महेश राठी
राजनीतिक दबाव से मुक्ति के लिए उच्चतम न्यायालय में सेवानिवृत नौकरशाहों की याचिका जहां नौकरशाहों की वेदना को प्रतिध्वनित करती है, वहीं अप्रत्यक्ष तौर पर यह भ्रष्टाचार पर राजनीति की नीयत पर भी सवालिया निशान खडे़ करती है। केंद्रीय सतर्कता आयुक्त पर उच्चतम न्यायालय के निर्णय और काले धन पर सरकार के विरुद्ध न्यायपालिका की बेहद गंभीर टिप्पणी के बाद 83 सेवानिवृत्त नौकरशाहों की याचिका ने इस पूरे प्रकरण के निहितार्थ
ही बुनियादी तौर पर बदल कर रख दिए हैं। दरअसल, प्रशासनिक तंत्र को सक्षम, पारदर्शी और दबाव मुक्त बनाने की यह याचिका अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए सत्ता के बेजा राजनीतिक इस्तेमाल करने के साथ ही संवैधानिक नियुक्तियों को राजनीतिक नियुक्तियों में बदलने की व्यवस्था जैसे एक बडे़ सवाल को भी संबोधित करती है। लेकिन इसे वर्तमान भारतीय लोकतंत्र की विडंबना ही कहा जाएगा कि सत्तापक्ष से लेकर प्रतिपक्ष की हर राजनीतिक धारा ने एक-दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप एवं विरोध के शोर में इस बडे़ सवाल को दबाने की साझी कवायद तेज कर दी है। वास्तव में भ्रष्टाचार और उसके बचाव की राजनीति और नौकरशाही का यह गठजोड़ सीवीसी पीजे थॉमस की नियुक्ति के बाद पूरी तरह उजागर हो गया। सीवीसी नियुक्ति के लिए बनी उच्च स्तरीय कमेटी में नेता प्रतिपक्ष की गंभीर लिखित आपत्तियों को दरकिनार करते हुए बहुमत के निर्णय का हवाला देकर की गई नियुक्ति की विवशताएं वह भ्रष्टाचार ही है, जिसके बचाव के लिए इस अनोखे गठजोड़ का जन्म हुआ है। केरल कॉडर के प्रशासनिक अधिकारी पीजे थॉमस पर केरल में खाद्य सचिव रहते हुए पामोलिन घोटाले में संलिप्तता का आरोप था, जिसके कारण कार्मिक विभाग ने 2000 से 2004 के मध्य उनके खिलाफ कई बार अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश की, लेकिन उन सिफारिशों पर थॉमस का राजनीति के साथ भ्रष्ट गठजोड़ भारी पड़ा और वह लगातार कार्रवाई से बचते रहे। भ्रष्टाचार के इसी गठजोड़ का प्रतिनिधित्व करते हुए पीजे थॉमस को हमेशा पदोन्नति मिलती रही। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की एक अवस्था में भी दूरसंचार सचिव रहे और बावजूद इसके उन्हें देश के केंद्रीय सतर्कता आयोग का आयुक्त नियुक्त कर दिया गया। थॉमस की नियुक्ति की जरूरत के सामने सरकार और क्लीन इमेज वाले प्रधानमंत्री की विवशता देखिए कि संसद का पूरा शीतकालीन सत्र इसकी भेंट चढ़ गया। सरकार आखिर तक पूरी ढिठाई के साथ अड़ी रही और अंततोगत्वा सुप्रीमकोर्ट के एक निर्णय से सीवीसी की नियुक्ति को अवैध ठहराते हुए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली उच्च स्तरीय कमेटी को भी फटकार सुनाई। हालांकि केंद्रीय सतर्कता आयोग भ्रष्टाचार बचाव के इस तंत्र का पहला और अकेला मॉडल नहीं है। वर्तमान समय में भ्रष्टाचार बचाव की इस व्यवस्था से देश का कोई विभाग या संवैधानिक पद अछूता नहीं है। सतर्कता आयोग के अलावा देश की प्रमुख जांच एजेंसी सीबीआइ के दुरुपयोग की कहानियां भी आम हैं। अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिए लालू यादव से लेकर मुलायम सिंह यादव और मायावती पर सीबीआइ जांच से समर्थन जुटाने के राजनीतिक खेल की खबरें अक्सर मीडिया से लेकर राजनीतिक हलकों तक में सुनाई देती हैं। केवल जांच एजेंसियां ही