज के निर्माण का समय है।

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