प्रसंगवश महेश राठी तेजी से बढ़ती आबादी के दबाव और शहरी विकास व्यवस्था की विफलता ने देश की राजधानी को दुर्घटनाओं की सर्वाधिक आशंकाओं वाले शहर में तब्दील कर दिया है। ललिता पार्क और सावदा घेवरा के बाद पुरानी दिल्ली के चांदनी महल में हालिया इमारत गिरने की घटना के पश्चात अब एक दूसरे पर जिम्मेदारी डालकर मामले को दबाने का बेमिसाल राजनीतिक-प्रशासनिक प्रबंधन फिर शुरू हो चुका है लेकिन असली गुनाहगारों पर सभी खामोश हैं। कई लोगों की जान लेकर दर्जनों को घायल कर देने वाली यह हादसा पहली नजर में बिल्डर और निगम अधिकारियों की मिलीभगत से होने वाले अवैद्य निर्माण का है जिसमें स्थानीय पुलिस की सांठगांठ भी है और नेताओं की शह भी। तार्किक और दूरदर्शी सम्रग शहरी विकास नीति का अभाव इस हादसे की अन्य वजह है। यदि ढह गई इमारत में रहने वालों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि एवं यहां रहने की विवशताओं का विश्लेषण किया जाए तो इस हादसे के वास्तविक कारणों को आसानी से समझा जा सकता है। इस इमारत में रहने वाले अधिकतर परिवार निम्नमध्य आय वाले थे जिनके इन तंग गलियों और खस्ता हाल घरों में रहने के आर्थिक कारण थे। अपनी क्षमता से कई गुना अधिक बोझ तले दबी इमारतों की श्रृंखला की यह कहानी केवल पुरानी दिल्ली के चांदनी महल की नहीं, कमोबेश पूरी दिल्ली की वास्तविकता है। पूरे शहर में जहां से भी पिछले सालों में दिल्ली को विश्वस्तरीय शहर बनाने के लिए झुग्गी बस्तियों को उजाड़ा गया है उसके आसपास की सभी बस्तियों में ऐसी इमारतों की भरमार है। महंगे होते जमीन के दाम के कारण दिल्ली में अपने घर का सपना आम आदमी की पहुंच से दूर हो चला है। जिस कारण शहर में बड़ी आबादी जीवनयापन के लिए अपने रोजगार स्थलों के करीब खासकर- लक्ष्मी नगर, शकरपुर, पांडव नगर, गणोश नगर, जामा मस्जिद, नबीकरीम, खजूरी खास और जाकिर नगर की बेशुमार दड़बेनुमा कमजोर इमारतों के कमरों में तुलनात्मक रूप से सस्ते मकानों में रहती है। रोजगार कारणों से दिल्ली के करीब रहने की इस ललक ने नए तरह के इस किरायेदारी स्लम को जन्म दिया है, जो दिल्ली में नई तरह की तबाही के संकेत दे रहा है। यह किरायेदारी स्लम ही कुछ धनवानों को मुनाफे की चाहत में नई इमारतों के निर्माण की प्रेरणा भी दे रहा है। दरअसल, सरकार की अदूरदर्शितापूर्ण, अस्पष्ट और प्रभावहीन शहरी योजना ने ही राजधानी के इस अनियोजित एवं बेतरतीब विकास की पटकथा लिखी है। देश की राजधानी आज बिल्डर माफिया, नेता, नौकरशाही और पुलिस के नापाक गठजोड़ के कारण अनियंत्रित, अनियमित और अराजक ढंग से बढ़ रही इमारतों का शहर बन गई है। सरकार ने दिल्ली के विकास को सुरक्षित एवं सही दिशा देने के लिए 1957 में दिल्ली विकास प्राधिकरण की स्थापना की जो नियोजित शहरी विकास की अपनी जिम्मेदारियों को निभाने में पूरी तरह विफल रहा। डीडीए की इसी विफलता ने दिल्ली को भूमाफिया और बिल्डरों की राजधानी में परिवर्तित कर दिया है। आज दिल्ली की साठ फीसद से अधिक आबादी रिहाइश के लिए इन्हीं के भरोसे है। भूमाफिया और बिल्डरों को पालने वाली शहरी विकास की नीति निर्माता वही राजनीति है जो हर हादसे के बाद हल्की मुस्कुराहट और बडी मासूमियत के साथ अपना दोष विपक्ष या छोटे अधिकारियों पर डालकर और छोटी मछलियों का शिकार कर चैन से सोती है। यदि नीतिकार इस हादसे पर संजीदा हैं तो उन्हे बयानबाजी छोड़कर अपनी नीतियों को समाज के प्रत्येक वर्ग की जरूरतों, खासकर गरीबों के मुताबिक बदलना चाहिए। दिल्ली के जमीन पर फैलने के बाद अब आकाश की ओर बढ़ने की शुरुआत हो चुकी है। ऐसे में यदि बगैर किसी सम्रग शहरी विकास योजना के बिल्डरों को लालच आधारित निर्माण की छूट दी गई तो आने वाले समय में हादसे ही दिल्ली की पहचान बन जाएंगे। |
गुरुवार, 6 अक्तूबर 2011
तबाही की आशंकाओं से घिरा शहर
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें