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शनिवार, 28 मई 2011

सूत्रीकरण में सनातनी ठहराव



तीन राज्यों से एक राज्य में सिमटकर फिर से अपनी स्वाभाविक प्रतिपक्ष की भूमिका में आ चुके वामपंथ के लिए यह आत्ममंथन का समय है। आत्ममंथन यह कि किस प्रकार मेहनतकशों की राजनीति में एक शासक वर्ग का जन्म होता है, आत्ममंथन यह कि किस प्रकार आम लोगों की राजनीति एक पार्टी विशेष की राजनीति बन जाती है। इसके अलावा इस भारतीय वामपंथ को लैटिन अमेरिकी वामपंथ से सीखना पड़ेगा कि कैसे संसदीय लोकतंत्र की विशेषताओं का इस्तेमाल करते हुए सामाजिक जीवन का स्वाभाविक अंग बनकर सामाजिक, आर्थि क और राजनीतिक परिवर्तन का माध्यम बना जा सकता है ठहराव
महेश राठी
स्वतंत्र पत्रकार
भारतीय वामपंथी राजनीति के संदर्भ में पांच राज्यों के चुनावी नतीजे बेहद महत्वपूर्ण एवं वामपंथी राजनीति पर दूरगामी प्रभाव छोड़ने वाले हैं। इससे जहां तीन दशक के राजनीतिक स्थायित्व का मिथक टूट गया तो वहीं केरल में परिवर्तन का परम्परागत चक्र बमुशिकल ही सही, फिर अपने आप को दोहराने में कामयाब रहा है। बेशक, वामपंथी दल अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं को दोहराते हुए पूरी बौद्धिक दृढ़ता से विफलता को नकारने की कोशिश करें परंतु इस वास्तविकता को खारिज नहीं किया जा सकता है कि संसदीय लोकतंत्र में चुनाव परिणामों में सफलता-विफलता ही राजनीतिक मूल्यांकन का पैमाना होती हैं। तीन दशक तक सत्ता में रहने के बावजूद वामपंथ का नकार दिया जाना लोकजीवन के एक बड़े हिस्से में वामपंथी दलों के प्रति असहमति और लोकसंस्कृति से उनकी राजनीति के कट जाने को रेखांकित करता है। कुछ धुर वाम विरोधी हार के जश्न में वामपंथी विचारधारा की प्रासंगिकता पर भी प्रश्नचिह्न लगा सकते हैं, परंतु यह विचारधारा पर प्रश्न चिह्न नहीं बल्कि उसके लगातार राजसत्ता में रहने पर होने वाले व्यवहार और वर्गीय बदलाव का अहम सवाल है।
तीन दशकों की उपलब्धि क्या
वैीकरणजनित विषमताओं और बढ़ती असमानताओं के बावजूद भारतीय वामपंथ के जनाधार का कमजोर होते जाना, या कुछ दायरों तक सिमट कर रह जाना वामपंथी घटकों के लिए तो बेशक चिंता का विषय है परंतु यह भारतीय लोकतंत्र के सम्रग विकास के लिए भी कोई शुभ संकेत नही है। दरअसल, तीन दशक तक सत्ता में रहने के बावजूद पश्चिम बंगाल विकास का कोई ऐसा नमूना नहीं बन पाया जो दूसरों के लिए आदर्श राज्य बन सके। वास्तव में यह एक वैज्ञानिक विचारधारा के सनातनी व सूत्रवादी हो जाने और लोगों की आकांक्षाओं के मोच्रे का एक पार्टी के मोच्रे में बदल जाने का परिणाम है। 1977 में सत्ता में आने के बाद वामपंथ ने बड़े पैमाने पर भूमि सुधार तो लागू किए परंतु भू वितरण से अगली विकास की अवस्था के सम्बंध में सत्ताधारी गठबंधन के पास राजनीतिक विजन एवं दूरदृष्टि का अभाव दिखाई दिया। जमीन के बंटवारे के बाद एक पीढ़ी तो लाभान्वित हुई और उसका राजनीतिक लाभ भी तीन दशक से ज्यादा वाममोच्रे को होता रहा मगर सवाल भूमि आधारित विकास के बाद की नई आर्थिक व्यवस्था और उस विकास से आने वाली पीढ़ी को जोड़ने का था।
संतुष्टि से आया विकास में अवरोध
केवल उपलब्ध संसाधनों को बांटकर संतुष्ट रहना और नए उत्पादन सम्बंधों का निर्माण और विकास न होना अंततोगत्वा उत्पादक शक्तियों के विकास के लिए अवरोध का बड़ा कारण बन जाता है। उत्पादक शक्तियों के विकास की यह रुकावट जहां समाज के विकास की बाधा बनती है वहीं यह बुनियादी तौर पर मार्क्‍सवादी दर्शन की अवधारणा के विरुद्ध भी है। समाज के स्वाभाविक विकास और विकास को अधिकाधिक जनोन्मुखी बनाने के लिए मार्क्‍सवाद आज भी प्रासंगिक है, बशत्रे कि मार्क्‍सवाद परिस्थितियों के द्वंद्ववादी विश्लेषण के आधार पर काम करे न कि वह किन्ही सनातनी व सूत्रवादी लोगों का बौद्धिक पल्राप बनकर रह जाए। कार्ल मार्क्‍स वैज्ञानिक ढंग से समाज विकास का अध्ययन करने वाले समाज विज्ञानी थे और उन्होंने अपने द्वारा प्रतिपादित अवधारणाओं में परिस्थितियों के अनुसार सुधार की आवश्यकता को भी रेखांकित किया है। परंतु वर्तमान मार्क्‍सवादी लेनिनवादी वाम आंदोलन ने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से परिस्थितियों का विश्लेषण करने की अपेक्षा औद्योगिक युग के विश्लेषण के कार्ल मार्क्‍स के निष्कषरें और वर्ग संघर्ष को मूल मार्क्‍सवादी सिद्धांत मान लिया है। दरअसल, यह मार्क्‍सवाद का सतही मूल्यांकन और एक वैज्ञानिक विचारधारा का सूत्रीकरण है जो अपने आप को क्रांतिकारी कहने वाली राजनीति को एक भाववादी राजनीति में परिवर्तित कर देता है जिससे कई पद्धति मूलक गलतियों की सम्भावना पैदा होती है। कथित रूप से एक क्रांतिकारी आंदोलन यह समझने लगता है कि सामाजिक सम्बंधों को बदल कर उत्पादन के नए सम्बंधों एवं नई भौतिक परिस्थितियों का निर्माण किया जा सकता है जबकि स्वाभाविक विकास का रास्ता इससे कहीं अलग होता है।
वैचारिक त्रुटियों का दंश
सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था में उत्पादन साधनों व सम्बंधों के टकराव से ही उत्पादन के नए साधनों का विकास होता है जिससे नए उत्पादन सम्बंधों का निर्माण होता है और नए सामाजिक सम्बंध बनते हैं और यह प्रक्रिया लगातार चलती रहती है। नए सम्बंधों के साथ ही नए नए अंतर्विरोध, नए टकराव और नए संघर्ष का भी जन्म होता है। पुराने सामाजिक सम्बंधों, या कहें तो पुराने वगरे का विलय होता जाता है और अगले नए सामाजिक सम्बंध नए टकरावों के साथ जन्म लेते जाते हैं, यही विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया है। निरंतर जारी रहने वाली यही प्रक्रिया पिछली अवस्था की विषमताओं और असमानताओं का समाधान करती है। पश्चिम बंगाल के वाममोर्चा को आखिरकार इन्ही वैचारिक त्रुटियों का खमियाजा भुगतना पड़ा है। भूमि सुधार के बाद औद्योगीकरण की अगली और स्वाभाविक प्रक्रिया से सत्ताधारी मोच्रे ने पूरी तरह मुंह मोड़ लिया जिस कारण राज्य में विकास एक स्थिति में आकर ठहर गया। विकास के इस यह ठहराव ने एक स्थिति विशेष में आकर चेतना के विकास को भी प्रभावित किया। चेतना के विकास का यह ठहराव तब प्रकट होता है जब वाममोर्चा सरकार बगैर किसी सामाजिक बहस और चर्चा के नंदीग्राम और सिंगुर में औद्योगिकरण की शुरुआत करती है उसे जनता की ओर से मुखर विरोध का सामना करना पड़ता है।
जनमानस ने वही किया जो सीखा
तीन दशक तक पूंजीवाद के नाम पर औद्योगीकरण के विरोध में प्रशिक्षित जनमानस ने वही दोहराया जो उसने सीखा था अंततोगत्वा नंदीग्राम और सिंगुर वामपंथी राजनीति के लिए एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ। हालांकि विरोध की यह आक्रामकता जो वामपंथ की नई परिभाषा बन गई, बंगाल के पूरे लोकजीवन का हिस्सा है जिसका अनुकरण करते हुए ममता बनर्जी ने भी व्यवहार में अपने आपको अधिक वामपंथी सिद्ध करने की कोशिश की। यही कारण है कि जब माकपा नंदीग्राम में केमिकल हब की वकालत कर रही थी तो ममता बनर्जी कम मजदूरी मिलने वाले बुनकर का दर्द उजागर करने का काम कर रही थीं और उनकी इसी छवि के कारण महाेता देवी के नेतृत्व में बड़ी संख्या में वामपंथी बुद्धिजीवी उनके साथ आ खड़े हुए। बहरहाल, तीन राज्यों से एक राज्य में सिमटकर फिर से अपनी स्वाभाविक प्रतिपक्ष की भूमिका में आ चुके वामपंथ के लिए यह आत्ममंथन का समय है। आत्ममंथन यह कि किस प्रकार मेहनतकशों की राजनीति में एक शासक वर्ग का जन्म होता है, आत्ममंथन यह कि किस प्रकार आम लोगों की राजनीति एक पार्टी विशेष की राजनीति बन जाती है। इसके अलावा इस भारतीय वामपंथ को लैटिन अमेरिकी वामपंथ से सीखना पड़ेगा कि कैसे संसदीय लोकतंत्र की विशेषताओं का इस्तेमाल करते हुए सामाजिक जीवन का स्वाभाविक अंग बनकर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन का माध्यम बना जा सकता है।
     

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