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गुरुवार, 6 अक्तूबर 2011

टूटते सपनों, बिखरती उम्मीदों का देश अमेरिका

महेश राठी 
नई आधुनिकता बोध का पर्याय और सुनहरे भविष्य के सपनों का देश अमेरिका भयावह आर्थिक सामाजिक विषमता का शिकार होकर अब अमेरिकावासियों के लिए टूटते सपनों के संसार में बदल रहा है। गंभीर आर्थिक संकटों का सामना कर रहा विश्व पंूजीवादी विकास का मॉडल राज्य आज पंूजीवादी नीतियों के स्पष्ट विरोध का उत्प्रेरक होने की राह पर अग्रसर है। एक दशक से भी अधिक समय से लगातार आर्थिक-सामाजिक विषमताओं को झेलते रहने के बावजूद मुक्त व्यापार नीति निर्माता नई आर्थिक नीतियों से इतने अभिभूत हैं कि उन्हें अमेरिका के ध्वस्त होते रोजगार बाजार, टूटती स्वास्थ्य सेवा, लगातार बढ़ती गरीबों की संख्या और पंूजीवादी मुनाफाखोरी के विरुद्ध तेज बढ़ते आक्रोश की भी परवाह नहीं है।

बढ़ती विषमता और असमानता के प्रतिफल स्वरूप अमेरिकी युवाओं का आक्रोश सड़कों पर फूट पड़ा है। वॉल स्ट्रीट पर कब्जे की मुहिम के रूप में शुरू हुआ यह जनाक्रोश अब अमेरिका के कई शहरों में फैल रहा है। अमेरिका में फूटे इस आक्रोश के मुख्यतया चार कारण हैं पहला नई आर्थिक नीतियों के नाम पर आउटसोर्सिंग और ऑफशोरिंग को तेजी से लागू करना, दूसरा मुक्त व्यापार नीति निर्माताओं द्वारा वित्त संस्थानों को विनियामक व्यवस्था से अर्थात किसी भी प्रकार के नियंत्रण से पूरी तरह मुक्त कर देना, तीसरा विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से मिलने वाली आर्थिक सहायता को बेलआउट पैकेज के तौर बड़े निगमों पर लुटाना और चौथा आर्थिक संकट से निपटने के नाम पर देश के मध्य वर्ग पर कटौती प्रस्तावों को थोपना। उत्पादन खर्च को कम करने की मुहिम के तहत अमेरिकी बहुराष्ट्रीय निगमों ने आउटसोर्सिंग और ऑफशोरिंग का सहारा लिया, जिससे बड़ी संख्या में अमेरिकी रोजगार तीसरी दुनिया के देशों खासकर चीन और भारत में स्थानांतरित हो गए और देखते ही देखते जहां चीन दुनिया के बड़े कारखाने के रूप में परिवर्तित हो गया तो वहीं भारत भी अमेरिकी अर्थव्यवस्था और कई पश्चिमी देशों के दफ्तर में बदल गया। इन आर्थिक बदलावों ने बेशक अमेरिकी बहुराष्ट्रीय निगमों के मुनाफे में बढ़ोतरी की हो मगर इससे अमेरिकी रोजगार बाजार बुरी तरह ध्वस्त हो चुका है। रोजगार बाजार के ध्वस्त होने से अमेरिकी मध्य वर्ग की क्रयशक्ति में जबरदस्त गिरावट आई और इसका सीधा असर उपभोक्ता बजार की गिरावट के रूप में नजर आया। मध्य वर्ग की आय में गिरावट और उपभोक्ता वस्तुओं की मांग में कमी के कारण अमेरिकी कर आधार बुरी तरह हिल गया और उसके राजस्व में बड़ी गिरावट दर्ज की गई जो सार्वजनिक और उपभोक्ता ऋण में बढ़ोतरी का बड़ा कारण बन रहा है।

विनिर्माण और प्रौद्योगिकी संस्थान की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले एक दशक में अमेरिका में 54621 कारखाने बंद हो गए जिस कारण पचास लाख से भी अधिक लोगों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा। इसी रिपोर्ट के अनुसार पिछले दशक में 1000 से अधिक कर्मचारियों वाले कारखानों की संख्या में 40 प्रतिशत की गिरावट आई तो वहीं 500 से 1000 कर्मचारियों वाले कारखानों में 44 प्रतिशत, 250 से 500 वाले 37 प्रतिशत और 100 से 250 कर्मचारियों वाले 30 प्रतिशत कारखाने बंद हुए।

