महेश राठी
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान एक बार फिर से बेकाबू होकर हिंसक हो रहे हैं। ग्रेटर नोएडा में जनवरी महीने से धरने पर बैठे किसानों को जब समस्या के हल होने का कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया तो उन्होने अपनी मांगें मनवाने के लिए उत्तर प्रदेश रोडवेज के तीन कर्मचारियों को बंधक बना लिया। भट्टा पारसौल में बंधक बनाए गए इन कर्मचारियों को छुड़ाने के लिए घटनास्थल पर पुलिस बल पहुंचने से किसान आंदोलन ने एक बड़ी हिंसक घटना का रूप धारण कर लिया, जिसमें जिलाधिकारी, एसएसपी समेत दर्जनों लोग एवं पुलिसकर्मी घायल हो गए। इस समूचे प्रकरण में अभी तक दो पुलिसकर्मी सहित पांच लोग मारे जा चुके हैं। दरअसल, यह पूरा मामला केंद्र सरकार की अकर्मण्यता और उत्तर प्रदेश की सत्ता के लिए कांग्रेस और बसपा की आपसी खींचतान का नतीजा है, जिसमें बेगुनाह किसान और पुलिसकर्मियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। हिंसा का यह आंदोलन जहां दिल्ली के आसपास की दबंग जातियों के आंदोलन के तरीकों को रेखांकित करता है तो वहीं राजनीतिक संवेदनहीनता एवं नीयत को भी सवालों के घेरे में खड़ा करता है। दरअसल, यह पूरा मामला एक सही भूमि अधिग्रहण कानून नहीं होने के कारण है। जब भी इस प्रकार के आंदोलनों की शुरुआत होती है, तभी भूमि अधिग्रहण कानून संशोधन पर भी चर्चा जोर पकड़ लेती है। लेकिन आंदोलन की समाप्ति के साथ ही संशोधन की जरूरत भी मानो खत्म हो जाती है। वास्तव में आंदोलन के दौरान राजनीतिक फायदा लेने के लिए सभी दल भूमि अधिग्रहण को आवश्यक और अहम मानते हैं। पिछले साल अलीगढ़ के टप्पल में भी ठीक ऐसी ही स्थिति बन गई थी, जब किसान आंदोलन बेहद उग्र एवं आक्रामक हो उठा था तो हर रंग हर दल का नेता अपना डंडा-झंडा लेकर आंदोलन स्थल की ओर दौड़ पडा था। यहां तक कि कांग्रेस द्वारा भविष्य के नेता के तौर पर प्रायोजित राहुल गंाधी भी किसान आंदोलन का लाभ लेने के लोभ को नहीं छोड़ पाए और भूमि अधिग्रहण कानून संशोधन को सर्वाधिक महत्वपूर्ण और देश के लिए आवश्यक बताते हुए किसानों के एक प्रतिनिधिमंडल के साथ प्रधानमंत्री से भी मिले। राहुल गांधी से मुलाकात के बाद प्रधानमंत्री ने तत्काल घोषणा कर डाली कि एक संशोधित भूमि अधिग्रहण कानून संसद के अगले सत्र में लाया जाएगा, परंतु अगस्त 2010 में हुई इस घोषणा के बाद कितना समय बीत गया है और स्थिति जस की तस बनी हुई है। भूमंडलीकरण के इस दौर में जबकि विकास और विकास की वृद्धि दर के बडे़ दावे किए जा रहे हैं, शहरीकरण की प्रक्रिया ने पूरे देश में तेज गति पकड़ी है तो भी हम ब्रिटिश शासनकाल में तैयार 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून से ही काम चला रहे हैं। नई जरूरतों और परिस्थितियों के अनुरूप कोई नया भूमि अधिग्रहण कानून या तो बहस का विषय रहा या फिर संसदीय कमेटियों में फंसा हुआ एक विषय भर रहा है, जिस पर अभी तक कोई अमली जामा नहीं पहनाया जा सका है। असल में उदारवादी विकास के साथ भूमि आधारित विकास विशेषतया महानगरों के आसपास बड़ी तेजी आया और इसमें उदारवादी विकास के पैरोकार और नीति-निर्माताओं का दोहरा रवैया भी उजागर हुआ है। एक तरफ बाजार अर्थव्यवस्था के वकील सरकार की जिम्मेदारियों को कम करते हुए लगातार यह तर्क देते हैं कि सब कुछ बाजार तय करेगा, व्यवसाय करना सरकार का काम नही है। वहीं दूसरी तरफ जब किसानों और आदिवासियों की जमीनों के अधिग्रहण की बात आती है तो भूमि अधिग्रहण कानून का हवाला देकर सरकार भूस्वामियों और व्यावसायिक घरानों के लिए एस्टेट एजेंट का काम करती है। जाहिर है एस्टेट एजेंट की इस भूमिका में सरकार व्यावसायिक घरानों के हितों का ही संरक्षण करती नजर आती है। सरकार की यही दोहरी और विरोधाभासी भूमिका आज सारे विवाद का कारण बन रही है। देश के हर राज्य में कमोबेश इसी प्रकार के विरोध आंदोलनों की गूंज सुनाई देती है। हालांकि दिल्ली और उसके आसपास के किसान प्रभुत्व वाले राज्यों की स्थिति अन्य राज्यों की तुलना में थोड़ा अलग है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के किसान तुलनात्मक रूप से अधिक समृद्ध एवं आर्थिक रूप से ज्यादा मजबूत हैं। साथ ही उनके अपने मजबूत जातीय संगठन हैं और उनकी सामाजिक दबंगई व वर्चस्व का भी एक लंबा इतिहास रहा है। इसके अलावा इन किसान जातियों का पेशा हमेशा से किसानी ही रहा है और जमीन खो जाने के बाद बेरोजगारी की वास्तविक आशंका भी इनके आंदोलन को ऊर्जा देने का कारण बनती है। अब सरकार बाजार भाव से कम दामों पर मनमाने ढंग से किसानों की जमीन का अधिग्रहण करेगी और उस पर सामाजिक सुरक्षा की भी कोई गारंटी नहीं रहती है तो किसानों का आंदोलित होना स्वाभाविक ही है। यों तो भूमि अधिग्रहण के सवालों पर देश के कई भागों में आंदोलन होते रहे हैं, लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के किसान जब आंदोलित होते हैं तो उनका आंदोलन सदैव आक्रामक और उग्र होता है। इस क्षेत्र की किसान जातियों की सामाजिक और भौगोलिक स्थिति के कारण ही इनके आंदोलन में एक गुणात्मक अंतर हमेशा बना रहता है। असल में दिल्ली के आसपास की इन किसान जातियों की सामाजिक दबंगई जगजाहिर है और इसी दबंगई के कारण इनमें लेने की नहीं, सदा छीनने की भावना बनी रहती है। ऐसा इन जातियों में किसी जनवादी एवं सांस्कृतिक आंदोलनों की अपेक्षा जातीय आंदोलनों के व्यापक प्रभाव के कारण रहा है। इसके अलावा राजधानी के आसपास होने के कारण इन जातियों के पास राजधानी को बंधक बनाने की अतिरिक्त सुविधा भी रहती है। यही कारण है कि अब राजधानीवासी पिछले कुछ सालों में राजधानी का पानी, दूध और फल-सब्जियों की आपूर्ति ठप कर देने की धमकियां सुनने के आदी हो चुके हैं। हर साल कई बार छोटे-बडे़ हर सवाल पर इस प्रकार की धमकियों को दोहराया जाता है। किसान जातियों की दबंगई की मानसिकता और राजधानी को बंधक बनाने की सुविधा मिलकर नए गैरजनवादी, अराजक और हिंसक आंदोलनों को जन्म देती है। इसके अलावा सरकार की जन-आंदोलनों पर संवेदनहीन प्रतिक्रिया भी इन आंदोलनों के भड़कने की जमीन तैयार करती है। देश के कई भागों में अनेक ऐसे आंदोलन हैं, जो लंबे