महेश राठी
हिंदीभाषी पट्टी के प्रमुख राज्य बिहार की किस्मत पर मतदान का मौका राज्य की जनता को एक बार फिर मिल रहा है। देश और राज्य की राजनीति के मुख्य दल और नेता इस मौके का दोहन अपने-अपने ढंग से कर रहे हैं। मुख्य मुकाबला जदयू-भाजपा और राजद-लोजपा के बीच तो कहीं कांग्रेस व वामपंथी इसे त्रिकोणीय मुकाबला बना रहे हैं। इस टक्कर के अलावा भी एक घटना है, जो राजनीतिक हलकों और मीडिया में गाहे बगाहे खबर तो बनी, मगर बहस का विषय नहीं बन पाई। हालांकि एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए इस मुद्दे पर बहस होनी जरूरी है। तमाम राजनीतिक और व्यक्तिगत आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच प्रदेश के दो कद्दावर नेताओं लालू-पासवान ने अपने-अपने राजकुमारों का कम तामझाम एवं मामूली शोर के बीच अपने जनाधार से औपचारिक परिचय करा दिया। ये दोनों गैर-कांग्रेसवादी समाजवादी आंदोलन का उत्पाद हैं और उस समाजवादी आंदोलन की प्रमुख विशेषताओं में से एक कांग्रेसी वंशवाद एवं परिवारवाद की आलोचना भी रही है, लेकिन भारतीय राजनीति की वर्तमान अवस्था में लगता है कि अपने युवराजों की ताजपोशी की कांग्रेसी परंपरा और कांग्रेसी वंशवाद सबके लिए आदर्श बन रहा है। इस आदर्श को अपनाने में राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने एक नई स्पर्धा को जन्म दे दिया। उनका दावा है कि उनका पुत्र कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी से भी अधिक गुणवान और बहुमुखी प्रतिभा का धनी है। जब मुकाबला संतानों के मोहपाश का हो तो देश के दूसरे प्रश्नों की चिंता का समय किसके पास होगा। अब परिवारवाद भारतीय राजनीति में किसी के लिए कोई विशेष मुद्दा नहीं है, जिस पर कोई व्यापक बातचीत या बहस की जा सके। क्योंकि भारतीय राजनीति की हर धारा कम या ज्यादा इस संक्रामक रोग का शिकार है। आज जब देश की आबादी का 57 प्रतिशत हिस्सा वे युवा हैं, जिनकी उम्र 40 वर्ष से कम है, चुनावी उत्सव के इस अवसर पर राज्य की बहुमत युवा आबादी सभी राजनीतिक धाराओं को लुभा रही है। युवाओं को आकर्षित करने की यह आवश्यकता सभी राजनीतिक दलों के युवराज संस्करण पेश करने की बाध्यता बनती जा रही है, लेकिन भारतीय राजनीति का यह नया और युवराज चेहरा भी वर्तमान मूल्यहीन अवसरवादी राजनीति का नव उच्चारण ही बनकर उभर रहा है। इस नई राजनीति में ताजगी और नया दृष्टिकोण नहीं, मूल्यहीनता और अवसरवाद के पारिवारिक संस्कार ही हैं। वर्तमान राजनीति की दशा और दिशा ही राजनीति के नए युवा चरित्र गढ़ रही है। राजनीतिक अस्थिरता, व्यक्तिगत महत्वकांक्षाओं के उभार, नई संचार क्रांति और समाजिक परिवेश में सामंती मानसिकता की अभी तक गहरी पैठ ने भारतीय राजनीति के इस नए युवा चेहरे का निमार्ण किया है। जो चेहरे और नाम आज देश के युवाओं का प्रतिनिधित्व करने का दावा कर रहे हैं, वह राजनीतिक आंदोलनों और संघर्षो का परिणाम नहीं है, बल्कि अपनी परिवारिक राजनीतिक पृष्ठभूमि के प्रतिनिधि मात्र हैं। उनकी यह अनुभवहीनता भारतीय लोक जीवन के नामों, उपनामों के गलत उच्चारण और समाजिक समस्याओं के खराब अनुवाद में लगातार परिलक्षित होती है। भारतीय राजनीति आज एक विशेष प्रकार के प्रतिक्रियावाद का शिकार है, जहां सिद्धांतों और मूल्यों से इतर केवल विरोध की राजनीति हो रही है। प्रतिक्रियावाद की यह राजनीति एक ओर जहां व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं का पोषण करती है, वहीं दूसरी ओर राजनीतिक अस्थिरता को भी जन्म देती है। राजनीतिक अस्थिरता का