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बुधवार, 12 जनवरी 2011

एक अध्याय का दुखद अंत

महेश राठी

कवर ड्राइव का भगवान अपने बेहतरीन झन्नाटेदार शॉट की तरह ही सीमा रेखा के पार हुआ। यह क्रिकेट में एक नए युग की शुरुआत और समाज में एक बड़े व निर्णायक बदलाव का पड़ाव है। अवशेष हो रहे भावनात्मक सामंती मूल्यों को छोड़कर कॉरपोरेट संस्कारों के बाजारी मूल्यों में पारंगत हो जाने का क्षण है।

सौरव गांगुली के आईपीएल की बोली में न बिक पाने पर छिड़ी बहस में कई तरह के तर्क दिए जा रहे हैं। उनकी उम्र का बढऩा, सही फिटनेस का अभाव, शाहरुख से अनबन और सही समय पर क्रिकेट से अलविदा न होने का सौरव का गलत निर्णय। परंतु वास्तव में यह उस आक्रामकता को नकारना है जिसने क्रिकेट के स्वर्ग लॉड्र्स पर अपनी कमीज उतारकर लहराते हुए भारतीय क्रिकेट को आक्रमण का नया तेवर और नई भाषा दी थी। सौरव गांगुली के इस व्यवहार और उनके आक्रामक अंदाज ने ही उन्हें भारतीय क्रिकेट का सबसे सफलतम कप्तान बनाया और 22 शतक, 72 अद्र्धशतकों एवं ग्यारह हजार से भी अधिक रनों के साथ सचिन तेंदुलकर के बाद एक दिवसीय फटाफट क्रिकेट का सबसे सफल क्रिकेटर भी। अपने इसी आक्रामक व्यवहार के कारण अड़तीस वर्षीय सौरव गांगुली कई बार विवादों से भी घिरे रहे हैं।

सौरव गांगुली भारतीय क्रिकेट में एक युग की तरह हैं, परंतु उनके क्रिकेट से इस प्रकार दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से अलविदा होने की संभवतया किसी ने भी उम्मीद नहीं की होगी। 1983 में विश्व कप और 1987 में विश्व कप मेजबानी ने जहां क्रिकेट को देश के सर्वाधिक लोकप्रिय खेल के रूप में बदल दिया तो सौरव गांगुली ने भारतीय टीम के कप्तान के रूप में भारतीय क्रिकेट में एक नए युग का सूत्रपात किया। बतौर कप्तान 2000 में एक युवा टीम का नेतृत्व संभालने के बाद अपने आक्रामक अंदाज से गांगुली ने टीम को देश और विदेशी धरती पर जीतना सिखाया और उनकी सबसे बड़ी उपलब्धियों में विश्व विजेता ऑस्ट्रेलिया का विजय रथ थामना था। भारतीय क्रिकेट को जीत की इस आदत का व्यवहार सौरभ गांगुली की आक्रामकता के कारण ही मिल पाया जो अन्ततोगत्वा जीत सकने वाली टीम के आत्मविश्वास में बदल गया और इसी आत्मविश्वास को ही महेन्द्र सिंह धोनी ने आगे बढ़ाया। जीत के इसी विश्वास की सफल घटनाओं ने खेल को देश में एक धर्म बना दिया।

भारतीय संदर्भों में क्रिकेट अपनी औपनिवेशक पृष्ठभूमि के कारण सामाजिक परिवर्तन के प्रेरक के एक औजार की तरह रहा है। परंपरागत रूप से यह बेशक संभ्रांतों एवं गोरो का खेल रहा है, परंतु भारतीयों का इस खेल में वर्चस्व सदा श्वेतों पर एक शांतिपूर्ण अहिंसक जनवादी जीत की अभिव्यक्ति रहा है। क्रिकेट के व्यापक जनाधार का यही सामाजिक, राजनीतिक एवं ऐतिहासिक पहलू क्रिकेट की व्यापक मान्यता का जनाधार तैयार करता है। यह अनायास नहीं है कि आज क्रिकेट पर वर्चस्व रखने वाले लगभग सभी देश ब्रतानी हुकूमत के पूर्व गुलाम देश, ब्रिटिश साम्राज्य की पुरानी औपनिवेशिक बस्तियां रहे हैं। शासकों के इस खेल में जीतने की चाह ही सामाजिक परिवर्तन की अभिव्यक्ति का प्रेरक औजार बनकर उभरता है। परंतु सामाजिक परिवर्तन की यह प्रेरणा भी उदारवादी आर्थिक संक्रमण के दौर की तरह एक नए युग में दाखिल हो रही है। दर्शक वही हैं, मैदान भी और खेल के औजार भी मगर कल तक देश एवं समाज के लिए खेला जाने वाला क्रिकेट अपने आयोजन के कारण बदल रहा है और खेल के स्वामी भी। क्रिकेट के प्रमोशन और आयोजन के काम में अब देश की भूमिका घट रही है और उसकी जगह पंूजी के प्रतिनिधि कॉरपोरेट घराने ले रहे हैं। इसी के मद्देनजर अब इस खेल और खेल के व्यवहार में भी कॉरपोरेट संस्कृति दाखिल हो रही है।

कॉरपोरेट संसार के लिए अपने लाभ व पंूजी संचय से महत्वपूर्ण कुछ नहीं है। दरअसल पंूजीवाद का औद्योगिक से आगे कॉरपोरेट विकास का यह पड़ाव टिका ही पंूजी से पंूजी के निर्माण पर है। इसीलिए इसमें मानव व्यवहार के स्वाभाविक पक्ष, मानवीय भावनाओं, सामाजिक एवं सांस्कृतिक गरिमाओं के लिए कोई स्थान नहीं है, फिर उसकी उपलब्धियां और ऐतिहासिकता उनके लिए बेमानी ही है। हां, यदि इस इतिहास का प्रचार, प्रसार एवं प्रयोग कॉरपोरेट विकास की पंूजी संचय की प्रक्रिया में सहायक हो सकता है तो यह इतिहास और ऐतिहासिक प्रतीक भी उसके लिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं। क्रिकेट पर लगातार काबिज होता कॉरपोरेट क्षेत्र एवं उसका स्वकेन्द्रित पंूजी संचयी व्यवहार ही सौरव गांगुली जैसे क्रिकेट इतिहास के गौरवशाली अध्याय को उखाड़ कर बेहद अपमानित ढंग से बाहर फेंक रहा है। इसी कॉरपोरेट संस्कृति का फिल्मी संस्करण बने शाहरुख खान यदि कोशिश करते तो पूर्व भारतीय कप्तान की सम्मानित विदाई का रास्ता निकाल सकते थे और सौरव गांगुली को भी समझना चाहिए था कि टाईगर बेशक कोलकाता का ही हो, कभी न कभी कमजोर तो होता ही है।

(दैनिक भास्कर में १२ जनवरी को प्रकाशित)

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