नहीं, नागरिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए बने कहीं अधिक प्रतिष्ठित संगठन और संवैधानिक पद भी भ्रष्टाचार की इस व्यवस्था की भेंट चढ़ रहे हैं। हाल ही में राष्ट्रीय मनवाधिकार आयोग के अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्य न्यायाधीश बालाकृष्णन की नियुक्ति का मामला सामने आया है। बालाकृष्णन की नियुक्ति पर पूर्व न्यायाधीश कृष्णा अय्यर से लेकर पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा और देश के कई प्रबुद्ध जनों एवं प्रतिष्ठित न्यायाधीशों ने सवाल उठाए हैं। काला धन अर्जित करने के मामले में बालाकृष्णन के दामाद और भाई की संलिप्तता उन पर उठे सवालों को सत्यापित करती है। ठीक इन्हीं आरोपों के कारण पूर्व मुख्य न्यायाधीश वाईके सब्बरवाल की नियुक्ति राष्ट्रीय मनावाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद पर नहीं हो सकी थी। असल में यह पक्षपात ही राजनीतिक स्वार्थो के लिए संवैधानिक नियुक्तियों को राजनीतिक नियुक्तियों में परिवर्तित कर देने की वर्तमान भ्रष्ट परंपरा की व्यवस्था का उदाहरण है। यदि नियुक्ति के बाद वर्तमान मानवाधिकार आयोग अध्यक्ष की कार्यप्रणाली का विश्लेषण किया जाए तो इस व्यवस्था की आवश्यकता और कार्यप्रणाली को आसानी से समझा जा सकता है। पिछले साल दिल्ली के यमुनापार इलाके की एक बस्ती में स्थानीय पुलिस द्वारा बर्बरता पूर्वक पिटाई के बाद सिख सिकलीगर समुदाय के लोगों ने मानवाधिकार आयोग के समक्ष न्याय की गुहार की तो जस्टिस बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाले आयोग ने पुलिस उत्पीड़न का शिकार बने परिवारों में से एक भी व्यक्ति का पक्ष सुने बगैर दिल्ली पुलिस की मनगढ़ंत कहानी को सत्य मानकर मामले को बंद कर दिया। दरअसल, इसे पूरे मामले में दिल्ली पुलिस और सत्तापक्ष के स्थानीय राजनेताओं के गठजोड़ के कारण ही यह पूरा मामला दबा दिया गया। पहली नजर में यह एक छोटी एवं कम महत्व की घटना मालूम होती है, लेकिन इस घटना के अर्थ कहीं अधिक बडे़ हैं, जो मानवाधिकार आयोग जैसी संस्था की नई और बदली हुई कार्यप्रणाली को रेखांकित करती है। कमोबेश यही स्थिति केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य के सूचना आयोगों की भी है, जिसमें बैठे कई सूचना आयुक्तों के फैसलों पर कई बार उंगलियां उठती रही हैं। केंद्रीय सूचना आयोग में बैठी एक महिला आयुक्त, जो गृहमंत्रालय से जुडे़ मामलों को देखती हैं, पर अक्सर सूचना अधिकार अधिनियम की मूल अवधारणा और परिभाषाओं को धता बताते हुए गृहमंत्रालय के अधिकारियों को बचाने के आरोप लगते रहे हैं। इसी क्रम में महिला आयोग और अल्पसंख्यक आयोग तो सत्तारूढ़ दल के नेताओं की बपौती ही बनकर रह गए हैं। वास्तव में देश का कोई भी राजनीतिक दल इन संगठनों एवं पदों की सक्षमता और स्वायत्तता को अपने हितो के विरुद्ध ही समझता है। गिरते लोकतांत्रिक मूल्यों और पूरी तरह कलूषित हो चुके वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में पक्ष-प्रतिपक्ष कोई भी दबाव मुक्त प्रशासनिक तंत्र, सक्षम जांच एजेंसियों, स्वायत्त नागरिक अधिकार संगठनों और नियुक्तियों व तबादलों के राजनीतिक दुरुपयोग के बडे़ सवालों पर बात नहीं करना चाहता है। इसी मुद्दे पर हाल ही में एक टीवी चैनल पर बहस के दौरान जब एक जानेमाने पत्रकार ने भाजपा के प्रवक्ता राजीव प्रताप रूडी