बीसवीं सदी के औद्योगिक विकास का नेतृत्व करने वाला देश आज दुनिया के औद्योगिक विकास में अपना आधिपत्य खो रहा हैं, मगर विडंबना यह है कि इसके लिए बाकी दुनिया से अधिक खुद अमेरिकी आर्थिक नीति निर्माता दोषी हैं। बाजार अर्थव्यवस्था के पेरोकार नीति नियंताओं ने अपने स्वार्थ के वशीभूत न केवल आउटसोर्सिंग का सहारा लिया, बल्कि वित्त संस्थानों को भी पूरी तरह नियंत्रण मुक्त कर दिया। राज्य हस्तक्षेप से पूरी आजाद इन वित्त संस्थानों ने अपने लाभ के लिए अधिक आसान गैर-उत्पादक गतिविधियों की तरफ रुख किया। कल तक औद्योगिक विकास के लिए जमीन तैयार करने वाली पंूजी अब शेयर बाजार रीयल एस्टेट और वायदा करोबार के मैदान में कूद पड़ी।

अभी तक औद्योगिक विकास की प्रमुख कारक वित्त पंूजी अब राज्य संरक्षित कैसिनो की खिलाड़ी हो गई है। अनियंत्रित वित्त संस्थानों की इस नई भूमिका के कारण दुनिया में एक नई तरह की औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया को जन्म दिया, जो रोजगार विनाशक विकास के मॉडल के रूप में आज दुनिया के सामने है। रोजगार बाजार के टूटने और उत्पादन की गिरावट ने अंततोगत्वा अमेरिकी बाजार को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया, जिससे उपभोक्ता ऋण और सार्वजनिक ऋणों में लगातार बढ़ोतरी हुई एवं स्थितियां विस्फोटक रूप धारण कर चुकी हैं।

वर्तमान समय में अमेरिका सहित लगभग सभी पश्चिमी देशों का कुल कर्ज उनके सकल घरेलू उत्पाद से भी अधिक हो चुका है, जिससे निपटने के लिए अमेरिकी सरकार को लगातार नए कर्ज का सहारा लेना पड़ रहा है। पर त्रासदी यह है कि अभी तक संरक्षणवाद के मुखर विरोधी रहे वैश्वीकरण के नीति-नियंता अपने वित्त संस्थानों को संकट से उभारने के लिए बेलआउट पैकेज जैसे संरक्षणवादी उपायों का सहारा ले रहे हैं। इसके अतिरिक्त सरकार अपने बजटीय खर्चों को कम करने के लिए मध्यवर्गीय कर्मचारियों पर जबरदस्ती कटौती प्रस्ताव लागू कर रही है जो अमेरिकी मध्यवर्ग के आर्थिक हितों पर सीधा हमला है। कटौती उपायों के कारण अमेरिका की सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं शिक्षा व्यवस्था जहां बुरी तरह प्रभावित हुई है तो वहीं दूसरी तरफ कर्मचारियों की पेंशन, भविष्य निधि एवं सामाजिक सुरक्षा के अन्य स्रोत भी विश्व बैंक और आईएमएफ निर्देशित कटौती का शिकार है। वहीं दूसरी तरफ आर्थिक संकट के बावजूद इस दौर में भी बड़े औद्योगिक घरानों ने अपनी आय और दौलत में बढ़ोतरी की है। पिछले एक वित्त वर्ष में ही इन औद्योगिक घरानों की दौलत में 32 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी दर्ज की गई। यही इस नए अमेरिकी जनाक्रोश का मुख्य कारण है और इन आंदोलनकारियों का नारा है कि अमीरों की तिजोरी भरने के लिए हमारी जेबें क्यों काटी जाए। अमेरिका के इतिहास में संभवतया पहली बार पंूजीवाद को इतनी स्पष्ट और सीधी चुनौती मिल रही है। विरोध के इस लावे के फूटने की यह शुरुआत भर ही है और इसके फैलने के अंदाज से लगता है कि यह आग देर तक जलेगी और दूर तक फैलेगी। 

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