महेश राठी
कॉरपोरेट क्षेत्र और राजनीति का नवोदित अटूट तालमेल लोकतंत्र की नई परिभाषा और नए स्वरूप गढ़ रहा है। इस लोकतंत्र के चारो स्तंभों विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया के पास कॉरपोरेट जगत से बेहतर जनसंपर्क रखने वाले लॉबिस्टो द्वारा तैयार विकास योजनाए हैं और उन योजनाओं के सहारे राष्ट्रीय संसाधनों की लूट की बचाव के तर्क भी। राजनीति की यही तार्किकता पिछले दिनों भारतीय कॉरपोरेट दिवस के मौके पर कॉरपोरेट मामलो के मंत्री सलमान खुर्शीद के उस बयान से छलक पड़ी, जिसमें उन्होंने पीआर और लॉबिंग का बचाव करते हुए कहा कि पीआर और लॉबिंग वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा है। संभवतया जेपीसी गठन के लिए अडे़ विपक्ष पर कांग्रेसी प्रतिक्रिया के पीछे यही नई कॉरपोरेट लोकतांत्रिक संस्कृति की भावना काम कर रही है। एक लाख 76 हजार करोड़ का स्पेक्ट्रम घोटाला वास्तव में कोई एक आर्थिक घोटाले की घटना भर नही है, बल्कि यह आर्थिक संक्रमण के इस दौर में बदली हुई राजनीति, नई अर्थव्यवस्था एवं लोकतंत्र का नया एवं कुरूप चेहरा है। केवल 2जी स्पेक्ट्रम या नीरा राडिया ही इस नई लोकतांत्रिक व्यवस्था के एकमात्र प्रतिनिधि उदाहरण नहीं हैं। इस व्यवस्था में ऐसे छोटे बडे़ लॉबिस्टो की बड़ी फौज है, जो सार्वजनिक जीवन के हरेक क्षेत्र को न केवल प्रभावित कर रहे हैं, बल्कि पूरी व्यवस्था के लिए नए नियम एवं नए रुझान निर्धारित भी कर रहे हैं। इस नए लोकतंत्र में नौकरशाह प्रदीप बैजल हैं, जो अपने पद पर रहते हुए भी कॉरपोरेट घरानों के हितों के अनुरूप अपने तकनीकी और संवैधानिक ज्ञान का इस्तेमाल करते हैं और सेवानिवृत्ति के बाद खुद एक लॉबिस्ट के रूप में अवतरित हो जाने में कोताही नहीं बरतते हैं। दूसरी तरफ गृहमंत्रालय में नियुक्त एक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रवि इंदर सिंह की गिरफ्तारी कॉरपोरेट जगत और नौकरशाही के गठजोड़ के एक और रूप को उजागर करती है। गृहमंत्रालय में अहम जिम्मेदारी के पद पर रहते हुए भी वह एक दूरसंचार कंपनी को चोरी-छिपे सूचनाएं मुहैया कराता रहा। हलांकि यह कंपनियों के साथ अपने हितों को जोड़कर उन्हें लाभ पंहुचाने का परंपरागत तरीका है। दरअसल, नौकरशाहों से लेकर राजनेता, कॉरपोरेट घराने और वैष्णवी जैसी पीआर कंपनियां तक इस पुराने परंपरागत गठजोड़ के जोखिमों और सीमाओं को समझते हैं और वर्तमान निगमीकृत विकास की आवश्यकताएं निर्णयों को जानने के पुराने परंपरागत तरीको से कहीं आगे हैं। वित्त पूंजी पर आधारित ये निगमीकृत विकास की जरूरतें आज सरकार के निर्णयों को अपनी जरूरतों के अनुसार प्रभावित करते हुए बदलवाने की हैं। वास्तव में वर्तमान विकास उत्पादक पूंजी से अलग होती वित्त पूंजी का विकास है और भारतीय विकास के मॉडल का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि हमारे सकल घरेलू उत्पाद का साठ प्रतिशत से अधिक का हिस्सा उत्पादन से नहीं, सेवा क्षेत्र और उनके वितरण से आता है। जाहिर है, अब पैसे से बगैर उत्पादन के पैसा कमाने की इस व्यवस्था के नियम, नैतिकताएं और मूल्य भी अलग ही होंगे। कॉरपोरेट लॉबिस्टों की यह संस्कृति न केवल सरकारी कामकाज के निर्णयों और मंत्रालयों की कार्ययोजनाओं को प्रभावित कर रही है, बल्कि सरकार के महत्वपूर्ण विभागों के बंटवारे और नौकरशाहों की नियुक्तियों को भी निर्धारित करने जैसे बेहद संवेदशील और महत्व के कामों को भी प्रभावित कर रही हैं। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के परत दर परत खुलते रहस्यों ने साफ जाहिर कर दिया है कि किस प्रकार ए राजा की नियुक्ति के लिए मीडिया से लेकर प्रधानमंत्री, द्रमुक अध्यक्ष और कांग्रेस अध्यक्षा तक को प्रभावित किया गया। यह केवल दूरसंचार मंत्रालय का एक मामला है, जबकि कॉरपोरेट घरानों के पक्ष में नीतियां बनवाने का यह खेल इससे कहीं ज्यादा व्यापक है। वित्त, वाणिज्य, उद्योग व शिक्षा से लेकर खेल और नागरिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए बने स्वायत्त संस्थान तक भी कॉरपोरेट लॉबिंग की इन रणनीतियों से अछूते नहीं हैं। शिक्षा सुधारों के नए मसीहा देश के मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल जब भी शिक्षा में बदलावों की चर्चा करते हैं तो उनके सुधारों का फायदा केवल या तो शहरी अमीरों को जाता है या कॉरपोरेट जगत की जरूरतों को ही पूरा करता है। चाहे नए पाठ्यक्रम की बात हो या शिक्षण संस्थाओं के विस्तार का मामला हो, शिक्षा के सारे सुधार नए विकास की जरूरतों के अनुसार ही आकार ग्रहण कर रहे हैं। विडंबना यह है कि शिक्षा सुधारों के नए भगवान और उनके सहयोगियो के एजेंडे में देश को पूर्ण रूप से बनाना है ही नहीं। यही स्थिति कमोबेश वित्तमंत्री रहते हुए सत्तर से अधिक खनन परियोजनाएं आवंटित करने वाले वर्तमान गृहमंत्री की भी है। जिस प्रकार वह गृहमंत्री रहते हुए भी माओवाद के नाम पर इन कंपनियों और परियोजनाओं की रुकावटें दूर करने में लगे हैं, उससे लगता है कि व्यावहारिक रूप से गृहमंत्री अभी तक भी वित्तमंत्री के दायित्व का ही निर्वहन कर रहे हैं। नीरा राडिया टेपों के लीक होने पर रतन टाटा की प्रतिक्रिया और उनके पक्ष में कृषि मंत्री का खडे़ होना तो एक सर्वविदित घटना है। पवार ने चिंता जाहिर की कि इन टेपों के लीक होने के बाद ऐसा संदेश जा रहा है कि यह सरकार कॉरपोरेट मित्र नहीं रही है। कृषि मंत्री की चिंता में आत्महत्या करते हुए किसान नहीं कॉरपोरेट घरानों के हित ही ज्यादा हैं। मामला केवल सरकार और सरकारी विभाग की नीतियों को कॉरपोरेट जगत द्वारा निर्धारित किए जाने भर का नहीं है। पिछने दिनों आईपीएल के पीछे के घोटालों ने यह भी जाहिर कर दिया कि पूंजी संचय की अपनी अंधी भावना के लिए यह कॉरपोरेट जगत खेल के मैदान को भी घोटालों के खेल में बदल सकता है। इसके अतिरिक्त पूर्व मख्य न्यायाधीश के ए राजा के बचाव में तमिलनाडु उच्च न्यायालय के जस्टिस रघुपति की लिखित शिकायत को मिलने से पहले इनकार कर देना एवं बाद में कहना कि उक्त पत्र में ए राजा का कोई जिक्र नहीं था, इस पूरे लॉबिस्ट लोकतंत्र में न्यायपालिका की भूमिका को साफ जाहिर कर देता है। वास्तव में राडिया प्रकरण ने हमारे लोकतंत्र की वास्तविकता को पूरी तरह उजागर कर दिया है। लोकतंत्र की इस नई हकीकत से उस आम आदमी के सपने पूरी तरह ध्वस्त हो रहे हैं, जो वास्तव में इस लोकतंत्र का निर्माण करता है। अब लॉबिस्टो और पीआर कंपनियों को नई लोकतांत्रिक व्यवस्था का अंग बताने के अलावा नए विकास के वकीलों से आप और क्या उम्मीद कर सकते हैं। असल में 2जी घोटाले के रहस्योद्घाटन ने नवोदित कॉरपोरेट विकास के चेहरे को उजागर करके उस पर बहस का एक मौका दे दिया है, लेकिन सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि लॉबिस्टो के इस लोकतंत्र को कॉरपोरेट जगत के लिए खोलने का श्रेय नब्बे के दशक में उन्हीं मनमोहन सिंह को जाता है, जिनसे हम आज इसमें सुधार की आशा कर हैं और प्रधानमंत्री हैं कि टैपिंग नहीं, उसके उजागर होने की चिंता में घुले जा रहे हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
Published in Dainik Jagran on 29th Dec. 2010
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