महेश राठी
कैबिनेट द्वारा एक लचर लोकपाल प्रारूप को मंजूरी देकर सरकार ने फिर से अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के लिए एक मजबूत आधार तैयार कर दिया है। दशकों से प्रतीक्षारत लोकपाल बिल अपने कमजोर रूप में संसद के मानसून सत्र में पेश हो जाएगा। लोकपाल बिल के प्रारूप से जहां काफी हद तक सरकार की मूल्यहीन राजनीति के बचाव की मंशा जाहिर होती है तो वहीं लोकपाल को मुद्दा बनाकर मैदान में उतरे गैरसरकारी संगठनों की पृष्ठभूमि वाले भ्रष्टाचार विरोधियों और उनके खामोश समर्थक निजी उद्यमियों की घेराबंदी की गूंज भी साफ सुनाई देती है। लोकपाल का यह प्रारूप भ्रष्टाचार से लड़ने का एक सीमित दायरे वाला ऐसा शक्तिहीन सरकारी सूत्र है कि अगर यह अपने इसी रूप में संसद से पारित हो जाता है तो देश पर लोकायुक्त की तरह का सफेद हाथी सरीखा बोझ बनकर रह जाएगा। संस्थागत रूप धारण कर चुके भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए बन रहा लोकपाल बेहद सीमित शक्तियों वाला प्रयास है। अन्ना की टीम द्वारा प्रस्तावित जन लोकपाल में जहां दोषी व्यक्ति को दंड देने का अधिकार था तो वहीं वर्तमान लोकपाल लोकायुक्त की तरह दोषी व्यक्ति के विरुद्ध अनुशंसा भर करने का अधिकार है या वह मामले की जांच कर उसे कोर्ट के पास मुकदमा चलाने के लिए भेज सकता है। दरअसल, यह लोकपाल की शक्तियों को एक सीमा में रखने की सोची समझी रणनीति है। यदि लोकपाल को मामले की जांच के बाद सजा देने का प्रावधान नहीं है और संबंधित विभाग को केवल कार्रवाई की ही अनुशंसा करता है तो उस पर कार्रवाई संबंधित विभाग के राजनीतिक हितों पर निर्भर करती है। दिल्ली के एक मंत्री राजकुमार चौहान के खिलाफ दिल्ली लोकायुक्त की अनुशंसाओं का हश्र सभी के सामने है। इसके अलावा दूसरी स्थिति में मामला कोर्ट में जाने पर भी एक बेहद लंबी प्रक्रिया में उलझ कर इसके लंबे समय लटकने की ही पूरी आशंका होगी, जैसा कि बोफोर्स और चारा घोटाले के मामले में पूरा देश देख चुका है। वास्तव में शक्तियों और कार्रवाई के मामले में इस प्रस्तावित लोकपाल की स्थिति लगभग लोकायुक्त जैसी ही है। कोई फर्क है तो यह कि लोकपाल को सीधे कोर्ट भी जाने का अधिकार है। लोकपाल की यह शक्तिहीनता उस समय और अधिक हस्यास्पद हो जाती है, जब लोकपाल का यह प्रारूप दोषी को तो दंड देने का अधिकार लोकपाल को नहीं देता है, लेकिन शिकायतकर्ता की शिकायत गलत पाए जाने पर शिकायतकर्ता को दो साल तक की सजा देने का अधिकार लोकपाल को अवश्य है। दोषी और शिकायतकर्ता के लिए यही भेदभाव वाले प्रावधानों का विरोधाभास ड्रॉफ्ट कमेटी के राजनीतिक प्रतिनिधियों की नीयत को रेखांकित करता है। शिकायतकर्ता को सजा का यह प्रावधान शिकायतकर्ताओं को हतोत्साहित करने की ही कोशिश है। सीमित शक्तियों के अलावा इस लोकपाल का तंग दायरा भी सत्ताधारी दल की राजनीतिक मंशाओं को सवालों के घेरे में खड़ा करता है। प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने पर