महेश राठी
उदारवाद के नीति-निर्माता दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश को 1856 सरीखे सामाजिक विभाजन एवं संघर्षों की अवस्था में ले आए हैं। एक बनाम निन्यानवे प्रतिशत के नारों वाले आंदोलन से रेखांकित वर्तमान दौर का यह आर्थिक विभाजन 1856 में गृह युद्ध की स्थिति में फंसे अमेरिका के सामाजिक विभाजन से भी अधिक स्पष्ट, व्यापक है। यह पंूजीवाद के सबसे मजबूत किले के ढह जाने से कहीं ज्यादा पंूजीवादी राजनीतिक संरचनाओं में निर्णायक बदलावों और नई राजनीतिक धारा के विकास का अहम पड़ाव है।
दास स्वामियों के तुष्टिकरण और दास प्रथा विरोध पर बंटे अमेरिका में जून 1856 के मध्य में फिलाडेल्फिया के म्युजिकल फंड हॉल में रिपब्लिकन पार्टी का जन्म हुआ था। और उसके पहले राष्ट्रपति के रूप में 1860 में अब्राहम लिंकन निर्वाचित हुए। दरअसल अमेरिका आज फिर इसी प्रकार के विभाजन का गवाह बनने जा रहा है, परंतु इसमें एक गुणात्मक अंतर है। 1856 में अमेरिकी समाज जहां सामाजिक आधार पर और उत्तर-दक्षिण में भौगोलिक रूप से बंटा था, वहीं वर्तमान विभाजन आर्थिक और अमेरिका के हरेक राज्य, शहर और आबादी में देखा जा सकता है।
दरअसल समाज के विभाजन की यह पटकथा रेगन-थैचर द्वारा प्रतिपादित आर्थिक विकास के नए मॉडल ने रख दी थी, परंतु राष्ट्रपति के रूप में डेमोक्रेट ओबामा की विफलताओं ने इसे नए सामाजिक विस्फोट में रूपांतरित कर दिया, जो आज अमेरिका की सड़कों पर ‘वॉल स्ट्रीट कब्जा करो’ आंदोलन की शक्ल में दिखाई पड़ रहा है। आंदोलन की यह स्वत:स्फूर्त प्रवृत्ति आवारा वित्तीय पंूजी के अंतहीन लालच से जन्मी सामाजिक-आर्थिक विषमताओं, बढ़ती बेकारी और टूटते सपनों और बिखरती उम्मीदों से ऊर्जा पा रही है।
असल में, अमेरिका की वर्तमान दो दलीय व्यवस्था की शुरुआत 1860 से ही दिखाई पड़ती है, रिपब्लिकन पार्टी अपने मध्य से दक्षिणपंथी रुझानों के लिए जानी जाती है तो वहीं डेमोके्रट मध्य से वाम रुझानों और सामाजिक सरोकारों के लिए प्रतिबद्ध दल के रूप में। दोनों दलों का अपना जनाधार है। रिपब्लिकन अपने कट्टर पंूजीवादी रुझानों के लिए जाने जाते हैं तो वहीं डेमोक्रेट का आधार मध्यवर्ग, ट्रेड यूनियन और देश के प्रगतिशील तबकों में है। परंतु यही भूमंडलीकरण का चमत्कार है कि उसने इतनी विविधताओं वाले दोनों दलों को नीतियों के, विशेषकर आर्थिक नीतियों के स्तर पर एकाकार कर दिया। रिपब्लिकन पार्टी ने सेना और उद्योग गठजोड़ मॉडल को आक्रामक ढंग से बुशवाद की नई संकल्पना के रूप में आगे बढ़ाया तो वहीं ओबामा ने अपने जोशीले भाषणों में बुशवाद के मुखर विरोध को अपने राजनीतिक प्रचार का मुख्य एजेंडा बनाया। ओबामा के एजेंडे में जहां बुश की रिपब्लिकन नीतियों का कड़ा विरोध था तो वहीं युवाओं के लिए आउटसोर्सिंग पर रोक और रोजगार मुहैया कराने के लुभावने वायदे भी थे। देश की जनता विशेष तौर पर युवाओं को उस समय हताशा हुई, जब उन्होंने पाया कि अपने तमाम वायदों के बाद ओबामा भी अमेरिकी विकास के सैन्य उद्योग मॉडल का हिस्सा बनकर रह गए हैं। विकास के इसी मॉडल की तर्ज पर चलते हुए 2007-08 की मंदी से उबरने के लिए बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घरानों और वित्तीय संस्थानों को बेलआउट पैकेज देकर सरकार ने एक तरफ तो कॉर्पोरेट तिजोरियों को भरने का काम किया तो दूसरी तरफ बजट में खर्च कम करने के नाम पर मध्य वर्ग पर कटौती प्रस्तावों को थोपा। उदारवाद के इसी दोहरे व्यवहार से उपजी हताशा, डेमोक्रेट और ओबामा की विफलता ने अमेरिका के युवाओं को सड़कों पर आने और शेयर बाजार पर कब्जा करने की प्रेरणा दी।