समय से जारी हैं, लेकिन सरकार है कि कुछ सुनना ही नहीं चाहती है। उड़ीसा में पॉस्को को लेकर वर्षो से आंदोलन जारी है, जिसके नेता अभय साहू कई व्याधियों से त्रस्त होने के बावजूद शांतिपूर्ण और जनवादी तरीके से डटे हैं, लेकिन सरकार है कि कुछ सुनना ही नहीं चाहती है। ऐसे कई उदाहरण हैं, मगर वहीं जब राजस्थान के गुर्जर या उत्तर प्रदेश, हरियाणा के जाट आरक्षण के सवाल पर रेल की पटरियां उखाड़ते हैं और रेल यातायात बाधित करते हैं तो उन्हें उनके साथ बातचीत और समझौते के रास्ते फौरन खुल जाते हैं। हिंसा और अराजकता के इन आंदोलनों की जमीन तैयार करने में सरकार भी भूमिका अदा कर रही है। अब भी सरकार यदि चाहे तो एक जनहितकारी भूमि अधिग्रहण कानून तैयार करके भविष्य में होने वाली फजीहत से बच सकती है। ऐसा भूमि अधिग्रहण कानून, जिसमें मौलिक भूस्वामियों को उसकी जमीन का उचित दाम मिले और उसकी सामाजिक सुरक्षा की भी जिम्मेदारी हो। सामाजिक सुरक्षा की गारंटी के तौर पर उसकी जमीन के आधे भाग की बाजार मूल्यों पर कीमत के साथ ही आधी जमीन की कीमत के बराबर दूसरी जगह वैकल्पिक जमीन और रोजगार की व्यवस्था भी की जा सकती है। इसके अलावा भी उन भूमिहीनों का सवाल भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जो उस खेती की जमीन पर आश्रित हैं, जमीन के मुआवजे में उनका भी यथोचित हिस्सा होना चाहिए। इस प्रकार के तार्किक और सकारात्मक भूमि अधिग्रहण कानून से ही समस्या का हल निकल सकता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान एक बार फिर से बेकाबू होकर हिंसक हो रहे हैं। ग्रेटर नोएडा में जनवरी महीने से धरने पर बैठे किसानों को जब समस्या के हल होने का कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया तो उन्होने अपनी मांगें मनवाने के लिए उत्तर प्रदेश रोडवेज के तीन कर्मचारियों को बंधक बना लिया। भट्टा पारसौल में बंधक बनाए गए इन कर्मचारियों को छुड़ाने के लिए घटनास्थल पर पुलिस बल पहुंचने से किसान आंदोलन ने एक बड़ी हिंसक घटना का रूप धारण कर लिया, जिसमें जिलाधिकारी, एसएसपी समेत दर्जनों लोग एवं पुलिसकर्मी घायल हो गए। इस समूचे प्रकरण में अभी तक दो पुलिसकर्मी सहित पांच लोग मारे जा चुके हैं। दरअसल, यह पूरा मामला केंद्र सरकार की अकर्मण्यता और उत्तर प्रदेश की सत्ता के लिए कांग्रेस और बसपा की आपसी खींचतान का नतीजा है, जिसमें बेगुनाह किसान और पुलिसकर्मियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। हिंसा का यह आंदोलन जहां दिल्ली के आसपास की दबंग जातियों के आंदोलन के तरीकों को रेखांकित करता है तो वहीं राजनीतिक संवेदनहीनता एवं नीयत को भी सवालों के घेरे में खड़ा करता है। दरअसल, यह पूरा मामला एक सही भूमि अधिग्रहण कानून नहीं होने के कारण है। जब भी इस प्रकार के आंदोलनों की शुरुआत होती है, तभी भूमि अधिग्रहण कानून संशोधन पर भी चर्चा जोर पकड़ लेती है। लेकिन आंदोलन की समाप्ति के साथ ही संशोधन की जरूरत भी मानो खत्म हो जाती है। वास्तव में आंदोलन के दौरान राजनीतिक फायदा लेने के लिए सभी दल भूमि