से प्रशासनिक नियुक्तियों के राजनीतिक नियुक्ति बन जाने का सवाल पूछा तो भाजपा प्रवक्ता ने स्प्ष्टतया कह डाला कि आप इस बड़ी बहस को छोडि़ए। असल में भारतीय राजनीति की यही दुर्भाग्यपूर्ण विडंबना है, जो बडे़ और लोकतंत्र के लिए जरूरी सवालों से बचते हुए वर्तमान व्यवस्था को अपने हित में इस्तेमाल करने के अवसर खोना नहीं चाहती है। वर्तमान मध्यमार्गी सत्तापक्ष से लेकर दक्षिणपंथी और वाम प्रतिपक्ष तक कोई भी इससे अछूता नही हैं। तभी सुषमा स्वराज से लेकर रविशंकर प्रसाद और राजीव प्रताप रूडी सरीखे भाजपा के सभी प्रमुख नेताओं की फिक्त्र यही अधिक थी कि भाजपा ने जिन मुद्दों को उठाया, आखिर में न्यायालय ने भी उन्हें ही सही ठहराया है अर्थात न्यायालय का फैसला भाजपा की ही जीत है। राजनेता प्रशासनिक तंत्र की मजबूती और कामकाज में पारदर्शिता से बचते हुए दिखाई पड़ रहे हैं। वास्तव में सक्षम, मजबूत और पारदर्शी प्रशासन, न्यायपालिका और नागरिक अधिकार संगठन ही एक वास्तविक और मजबूत नागरिक समाज का निर्माण कर सकते हैं, लेकिन यह भी सच है कि एक मजबूत सक्षम नागरिक समाज वर्तमान नवोदित शासक वर्ग के लिए एक गंभीर चुनौती बन सकता है। अब यही देश की त्रासदी है कि इस व्यवस्था को बदलने की जवाबदेही उन्हीं राजनेताओं की है, जो इस भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी व्यवस्था के लिए जिम्मेदार हैं, लेकिन यह भी वास्तविकता है कि बेशक राजनीति में इस बदलाव के लिए इच्छाशक्ति की कमी हो, लेकिन नए मध्यम वर्ग और युवाओं में हालात को बदलने की इच्छाशक्ति भी है और जागरूकता भी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
राजनीतिक दबाव से मुक्ति के लिए उच्चतम न्यायालय में सेवानिवृत नौकरशाहों की याचिका जहां नौकरशाहों की वेदना को प्रतिध्वनित करती है, वहीं अप्रत्यक्ष तौर पर यह भ्रष्टाचार पर राजनीति की नीयत पर भी सवालिया निशान खडे़ करती है। केंद्रीय सतर्कता आयुक्त पर उच्चतम न्यायालय के निर्णय और काले धन पर सरकार के विरुद्ध न्यायपालिका की बेहद गंभीर टिप्पणी के बाद 83 सेवानिवृत्त नौकरशाहों की याचिका ने इस पूरे प्रकरण के निहितार्थ
ही बुनियादी तौर पर बदल कर रख दिए हैं। दरअसल, प्रशासनिक तंत्र को सक्षम, पारदर्शी और दबाव मुक्त बनाने की यह याचिका अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए सत्ता के बेजा राजनीतिक इस्तेमाल करने के साथ ही संवैधानिक नियुक्तियों को राजनीतिक नियुक्तियों में बदलने की व्यवस्था जैसे एक बडे़ सवाल को भी संबोधित करती है। लेकिन इसे वर्तमान भारतीय लोकतंत्र की विडंबना ही कहा जाएगा कि सत्तापक्ष से लेकर प्रतिपक्ष की हर राजनीतिक धारा ने एक-दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप एवं विरोध के शोर में इस बडे़ सवाल को दबाने की साझी कवायद तेज कर दी है। वास्तव में भ्रष्टाचार और उसके बचाव की राजनीति और नौकरशाही का यह गठजोड़ सीवीसी पीजे थॉमस की नियुक्ति के बाद पूरी तरह उजागर हो गया। सीवीसी नियुक्ति के लिए बनी उच्च स्तरीय कमेटी में नेता प्रतिपक्ष की गंभीर लिखित आपत्तियों को दरकिनार करते हुए बहुमत के निर्णय का हवाला देकर की गई नियुक्ति की विवशताएं वह भ्रष्टाचार ही है, जिसके बचाव के लिए इस अनोखे गठजोड़ का जन्म हुआ है। केरल कॉडर के प्रशासनिक अधिकारी पीजे थॉमस पर केरल में खाद्य सचिव रहते हुए पामोलिन घोटाले में संलिप्तता का आरोप था, जिसके कारण कार्मिक विभाग ने 2000 से 2004 के मध्य उनके खिलाफ कई बार अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश की, लेकिन उन सिफारिशों पर थॉमस का राजनीति के साथ भ्रष्ट गठजोड़ भारी पड़ा और वह लगातार कार्रवाई से बचते रहे। भ्रष्टाचार के इसी गठजोड़ का प्रतिनिधित्व करते हुए पीजे थॉमस को हमेशा पदोन्नति मिलती रही। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की एक अवस्था में भी दूरसंचार सचिव रहे और बावजूद इसके उन्हें देश के केंद्रीय सतर्कता आयोग का आयुक्त नियुक्त कर दिया गया। थॉमस की नियुक्ति की जरूरत के सामने सरकार और क्लीन इमेज वाले प्रधानमंत्री की विवशता देखिए कि संसद का पूरा शीतकालीन सत्र इसकी भेंट चढ़ गया। सरकार आखिर तक पूरी ढिठाई के साथ अड़ी रही और अंततोगत्वा सुप्रीमकोर्ट के एक निर्णय से सीवीसी की नियुक्ति को अवैध ठहराते हुए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली उच्च स्तरीय कमेटी को भी फटकार सुनाई। हालांकि केंद्रीय सतर्कता आयोग भ्रष्टाचार बचाव के इस तंत्र का पहला और अकेला मॉडल नहीं है। वर्तमान समय में भ्रष्टाचार बचाव की इस व्यवस्था से देश का कोई विभाग या संवैधानिक पद अछूता नहीं है। सतर्कता आयोग के अलावा देश की प्रमुख जांच एजेंसी सीबीआइ के दुरुपयोग की कहानियां भी आम हैं। अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिए लालू यादव से लेकर मुलायम सिंह यादव और मायावती पर सीबीआइ जांच से समर्थन जुटाने के राजनीतिक खेल की खबरें अक्सर मीडिया से लेकर राजनीतिक हलकों तक में सुनाई देती हैं। केवल जांच एजेंसियां ही नहीं, नागरिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए बने कहीं अधिक प्रतिष्ठित संगठन और संवैधानिक पद भी भ्रष्टाचार की इस व्यवस्था की भेंट चढ़ रहे हैं। हाल ही में राष्ट्रीय मनवाधिकार आयोग के अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्य न्यायाधीश बालाकृष्णन की नियुक्ति का मामला सामने आया है। बालाकृष्णन की नियुक्ति पर पूर्व न्यायाधीश कृष्णा अय्यर से लेकर पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा और देश के कई प्रबुद्ध जनों एवं प्रतिष्ठित न्यायाधीशों ने सवाल उठाए हैं। काला धन अर्जित करने के मामले में बालाकृष्णन के दामाद और भाई की संलिप्तता उन पर उठे सवालों को सत्यापित करती है। ठीक इन्हीं आरोपों के कारण पूर्व मुख्य न्यायाधीश वाईके सब्बरवाल की नियुक्ति राष्ट्रीय मनावाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद पर नहीं हो सकी थी। असल में यह पक्षपात ही राजनीतिक स्वार्थो के लिए संवैधानिक नियुक्तियों को राजनीतिक नियुक्तियों में परिवर्तित कर देने की वर्तमान भ्रष्ट परंपरा की व्यवस्था का उदाहरण है। यदि नियुक्ति के बाद वर्तमान मानवाधिकार आयोग अध्यक्ष की कार्यप्रणाली का विश्लेषण किया जाए तो इस व्यवस्था की आवश्यकता और कार्यप्रणाली को आसानी से समझा जा सकता है। पिछले साल दिल्ली के यमुनापार इलाके की एक बस्ती में स्थानीय पुलिस द्वारा बर्बरता पूर्वक पिटाई के बाद सिख सिकलीगर समुदाय के लोगों ने मानवाधिकार आयोग के समक्ष न्याय की गुहार की तो जस्टिस बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाले आयोग ने पुलिस उत्पीड़न का शिकार बने परिवारों में से एक भी व्यक्ति का पक्ष सुने बगैर दिल्ली पुलिस की