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शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

आंध्र प्रदेश की राजनीतिक दुश्वारियां

महेश राठी
आंध्र प्रदेश में कांग्रेस को मिल रही चुनौती अब उसके लिए निर्णायक चेतावनी बन रही है। दक्षिण भारत के सबसे बडे राज्य आंध्र प्रदेश में कांग्रेस को चुनौती आंध्र प्रदेश की कांग्रेसी राजनीति के इतिहास की सबसे गंभीर चुनौती है। यह चुनौती न अलग राज्य तेलंगाना से है और न ही किसी नए विपक्षी गठजोड से है। बल्कि यह चुनौती कांग्रेस को उसके भीतर से ही मिल रही है। इस चुनौती के सूत्रधार पूर्व मुख्यमंत्री वाईएसआर रेड्डी के पुत्र जगनमोहन रेड्डी की राजनीतिक गतिविधियां जितना तेज होती जाती हैं, कांग्रेसी जनाधार और अस्तित्व के लिए खतरा और बढ़ता जाता है। जगनमोहन रेड्डी का राजनीतिक अभियान और उन्हें मिलने वाला कांग्रेसी सांसदों, विधायकों और जनता का समर्थन इसी प्रकार बढ़ता रहा तो वह दिन दूर नहीं, जब आंध्र प्रदेश कांग्रेस के लिए दक्षिण भारत का यूपी बिहार बन जाएगा, जहां पार्टी तीसरे नंबर से भी नीचे पहुंचकर अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही है। 29 नवंबर 2010 को कांग्रेस छोड़ने वाले जगनमोहन रेड्डी कांग्रेस को ललकारते हुए या कहे तो धमकाते हुए दिल्ली पंहुच चुके हैं। जगनमोहन रेड्डी ने कृष्णा नदी के जल बंटवारे को लेकर दिल्ली में धरना दिया, जिसमें कांग्रेस के दो दर्जन से अधिक विधायक, दो सांसद और तीन विधान परिषद सदस्य शामिल थे। हालांकि उनके धरने में कांग्रेस के अलावा तेलगूदेशम पार्टी, प्रजाराज्यम पार्टी और टीआरएस के कुछ विधायक भी शामिल थे, लेकिन कांग्रेसी जनप्रतिनिधियों की बड़ी संख्या के अपने निहितार्थ हैं और कांग्रेस के लिए भविष्य के संकेत भी। वास्तव में आंध्र प्रदेश में कांग्रेस कई राजनीतिक संकटों से एक साथ जूझ रही है, मगर उसके माथे पर चिंता की रेखाएं जितनी गहरी जगनमोहन के कारण हैं, उतनी किसी दूसरे कारण से नहीं हैं। यदि विपक्षी दलों की बात की जाए तो उनका कोई भी आंदोलन विपक्षी जमीन और विपक्षी शक्ति पर खड़ा होगा, लेकिन जगनमोहन का विरोधी अभियान ऐसा आंदोलन है, जो कांग्रेसी जमीन और उसी के संसाधनों पर खड़ा है। जगनमोहन के पिता वाईएसआर रेड्डी कांग्रेस अध्यक्ष के सबसे करीबी और प्रिय राजनेता थे। हालांकि इसका एकमात्र कारण केवल गांधी परिवार के प्रति वफादारी ही नहीं था, बल्कि वाईएसआर की अपनी राजनीतिक योग्यता और उनके व्यापक जनाधार के कारण वह कांग्रेसी आलाकमान के बेहद करीबी थे। वाईएसआर रेड्डी की लोकप्रियता का परिणाम पिछले आम चुनावों में साफ दिखाई दिया, जब कांग्रेस ने सभी राजनीतिक विश्लेषणों और कयासों को धता बताते हुए अपनी लोकसभा सीटों में बढ़ोतरी की। वर्ष 2004 के आम चुनावों में टीडीपी के खिलाफ हवा के अलावा वामपंथी और टीआरएस भी कांग्रेस यूपीए के हिस्से थे। फिर भी कांग्रेस को केवल 29 सीटें हासिल हुई, जबकि 2009 के आम चुनावो में वामपंथियो और टीआरएस के टीडीपी के साथ चले जाने के बावजूद कांग्रेस ने 33 सीटें हासिल की। आंध्र प्रदेश की राजनीति के जानकार जानते हैं कि यह कांग्रेस नहीं, बल्कि वाईएसआर के व्यक्तित्व का कमाल ही अधिक था और आज जब उन्हीं वाईएसआर का बेटा अपने पिता के जनाधार और उनके प्रति साहनुभूति पर सवार होकर चला है तो जाहिर है कि खतरा गंभीर ही है। वाईएसआर के अलावा भी आंध्र प्रदेश की राजनीति में एक रेड्डी कारक हमेशा हावी रहती है। यों तो प्रदेश में कुल आबादी की लगभग सात प्रतिशत रेड्डियों की संख्या कोई निर्णायक नहीं कही जा सकती है, लेकिन अपनी समाजिक स्थिति और राजनीतिक वर्चस्व के कारण आंध्र प्रदेश के बनने के बाद से ही प्रदेश की राजनीति में रेड्डी हमेशा हावी रहे हैं। यही कारण है कि अभी तक के चुने गए आंध्र प्रदेश के 16 मुख्यमंत्रियों में से नौ रेड्डी ही थे। वर्तमान मुख्यमंत्री किरण रेड्डी भी अपने किसी बडे़ जनाधार या चमत्कारिक व्यक्तित्व के कारण नहीं, बल्कि