अधिग्रहण को आवश्यक और अहम मानते हैं। पिछले साल अलीगढ़ के टप्पल में भी ठीक ऐसी ही स्थिति बन गई थी, जब किसान आंदोलन बेहद उग्र एवं आक्रामक हो उठा था तो हर रंग हर दल का नेता अपना डंडा-झंडा लेकर आंदोलन स्थल की ओर दौड़ पडा था। यहां तक कि कांग्रेस द्वारा भविष्य के नेता के तौर पर प्रायोजित राहुल गंाधी भी किसान आंदोलन का लाभ लेने के लोभ को नहीं छोड़ पाए और भूमि अधिग्रहण कानून संशोधन को सर्वाधिक महत्वपूर्ण और देश के लिए आवश्यक बताते हुए किसानों के एक प्रतिनिधिमंडल के साथ प्रधानमंत्री से भी मिले। राहुल गांधी से मुलाकात के बाद प्रधानमंत्री ने तत्काल घोषणा कर डाली कि एक संशोधित भूमि अधिग्रहण कानून संसद के अगले सत्र में लाया जाएगा, परंतु अगस्त 2010 में हुई इस घोषणा के बाद कितना समय बीत गया है और स्थिति जस की तस बनी हुई है। भूमंडलीकरण के इस दौर में जबकि विकास और विकास की वृद्धि दर के बडे़ दावे किए जा रहे हैं, शहरीकरण की प्रक्रिया ने पूरे देश में तेज गति पकड़ी है तो भी हम ब्रिटिश शासनकाल में तैयार 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून से ही काम चला रहे हैं। नई जरूरतों और परिस्थितियों के अनुरूप कोई नया भूमि अधिग्रहण कानून या तो बहस का विषय रहा या फिर संसदीय कमेटियों में फंसा हुआ एक विषय भर रहा है, जिस पर अभी तक कोई अमली जामा नहीं पहनाया जा सका है। असल में उदारवादी विकास के साथ भूमि आधारित विकास विशेषतया महानगरों के आसपास बड़ी तेजी आया और इसमें उदारवादी विकास के पैरोकार और नीति-निर्माताओं का दोहरा रवैया भी उजागर हुआ है। एक तरफ बाजार अर्थव्यवस्था के वकील सरकार की जिम्मेदारियों को कम करते हुए लगातार यह तर्क देते हैं कि सब कुछ बाजार तय करेगा, व्यवसाय करना सरकार का काम नही है। वहीं दूसरी तरफ जब किसानों और आदिवासियों की जमीनों के अधिग्रहण की बात आती है तो भूमि अधिग्रहण कानून का हवाला देकर सरकार भूस्वामियों और व्यावसायिक घरानों के लिए एस्टेट एजेंट का काम करती है। जाहिर है एस्टेट एजेंट की इस भूमिका में सरकार व्यावसायिक घरानों के हितों का ही संरक्षण करती नजर आती है। सरकार की यही दोहरी और विरोधाभासी भूमिका आज सारे विवाद का कारण बन रही है। देश के हर राज्य में कमोबेश इसी प्रकार के विरोध आंदोलनों की गूंज सुनाई देती है। हालांकि दिल्ली और उसके आसपास के किसान प्रभुत्व वाले राज्यों की स्थिति अन्य राज्यों की तुलना में थोड़ा अलग है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के किसान तुलनात्मक रूप से अधिक समृद्ध एवं आर्थिक रूप से ज्यादा मजबूत हैं। साथ ही उनके अपने मजबूत जातीय संगठन हैं और उनकी सामाजिक दबंगई व वर्चस्व का भी एक लंबा इतिहास रहा है। इसके अलावा इन किसान जातियों का पेशा हमेशा से किसानी ही रहा है और जमीन खो जाने के बाद बेरोजगारी की वास्तविक आशंका भी इनके आंदोलन को ऊर्जा देने का कारण बनती है। अब सरकार बाजार भाव से कम दामों पर मनमाने ढंग से किसानों की जमीन का अधिग्रहण करेगी और उस पर सामाजिक सुरक्षा की भी कोई गारंटी नहीं रहती है तो किसानों