संभवतया देश में सबसे अधिक चर्चा हुई है। प्रधानमंत्री को जांच के दायरे से बाहर रखने का अर्थ है उन सभी विभागों के भ्रष्टाचार को जांच के दायरे से बाहर कर देना, जिनका कार्यभार सीधे तौर पर प्रधानमंत्री के पास है। अब भी 2जी स्पेक्ट्रम में जो राजा के ताजे बयान आ रहे हैं, उनके निशाने पर प्रधानमंत्री की भूमिका भी है। ऐसी स्थिति में किसी घोटाले में प्रधानमंत्री की भूमिका लोकपाल की स्वतंत्र एवं निष्पक्ष जांच प्रक्रिया को प्रभावित कर सकती है। मंत्रियों और सांसदों द्वारा संसद में किए भ्रष्टाचार को भी युक्तिपूर्ण ढंग से लोकपाल से बाहर कर दिया जाना वास्तव में इसे एक बेहद लचर और महत्वहीन लोकपाल में बदल रहा है। इस लोकपाल की परिधि से बडे़ ही नहीं, छोटे अधिकारी और कर्मचारियों की भ्रष्ट करतूतें भी इसके दायरे से बाहर हो जाती हैं। राज्य सरकारों और स्थानीय निकायों का भ्रष्टाचार भी लोकपाल के तंग दायरे से बाहर है। संभवतया यह लोकपाल आम आदमी की जरूरतों को पूरा करने वाला नहीं, केवल एक सीमित दायरे के हितों की लड़ाई का मंच बनकर रह जाने वाला लोकपाल है। इसके अलावा लोकपाल की नियुक्ति का ढंग भी ऐसा है, जिसे अंततोगत्वा राजनीति प्रभावित करेगी। लोकपाल के वर्तमान प्रारूप से कांग्रेसी महत्वाकांक्षाओं की आहट और योजना स्पष्ट दिखाई देती है। अभी कुछ समय पहले कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने अपने एक बयान में कहा था कि प्रधानमंत्री ही क्यों, कॉरपोरेट क्षेत्र और गैरसरकारी संगठनों को भी इस लोकपाल के दायरे में आना चाहिए। इस लोकपाल का यही दिग्विजयी पहलू सबसे अधिक दिलचस्प और आश्चर्यजनक है कि इस लोकपाल के दायरे से प्रधानमंत्री तो बाहर हो गए, लेकिन निजी उद्यमी, कॉरपोरेट और गैरसरकारी संगठन जिनकी हाल के दिनों तक कोई चर्चा नहीं थी, वह इस लोकपाल के दायरे से बच नही पाएंगे। क्योंकि कोई भी संस्थान या संगठन जो किसी भी प्रकार के सरकारी नियंत्रण में हो, सरकार या सार्वजनिक संस्थानों से सहायता या वित्त सहायता यानी ऋण पाता हो, सार्वजनिक रूप से दान पाता हो या उसकी आय केंद्र सरकार के अधिसूचित प्रावधानों से अधिक हो, वह इस लोकपाल के दायरे में अवश्य आएगा। लोकपाल के दायरे में आने वाली इस परिभाषा से स्पष्ट है कि सभी निजी उद्यमी, कॉरपोरेट निगम या गैरसरकारी संगठन इसके दायरे से बच नहीं पाएंगे। दरअसल, सरकार की मंशा जहां भ्रष्टाचार के मामले पर इस प्रारूप से उजागर हो रही है तो वहीं जन लोकपाल की रचयिता टीम अन्ना भी एक दूसरे अतिवादी छोर पर खड़ी है। टीम अन्ना के जन लोकपाल बिल का प्रारूप भी पूरे देश और सरकार से ऊपर एक संस्था, एक समानांतर सुपर स्ट्रक्चर की भनक देता है। जिसके तहत देश की कार्यपालिका से लेकर न्यायपालिका और सभी जांच एजेंसियां आ सकती हैं। वास्तव में यह सरकार से भी शक्तिशाली एक सरकार की संकल्पना है, जिसके आने वाले दिनों में सभी केंद्रीकृत सत्ता संस्थानों की तरह के अपने ही कुछ खतरे होंगे। असल में सीवीसी और सीबीआइ के लागातर दुरुपयोग ने इन जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली पर कुछ गंभीर सवाल अवश्य ही खडे़ किए है, लेकिन उनका समाधान कार्यपालिका से इतर कोई दूसरी नियंत्रण प्रणाली में नहीं, इन जांच एजेंसियों की स्वायत्तता सुनिश्चित करने से ही हो सकता है। ठीक यही स्थिति न्यायपालिका के नियत्रंण को लेकर भी है, जबकि यह सवाल नियंत्रण करने वाली शक्तियों को बदलने से बड़ा न्यायपालिका को स्वतंत्र और मजबूत बनाने का है। इसके लिए देश में एक न्यायिक आयोग जैसी संस्था होनी चाहिए, जिसके पास न्यायपालिका के पूरे संगठन को सुचारू रूप से चलाने से लेकर न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णयों की समीक्षा तक का अधिकार हो, क्योंकि भ्रष्टाचार, घोटालों और तमाम अनियमितताओं का प्रमुख कारण सत्ता के केंद्रीकरण में निहित है और सत्ता को विकेंद्रीकृत करके ही इसका समाधान किया जा सकता है, सत्ता नियंत्रण का नया केंद्र बनाकर नहीं। अब इसके लिए सरकार और टीम अन्ना दोनों को अपने अडि़यल रुख को छोड़कर ऐसे लोकपाल की ओर बढ़ना होगा, जिससे आमजन के हितों की रक्षा हो सके और जो किसी वर्ग विशेष और नए सत्ता केंद्र के हितों की पूर्ति का साधन नहीं बने। वैसे भी लोकपाल का वर्तमान सरकारी प्रारूप अभी संसद के सामने आना बाकी है और यह तो तय है कि यह उस रूप में पारित नहीं होगा, जैसा सरकार चाहती है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
कैबिनेट द्वारा एक लचर लोकपाल प्रारूप को मंजूरी देकर सरकार ने फिर से अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के लिए एक मजबूत आधार तैयार कर दिया है। दशकों से प्रतीक्षारत लोकपाल बिल अपने कमजोर रूप में संसद के मानसून सत्र में पेश हो जाएगा। लोकपाल बिल के प्रारूप से जहां काफी हद तक सरकार की मूल्यहीन राजनीति के बचाव की मंशा जाहिर होती है तो वहीं लोकपाल को मुद्दा बनाकर मैदान में उतरे गैरसरकारी संगठनों की पृष्ठभूमि वाले भ्रष्टाचार विरोधियों और उनके खामोश समर्थक निजी उद्यमियों की घेराबंदी की गूंज भी साफ सुनाई देती है। लोकपाल का यह प्रारूप भ्रष्टाचार से लड़ने का एक सीमित दायरे वाला ऐसा शक्तिहीन सरकारी सूत्र है कि अगर यह अपने इसी रूप में संसद से पारित हो जाता है तो देश पर लोकायुक्त की तरह का सफेद हाथी सरीखा बोझ बनकर रह जाएगा। संस्थागत रूप धारण कर चुके भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए बन रहा लोकपाल बेहद सीमित शक्तियों वाला प्रयास है। अन्ना की टीम द्वारा प्रस्तावित जन लोकपाल में जहां दोषी व्यक्ति को दंड देने का अधिकार था तो वहीं वर्तमान लोकपाल लोकायुक्त की तरह दोषी व्यक्ति के विरुद्ध अनुशंसा भर करने का अधिकार है या वह मामले की जांच कर उसे कोर्ट के पास मुकदमा चलाने के लिए भेज सकता है। दरअसल, यह लोकपाल की शक्तियों को एक सीमा में रखने की सोची समझी रणनीति है। यदि लोकपाल को मामले की जांच के बाद सजा देने का प्रावधान नहीं है और संबंधित