यह दौर राजनीतिक जातिवाद और सांप्रदायिक उन्माद की उर्वरा जमीन बनकर अवसरवादी राजनीतिक चरित्रों की निर्माणशाला भर बनकर रह गया है। ऐसे वातावरण से जो नए चेहरे हमारे सामने उभर रहे हैं, उनसे मूल्यों और विचारधारा की राजनीति की आशा करना बेमानी है। उनके पास न मुद्दे हैं न मूल्य और न ही वे युवाओं की वास्तविक समस्याओं को ही संबोधित कर रहे हैं। किंतु इन युवा चेहरों की सार्वजनिक जीवन में स्वीकार्यता भी एक राजनीतिक विडंबना है। देश की यह बहुमत अबादी अपना आदर्श ग्लैमर के संसार में तलाशती है। इनके नायकों के अवतरण और उत्पत्ति रजत पट से होती है और उनका ज्ञान आंदोलनों और संघर्षो की जमीन पर तैयार नहीं होता है। इनके इन युवराजों का अनुभव उनके खास परिवारों में पैदा होने से अभिव्यक्त होता है। अब ऐसे किसी चर्चित राजपरिवार का निर्वासन झेल रहा राजकुमार एक समुदाय विशेष के खिलाफ अश्लील सांप्रदायिक प्रलाप करता है तो उसकी अनुभवहीनता और विक्षिप्तता समझी जा सकती है, लेकिन त्रासदी यह कि यही युवा चेहरे भारतीय राजनीति का भविष्य बन रहे हैं और अपने कथन से मुकर जाना उसका राजनीतिक कौशल समझा जाता है। राजनीतिक घरानों द्वारा उपलब्ध कराए जा रहे इस सुनहरे भविष्य के पास गांधी, नेहरू और लोहिया के संघर्षो की विरासत का पेटेंट भी है, उसके प्रयोग करने की चालाकी भी और एकमात्र विकल्प होने के धूर्त दावे भी। यही भारतीय लोकतंत्र का विशिष्ट सामंती चेहरा है। यही विलक्षण सामंती जनवाद अन्य विकल्पों के नकारने की लगातार मुहिम चलाते हुए अपने अनुरूप अपने भीतर से विकल्प गढ़ता है, क्योंकि जनप्रतिनिधियों की परिभाषाएं गढ़ने का अधिकार वर्तमान राजनीतिक दलों ने ले लिया है, जो उनके हितों के अनुरूप हैं। जन प्रतिनिधियों की परिभाषाएं गढ़ने का अधिकार जनता से हटकर राजनेताओं के पास जाना लोकतंत्र के विकास में अवरोध की ओर इंगित करता है। असल में राजनीति का एक कैरियर बन जाना और उससे सामंती मानसिकता का गठजोड़ राजनीति को परिवारों से जोडकर नए शासक घरानों के उदय का कारण बनता है। यही शासक घराने अन्य विकल्पों की संभावनाओं को खत्म करते हुए कृत्रिम विकल्पहीनता को जन्म देते हैं। राजनीति के इस नए युवराज चेहरे के बातूनी संस्करण के जबानी हमले से बैचेन शरद यादव जैसे खांटी समाजवादी नेता भी इन युवाओं पर प्रतिक्रिया दे रहे हैं। उनकी प्रतिक्रिया भी एक तरह का प्रतिक्रियावाद ही है, क्योंकि किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी विकल्प या नेता को गंगा में फेंक देने की बात कहना जनवादी परंपराओं का तिरस्कार है। दरअसल, विकल्पहीनता जैसी कोई स्थिति नहीं है। आज भी करोड़ों ऐसे युवा हैं, जो जनवादी और प्रगतिशील आंदोलनों के साथ जुड़कर मुद्दों और विचारधारा की राजनीति के संघर्षो के साथ चलकर विकल्प बनने की कोशिश में लगे हैं। समाजिक सरोकारों और राजनीति के प्रति उनकी प्रतिबद्धताओं पर भी कोई शक नहीं है, लेकिन वर्तमान समय अर्थव्यवस्था और समाज के लिए जहां संक्रमण का समय है, वहीं राजनीति के लिए भी यह एक संक्त्रमण काल ही है। परंतु आंदोलनों और संघर्षो से तैयार होने वाले युवा ही भारतीय राजनीति के वास्तविक युवा चेहरे बनकर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं से इतर मुद्दों और मूल्यों की राजनीति को आगे बढ़ाएंगे। जिनके लिए राजनीति असीमित अवसरों और सुनहरे भविष्य को आशानुरूप गढ़ने का माध्यम नहीं, बल्कि समाज परिवर्तन और बेहतर समाज के निर्माण का साधन होगा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें