मुद्दा महेश राठी सिविल सोसायटी की अवधारणा और उसके संघर्षो का इतिहास सुकरात और अरस्तू के आदर्श राज्य की कल्पना से भी परे रोमन शास्त्रीय गणराज्यों की कहानियों तक जाता है। बदलती हुई हर उत्पादन पण्राली के साथ समाज में ऐसे नए तबकों का उदय होता है जो विकास की प्रक्रिया में तो निर्णायक भूमिका अदा करते हैं परन्तु राजनीतिक व्यवस्था में उनकी भूमिका निर्णायक नहीं होती है। व्यवस्था का यही विरोधाभासी रूप हमेशा नए बदलाव के नए महत्वकांक्षी सपनों की जमीन तैयार करता है। वर्तमान भारतीय राजनीति में लोकतांत्रिक सुधार और सुधार प्रक्रिया में सिविल सोसायटी की भागीदारी र्चचा के केंद्र में है। सिविल सोसायटी की अवधारणा और राजनीतिक परिवर्तनों में उसका हस्तक्षेप कोई नया अथवा पहली बार नहीं है। परन्तु सवाल समाज के समग्र विकास में उसकी सार्थक भूमिका का है। वास्तव में सिविल सोसायटी, उसकी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक भूमिका का एक सीमित दायरा रहा है। राजनीतिक व्यवस्था के विकास में रचनात्मक भूमिका अदा करने के बावजूद उसकी उपलब्धियों से समाज का बहुमत हिस्सा वंचित ही रहता है। सिविल सोसायटी वास्तव में एक अवस्था विशेष के वे हिस्से होते हैं जो उस दौर के विकास में अत्यंत महत्वपूर्ण और सक्रिय भूमिका निभाते हैं। वर्तमान में भी सिविल सोसायटी गैर सरकारी संगठन, महिला संगठन, नागरिक समितियों, मध्यम आय वर्गीय ट्रेड यूनियन, विभिन्न पेशेवर संगठन, व्यापारिक संघ और अन्य सामाजिक संगठनों का प्रतिनिधित्व करती है। सिविल सोसायटी की संकल्पना उन राजनीतिक दबाव समूहों की ओर इशारा करती है जो किसी भी दौर में राजनीतिक व्यवस्था को अपने हितों के अनुरूप बदलने में निर्णायक भूमिका अदा करते हैं। आधुनिक विश्व में सिविल सोसायटी के हस्तक्षेप से निर्णायक बदलाव की पहचान अठारहवीं सदी के पुनर्जागरण काल में दिखाई देती है, जहां मशीनीकरण के बाद उस दौर की नवोदित सिविल सोसायटी ने आधुनिक पूंजीवादी क्रान्ति का सपना बुना और उसे साकार किया। आधुनिक इतिहास में हेगेल ने सिविल सोसायटी को रोमानी अवधारणा से निकाल कर समाज की जरूरी व्यवस्था के रूप में रेखांकित करते हुए राज्य के साथ उसके द्वन्द्वात्मक संबंधों को उजागर किया। हेगेल ने बताया कि सिविल सोसायटी पूंजीवाद की एक विशेष अवस्था में पैदा होती है जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता और निजी संपत्ति जैसे हितों की रक्षा के लिए संघर्ष करती है। पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर होने के कारण इसमें सदा विषमताओं एवं संघर्ष की संभावना बनी रहती है। इस प्रकार सिविल सोसायटी से व्यवस्था के भीतरी विरोधाभास प्रकट होते हैं। हालांकि यह समाज में नैतिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए सत्ता के ढांचे के बाहर एक तंत्र के रूप में काम करती है। इसी सिद्धान्त को आगे बढ़ाते हुए कार्ल मार्क्स ने सिविल सोसायटी को ऐसा आधार माना जहां उत्पादक शक्तियां और सामाजिक संबंध आकार पाते हैं और राजनीतिक व्यवस्था इस सामाजिक ढाचे का सबसे ऊपरी अंग होती है। मार्क्स कहते हैं कि सिविल सोसायटी अन्ततोगत्वा पूंजीवाद को बचाने का ही काम करती है। बाद में सिविल सोसायटी की इसी नकारात्मक भूमिका को ग्राम्शी ने भी संशोधित करते हुए कहा कि सिविल सोसायटी पूंजीवाद के अस्तित्व के लिए अनिवार्य सांस्कृतिक और वैचारिक पूंजी के निर्माण की प्रक्रिया के लिए बेहद जटिल भूमिका अदा करती है। बावजूद तमाम नकारात्मक धारणाओं के ग्राम्शी से लेकर न्यू लेफ्ट और नव उदारवादी तक लोकतंत्र के विकास में सिविल सोसायटी की भूमिका को मानते हैं। नव उदारवादी सिविल सोसायटी को वर्तमान समय में बन्द गैर जनवादी और प्रभुत्ववादी शासन व्यवस्थाओं के लिए व्यवस्था के अन्दर से मिलने वाली चुनौती मानते हैं। वर्तमान दौर में भी भारत और दुनिया में एक ऐसे नए मध्यवर्ग का उदय और विकास हुआ है जो इस विकास में बेहद अहम भूमिका निभा रहा है। विकास में अहम भूमिका निभाने वाला यह तबका विकास के निर्णयों में अपनी हिस्सेदारी नहीं पाता है तो आन्दोलित होता है। सिविल सोसायटी अब ऐसे सुधारों की मांग कर रही है जिसमें उसकी भी भूमिका हो। इसके हाथ में अपने राष्ट्र का ध्वज भी है और वर्तमान व्यवस्था में सुधार के नारे भी। इस प्रकार यह सिविल सोसायटी राज्य का हिस्सा भी है और उससे अलग भी है। दरअसल, यह सिविल सोसायटी की राजनीतिक समाज की सत्ता को सीधी चुनौती है। परन्तु सिविल सोसायटी और इसके द्वारा निर्देशित बदलाव के अपने अन्तर्विरोध भी हैं, जो सुधार की बात तो करती है परन्तु इससे लाभान्वित होने वाली आबादी का आकार तुलनात्मक रूप से छोटा ही रहता है। इस सिविल सोसायटी की अपनी सीमाएं भी हैं। इसके सपने ऐसे हैं जो ग्रामीण- गरीब किसान की आंख में कोई खास उम्मीद नहीं जगा सकते हैं और न ही शहरी गरीब की झोपड़ी के लिए रोशनी की राह प्रशस्त कर पाएंगें। देश की आबादी का बहुमत हिस्सा जो आजादी के छह दशक बाद भी आजादी के सुख की बाट जोह रहा है उसे सिविल सोसायटी की इस नई क्रान्ति के बाद भी वंचित ही रहना पड़ेगा, मगर यह भी तय है कि यह लोकतंत्र के लिए नई हवा, नई ताजगी जरूर लेकर आएगा। |
शनिवार, 14 मई 2011
सिविल सोसाइटी की जरूरत और सपने
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