विभाग को केवल कार्रवाई की ही अनुशंसा करता है तो उस पर कार्रवाई संबंधित विभाग के राजनीतिक हितों पर निर्भर करती है। दिल्ली के एक मंत्री राजकुमार चौहान के खिलाफ दिल्ली लोकायुक्त की अनुशंसाओं का हश्र सभी के सामने है। इसके अलावा दूसरी स्थिति में मामला कोर्ट में जाने पर भी एक बेहद लंबी प्रक्रिया में उलझ कर इसके लंबे समय लटकने की ही पूरी आशंका होगी, जैसा कि बोफोर्स और चारा घोटाले के मामले में पूरा देश देख चुका है। वास्तव में शक्तियों और कार्रवाई के मामले में इस प्रस्तावित लोकपाल की स्थिति लगभग लोकायुक्त जैसी ही है। कोई फर्क है तो यह कि लोकपाल को सीधे कोर्ट भी जाने का अधिकार है। लोकपाल की यह शक्तिहीनता उस समय और अधिक हस्यास्पद हो जाती है, जब लोकपाल का यह प्रारूप दोषी को तो दंड देने का अधिकार लोकपाल को नहीं देता है, लेकिन शिकायतकर्ता की शिकायत गलत पाए जाने पर शिकायतकर्ता को दो साल तक की सजा देने का अधिकार लोकपाल को अवश्य है। दोषी और शिकायतकर्ता के लिए यही भेदभाव वाले प्रावधानों का विरोधाभास ड्रॉफ्ट कमेटी के राजनीतिक प्रतिनिधियों की नीयत को रेखांकित करता है। शिकायतकर्ता को सजा का यह प्रावधान शिकायतकर्ताओं को हतोत्साहित करने की ही कोशिश है। सीमित शक्तियों के अलावा इस लोकपाल का तंग दायरा भी सत्ताधारी दल की राजनीतिक मंशाओं को सवालों के घेरे में खड़ा करता है। प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने पर संभवतया देश में सबसे अधिक चर्चा हुई है। प्रधानमंत्री को जांच के दायरे से बाहर रखने का अर्थ है उन सभी विभागों के भ्रष्टाचार को जांच के दायरे से बाहर कर देना, जिनका कार्यभार सीधे तौर पर प्रधानमंत्री के पास है। अब भी 2जी स्पेक्ट्रम में जो राजा के ताजे बयान आ रहे हैं, उनके निशाने पर प्रधानमंत्री की भूमिका भी है। ऐसी स्थिति में किसी घोटाले में प्रधानमंत्री की भूमिका लोकपाल की स्वतंत्र एवं निष्पक्ष जांच प्रक्रिया को प्रभावित कर सकती है। मंत्रियों और सांसदों द्वारा संसद में किए भ्रष्टाचार को भी युक्तिपूर्ण ढंग से लोकपाल से बाहर कर दिया जाना वास्तव में इसे एक बेहद लचर और महत्वहीन लोकपाल में बदल रहा है। इस लोकपाल की परिधि से बडे़ ही नहीं, छोटे अधिकारी और कर्मचारियों की भ्रष्ट करतूतें भी इसके दायरे से बाहर हो जाती हैं। राज्य सरकारों और स्थानीय निकायों का भ्रष्टाचार भी लोकपाल के तंग दायरे से बाहर है। संभवतया यह लोकपाल आम आदमी की जरूरतों को पूरा करने वाला नहीं, केवल एक सीमित दायरे के हितों की लड़ाई का मंच बनकर रह जाने वाला लोकपाल है। इसके अलावा लोकपाल की नियुक्ति का ढंग भी ऐसा है, जिसे अंततोगत्वा राजनीति प्रभावित करेगी। लोकपाल के वर्तमान प्रारूप से कांग्रेसी महत्वाकांक्षाओं की आहट और योजना स्पष्ट दिखाई देती है। अभी कुछ समय पहले कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने अपने एक बयान में कहा था कि प्रधानमंत्री ही क्यों, कॉरपोरेट क्षेत्र और गैरसरकारी संगठनों को भी