का आंदोलित होना स्वाभाविक ही है। यों तो भूमि अधिग्रहण के सवालों पर देश के कई भागों में आंदोलन होते रहे हैं, लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के किसान जब आंदोलित होते हैं तो उनका आंदोलन सदैव आक्रामक और उग्र होता है। इस क्षेत्र की किसान जातियों की सामाजिक और भौगोलिक स्थिति के कारण ही इनके आंदोलन में एक गुणात्मक अंतर हमेशा बना रहता है। असल में दिल्ली के आसपास की इन किसान जातियों की सामाजिक दबंगई जगजाहिर है और इसी दबंगई के कारण इनमें लेने की नहीं, सदा छीनने की भावना बनी रहती है। ऐसा इन जातियों में किसी जनवादी एवं सांस्कृतिक आंदोलनों की अपेक्षा जातीय आंदोलनों के व्यापक प्रभाव के कारण रहा है। इसके अलावा राजधानी के आसपास होने के कारण इन जातियों के पास राजधानी को बंधक बनाने की अतिरिक्त सुविधा भी रहती है। यही कारण है कि अब राजधानीवासी पिछले कुछ सालों में राजधानी का पानी, दूध और फल-सब्जियों की आपूर्ति ठप कर देने की धमकियां सुनने के आदी हो चुके हैं। हर साल कई बार छोटे-बडे़ हर सवाल पर इस प्रकार की धमकियों को दोहराया जाता है। किसान जातियों की दबंगई की मानसिकता और राजधानी को बंधक बनाने की सुविधा मिलकर नए गैरजनवादी, अराजक और हिंसक आंदोलनों को जन्म देती है। इसके अलावा सरकार की जन-आंदोलनों पर संवेदनहीन प्रतिक्रिया भी इन आंदोलनों के भड़कने की जमीन तैयार करती है। देश के कई भागों में अनेक ऐसे आंदोलन हैं, जो लंबे समय से जारी हैं, लेकिन सरकार है कि कुछ सुनना ही नहीं चाहती है। उड़ीसा में पॉस्को को लेकर वर्षो से आंदोलन जारी है, जिसके नेता अभय साहू कई व्याधियों से त्रस्त होने के बावजूद शांतिपूर्ण और जनवादी तरीके से डटे हैं, लेकिन सरकार है कि कुछ सुनना ही नहीं चाहती है। ऐसे कई उदाहरण हैं, मगर वहीं जब राजस्थान के गुर्जर या उत्तर प्रदेश, हरियाणा के जाट आरक्षण के सवाल पर रेल की पटरियां उखाड़ते हैं और रेल यातायात बाधित करते हैं तो उन्हें उनके साथ बातचीत और समझौते के रास्ते फौरन खुल जाते हैं। हिंसा और अराजकता के इन आंदोलनों की जमीन तैयार करने में सरकार भी भूमिका अदा कर रही है। अब भी सरकार यदि चाहे तो एक जनहितकारी भूमि अधिग्रहण कानून तैयार करके भविष्य में होने वाली फजीहत से बच सकती है। ऐसा भूमि अधिग्रहण कानून, जिसमें मौलिक भूस्वामियों को उसकी जमीन का उचित दाम मिले और उसकी सामाजिक सुरक्षा की भी जिम्मेदारी हो। सामाजिक सुरक्षा की गारंटी के तौर पर उसकी जमीन के आधे भाग की बाजार मूल्यों पर कीमत के साथ ही आधी जमीन की कीमत के बराबर दूसरी जगह वैकल्पिक जमीन और रोजगार की व्यवस्था भी की जा सकती है। इसके अलावा भी उन भूमिहीनों का सवाल भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जो उस खेती की जमीन पर आश्रित हैं, जमीन के मुआवजे में उनका भी यथोचित हिस्सा होना चाहिए। इस प्रकार के तार्किक और सकारात्मक भूमि अधिग्रहण कानून से ही समस्या का हल निकल सकता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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