मनगढ़ंत कहानी को सत्य मानकर मामले को बंद कर दिया। दरअसल, इसे पूरे मामले में दिल्ली पुलिस और सत्तापक्ष के स्थानीय राजनेताओं के गठजोड़ के कारण ही यह पूरा मामला दबा दिया गया। पहली नजर में यह एक छोटी एवं कम महत्व की घटना मालूम होती है, लेकिन इस घटना के अर्थ कहीं अधिक बडे़ हैं, जो मानवाधिकार आयोग जैसी संस्था की नई और बदली हुई कार्यप्रणाली को रेखांकित करती है। कमोबेश यही स्थिति केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य के सूचना आयोगों की भी है, जिसमें बैठे कई सूचना आयुक्तों के फैसलों पर कई बार उंगलियां उठती रही हैं। केंद्रीय सूचना आयोग में बैठी एक महिला आयुक्त, जो गृहमंत्रालय से जुडे़ मामलों को देखती हैं, पर अक्सर सूचना अधिकार अधिनियम की मूल अवधारणा और परिभाषाओं को धता बताते हुए गृहमंत्रालय के अधिकारियों को बचाने के आरोप लगते रहे हैं। इसी क्रम में महिला आयोग और अल्पसंख्यक आयोग तो सत्तारूढ़ दल के नेताओं की बपौती ही बनकर रह गए हैं। वास्तव में देश का कोई भी राजनीतिक दल इन संगठनों एवं पदों की सक्षमता और स्वायत्तता को अपने हितो के विरुद्ध ही समझता है। गिरते लोकतांत्रिक मूल्यों और पूरी तरह कलूषित हो चुके वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में पक्ष-प्रतिपक्ष कोई भी दबाव मुक्त प्रशासनिक तंत्र, सक्षम जांच एजेंसियों, स्वायत्त नागरिक अधिकार संगठनों और नियुक्तियों व तबादलों के राजनीतिक दुरुपयोग के बडे़ सवालों पर बात नहीं करना चाहता है। इसी मुद्दे पर हाल ही में एक टीवी चैनल पर बहस के दौरान जब एक जानेमाने पत्रकार ने भाजपा के प्रवक्ता राजीव प्रताप रूडी से प्रशासनिक नियुक्तियों के राजनीतिक नियुक्ति बन जाने का सवाल पूछा तो भाजपा प्रवक्ता ने स्प्ष्टतया कह डाला कि आप इस बड़ी बहस को छोडि़ए। असल में भारतीय राजनीति की यही दुर्भाग्यपूर्ण विडंबना है, जो बडे़ और लोकतंत्र के लिए जरूरी सवालों से बचते हुए वर्तमान व्यवस्था को अपने हित में इस्तेमाल करने के अवसर खोना नहीं चाहती है। वर्तमान मध्यमार्गी सत्तापक्ष से लेकर दक्षिणपंथी और वाम प्रतिपक्ष तक कोई भी इससे अछूता नही हैं। तभी सुषमा स्वराज से लेकर रविशंकर प्रसाद और राजीव प्रताप रूडी सरीखे भाजपा के सभी प्रमुख नेताओं की फिक्त्र यही अधिक थी कि भाजपा ने जिन मुद्दों को उठाया, आखिर में न्यायालय ने भी उन्हें ही सही ठहराया है अर्थात न्यायालय का फैसला भाजपा की ही जीत है। राजनेता प्रशासनिक तंत्र की मजबूती और कामकाज में पारदर्शिता से बचते हुए दिखाई पड़ रहे हैं। वास्तव में सक्षम, मजबूत और पारदर्शी प्रशासन, न्यायपालिका और नागरिक अधिकार संगठन ही एक वास्तविक और मजबूत नागरिक समाज का निर्माण कर सकते हैं, लेकिन यह भी सच है कि एक मजबूत सक्षम नागरिक समाज वर्तमान नवोदित शासक वर्ग के लिए एक गंभीर चुनौती बन सकता है। अब यही देश की त्रासदी है कि इस व्यवस्था को बदलने की जवाबदेही उन्हीं राजनेताओं की है, जो इस भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी व्यवस्था के लिए जिम्मेदार हैं, लेकिन यह भी वास्तविकता है कि बेशक राजनीति में इस बदलाव के लिए इच्छाशक्ति की कमी हो, लेकिन नए मध्यम वर्ग और युवाओं में हालात को बदलने की इच्छाशक्ति भी है और जागरूकता भी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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