इस लोकपाल के दायरे में आना चाहिए। इस लोकपाल का यही दिग्विजयी पहलू सबसे अधिक दिलचस्प और आश्चर्यजनक है कि इस लोकपाल के दायरे से प्रधानमंत्री तो बाहर हो गए, लेकिन निजी उद्यमी, कॉरपोरेट और गैरसरकारी संगठन जिनकी हाल के दिनों तक कोई चर्चा नहीं थी, वह इस लोकपाल के दायरे से बच नही पाएंगे। क्योंकि कोई भी संस्थान या संगठन जो किसी भी प्रकार के सरकारी नियंत्रण में हो, सरकार या सार्वजनिक संस्थानों से सहायता या वित्त सहायता यानी ऋण पाता हो, सार्वजनिक रूप से दान पाता हो या उसकी आय केंद्र सरकार के अधिसूचित प्रावधानों से अधिक हो, वह इस लोकपाल के दायरे में अवश्य आएगा। लोकपाल के दायरे में आने वाली इस परिभाषा से स्पष्ट है कि सभी निजी उद्यमी, कॉरपोरेट निगम या गैरसरकारी संगठन इसके दायरे से बच नहीं पाएंगे। दरअसल, सरकार की मंशा जहां भ्रष्टाचार के मामले पर इस प्रारूप से उजागर हो रही है तो वहीं जन लोकपाल की रचयिता टीम अन्ना भी एक दूसरे अतिवादी छोर पर खड़ी है। टीम अन्ना के जन लोकपाल बिल का प्रारूप भी पूरे देश और सरकार से ऊपर एक संस्था, एक समानांतर सुपर स्ट्रक्चर की भनक देता है। जिसके तहत देश की कार्यपालिका से लेकर न्यायपालिका और सभी जांच एजेंसियां आ सकती हैं। वास्तव में यह सरकार से भी शक्तिशाली एक सरकार की संकल्पना है, जिसके आने वाले दिनों में सभी केंद्रीकृत सत्ता संस्थानों की तरह के अपने ही कुछ खतरे होंगे। असल में सीवीसी और सीबीआइ के लागातर दुरुपयोग ने इन जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली पर कुछ गंभीर सवाल अवश्य ही खडे़ किए है, लेकिन उनका समाधान कार्यपालिका से इतर कोई दूसरी नियंत्रण प्रणाली में नहीं, इन जांच एजेंसियों की स्वायत्तता सुनिश्चित करने से ही हो सकता है। ठीक यही स्थिति न्यायपालिका के नियत्रंण को लेकर भी है, जबकि यह सवाल नियंत्रण करने वाली शक्तियों को बदलने से बड़ा न्यायपालिका को स्वतंत्र और मजबूत बनाने का है। इसके लिए देश में एक न्यायिक आयोग जैसी संस्था होनी चाहिए, जिसके पास न्यायपालिका के पूरे संगठन को सुचारू रूप से चलाने से लेकर न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णयों की समीक्षा तक का अधिकार हो, क्योंकि भ्रष्टाचार, घोटालों और तमाम अनियमितताओं का प्रमुख कारण सत्ता के केंद्रीकरण में निहित है और सत्ता को विकेंद्रीकृत करके ही इसका समाधान किया जा सकता है, सत्ता नियंत्रण का नया केंद्र बनाकर नहीं। अब इसके लिए सरकार और टीम अन्ना दोनों को अपने अडि़यल रुख को छोड़कर ऐसे लोकपाल की ओर बढ़ना होगा, जिससे आमजन के हितों की रक्षा हो सके और जो किसी वर्ग विशेष और नए सत्ता केंद्र के हितों की पूर्ति का साधन नहीं बने। वैसे भी लोकपाल का वर्तमान सरकारी प्रारूप अभी संसद के सामने आना बाकी है और यह तो तय है कि यह उस रूप में पारित नहीं होगा, जैसा सरकार चाहती है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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