रेड्डी होने और जगनमोहन रेड्डी की कांग्रेस विरोधी मुहिम की हवा निकालने के लिए ही मुख्यमंत्री चुने गए हैं। वाईएसआर के भाई को मंत्रिमंडल में शामिल करना भी इसी कांग्रेसी कवायद का हिस्सा भर है, लेकिन लगता है कि कांग्रेस के ये सतही राजनीतिक टोटके कुछ काम नहीं कर पा रहे हैं और पार्टी के लिए प्रदेश में खतरा लगातार बढ़ता ही जा रहा है। जगनमोहन रेड्डी के बढ़ते जनाधार और राजनीतिक समर्थन से लगातार इसकी आहट मिल रही है और कांग्रेस है कि अपने बागी सांसदों एवं विधायकों के खिलाफ कार्रवाई की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रही है। आंध्र प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री ने स्वयं बागी विधायकों से मिलकर उन्हें अनुशासन की सीख देते हुए चेताया, लेकिन बागी नेताओं ने केंद्रीय एवं राज्य नेतृत्व को अनसुना करते हुए दिल्ली के धरने में शामिल होने को ही प्राथमिकता देना बेहतर समझा। इसके अलावा जगनमोहन रेड्डी का व्यवहार और राजनीतिक समर्थन का प्रत्युतर भी एक सधे हुए और बेहद कूटनीतिक राजनेता सरीखा है। दिल्ली में उन्होंने बेहद रोमानी अंदाज में अपने आप को एक भद्र पुरुष बताते हुए कहा कि वह पार्टी को न तोड़कर कांग्रेस का फायदा ही कर रहे हैं। अन्यथा, वह कभी भी सरकार गिरा सकते हैं। दरअसल, यह सज्जनता बेहद द्विअर्थी है। वह जानते हैं कि कांग्रेस को तोड़ने का यह सही समय नहीं है। यदि वह अभी कांग्रेस को दो फाड़ करके नई पार्टी का निर्माण करते हैं तो अभी तक उनके साथ होने का दावा करने वाले कई विधायक सत्ता के लोभ और कुर्सी के मोल भाव में वापस कांग्रेस के प्रति एकजुटता जाहिर कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में उनके जनसमर्थन पर भी फर्क पडे़गा, जो उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं पर दूरगामी परिणाम छोड़ सकता है। कांग्रेस की यह टूट पार्टी से उनके संवाद का रास्ता भी बंद कर देगी, जो संभवतया वह नहीं चाहते हैं, क्योंकि जगनमोहन रेड्डी की महत्वाकांक्षा कांग्रेस को तोड़ना नहीं, केवल मुख्यमंत्री पद ही है। यदि जनसंपर्क के लिए जगनमोहन रेड्डी द्वारा उठाए मुद्दों पर भी गौर किया जाए तो उनकी रणनीति अधिक स्पष्ट हो जाती है। जगनमोहन का राजनीतिक अभियान कृष्णा जल बंटवारे के आंध्र प्रदेश के परंपरागत भावनात्मक सवाल पर बात करता है या किसानों की दुर्दशा के तुलनात्मक रूप से अधिक सुरक्षित मसले पर, मगर वह तेलंगाना और विशाल आंध्र प्रदेश के सवाल पर वह बच निकलने का रास्ता ही तलाशते हैं। मुद्दों के चयन में उनकी यह सर्तकता उनके एक चतुर एवं महत्वाकांक्षी राजनेता होने के साथ उनकी भावी रणनीति का भी स्पष्ट संकेत है। यदि जगनमोहन रेड्डी तेलंगाना के सवाल पर कोई सख्त रुख अपनाते हैं तो वह न तो टीडीपी या टीआरएस के जानाधार में आंशिक साझेदारी से आगे बढ़ पाएंगे, न ही अपने नए जनाधार में टूट को रोक सकते हैं। यदि जैसा जगनमोहन कह रहे हैं कि उनके समर्थक विधायक अगले चुनाव यानी 2014 तक इंतजार करेंगे और अगला चुनाव उनकी पार्टी से ही लडे़गे तो उसमें जगनमोहन के कई छिपे हुए मंतव्य हैं। ऐसा करने से उनके समर्थक विधायकों और सांसदों की फूट से बचा जा सकता है और संभवतया तब तक तेलंगाना मसले का भी कुछ हल हो चुका होगा होगा। इसके अलावा इस बीच उन्हें अपनी पार्टी को बनाने और बढ़ाने का समय भी मिल ही जाएगा। जगनमोहन मामले पर डरी सहमी कांग्रेस के लिए आंध्र प्रदेश की राजनीति में यह समय बेहद मुश्किलों वाला है। वहां पक्ष विपक्ष में जितने भी समीकरण बन रहे हैं, वह सभी कांग्रेस के खिलाफ ही हैं। ऐसे में तय है कि फायदा किसी का भी हो, नुकसान तो तय है कि कांग्रेस का ही होगा और यह भी तय है कि यदि जगनमोहन रेड्डी की रणनीति कामयाब होती है तो दक्षिण भारत का सबसे बड़ा राज्य कांग्रेस के लिए दक्षिण का यूपी-बिहार ही सिद्ध होगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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