विज्ञान-प्रौद्योगिकी, आर्थिक एवं सामाजिक संक्रमण के इस निर्णायक मोड़ पर रिपब्लिकन पार्टी की हार के बाद डेमोक्रेट पार्टी की विफलता के अमेरिकी राजनीति में बड़े गहरे अर्थ हैं। यह केवल राजनीतिक हार का आधार नहीं वरन अपने उस जनाधार को गंवा देना है, जिसके प्रतिनिधि के तौर पर डेमोक्रेट अपने देश और समाज में जाने जाते हैं। ऐसी स्थिति में इन तबकों को अपने लिए नए राजनीतिक प्रतिनिधियों की आवश्यकता फिर से महसूस हो रही है। अमेरिका के कई राजनीतिक विश्लेषक इन परिस्थितियों की तुलना 1856 में रिपब्लिकन पार्टी के पैदा होने की परिस्थितियों से कर रहे हैं। नई तीसरी पार्टी के उदय की भविष्यवाणी करने वाले मुख्यत: दो पक्ष हैं, एक वे राष्ट्रवादी जो आउटसोर्सिंग और विदेशी प्रवासी पेशवरों एवं कामगारों को अमेरिकी अर्थव्यवस्था की दुर्गति का कारण मानते हुए आउटसोर्सिंग और वर्क वीजा पर प्रतिबंध लगाने की बात करते हैं तो वहीं दूसरे वे ट्राटस्कीवादी एवं कुछ अतिवादी वामगुट, जो अति उत्साह में इसे वर्ग युद्ध और क्रांति की आहट के रूप में देखते हुए मजदूर पार्र्टी बनाने का आह्वान भी कर रहे हैं। परंतु इस आंदोलन का जो स्वरूप और स्वर है, उसके संदेश कुछ दूसरी ही दास्तान बयान कर रहे हैं। सड़कों पर उमड़ा युवाओं का यह जनसैलाब अपने भविष्य को लेकर फिक्रमंद है तो वहीं इसकी चिंता में अपने बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार को लेकर भी सवाल हैं, वे ऐसे बदलाव चहते हैं, जिनसे सरकार की सामाजिक जवाबदेही सुनिश्चित की जा सके, जिसमें एक प्रतिशत लोग देश के पूरे संसाधनों को हड़पने की नीतियां निर्धारित नहीं कर सके। इस आंदोलन में ऐसे कल्याण राज्य की बहाली की गंूज स्पष्ट सुनाई देती है जिसे रिपब्लिकन आक्रामकता के साथ और डेमोके्रट लोक-लुभावने झूठे नारों के साथ खारिज कर चुके हैं। इसीलिए ‘वॉल स्ट्रीट कब्जा करो’ आंदोलन को अमेरिका में एक नई राजनीतिक ताकत के उदय की आहट के रूप में देखा जा रहा है, मगर इस नई राजनीति का चरित्र मोराटोरियम बिल लाने वाली राष्ट्रवादी पार्टी या क्रांतिकारी लेबर पार्टी से इतर लैटिन अमेरिकी वाम रुझानों वाली सामाजिक जिम्मेदारियों के लिए प्रतिबद्ध जनवादी पार्टी का अधिक होगा, क्योंकि एक विकसित जनवाद से वापसी का कोई रास्ता नहीं होता है और इस आंदोलन एवं दुनिया भर में जारी नई राजनीतिक संरचनाओं की लड़ाई में अंतर्निहित एक संदेश स्पष्ट समझा जा सकता है कि जनवाद बराबरी के बगैर और बराबरी जनवाद के बगैर अधूरी होती है।
उदारवाद के नीति-निर्माता दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश को 1856 सरीखे सामाजिक विभाजन एवं संघर्षों की अवस्था में ले आए हैं। एक बनाम निन्यानवे प्रतिशत के नारों वाले आंदोलन से रेखांकित वर्तमान दौर का यह आर्थिक विभाजन 1856 में गृह युद्ध की स्थिति में फंसे अमेरिका के सामाजिक विभाजन से भी अधिक स्पष्ट, व्यापक है। यह पंूजीवाद के सबसे मजबूत किले के ढह जाने से कहीं ज्यादा पंूजीवादी राजनीतिक संरचनाओं में निर्णायक बदलावों और नई राजनीतिक धारा के विकास का अहम पड़ाव है।
दास स्वामियों के तुष्टिकरण और दास प्रथा विरोध पर बंटे अमेरिका में जून 1856 के मध्य में फिलाडेल्फिया के म्युजिकल फंड हॉल में रिपब्लिकन पार्टी का जन्म हुआ था। और उसके पहले राष्ट्रपति के रूप में 1860 में अब्राहम लिंकन निर्वाचित हुए। दरअसल अमेरिका आज फिर इसी प्रकार के विभाजन का गवाह बनने जा रहा है, परंतु इसमें एक गुणात्मक अंतर है। 1856 में अमेरिकी समाज जहां सामाजिक आधार पर और उत्तर-दक्षिण में भौगोलिक रूप से बंटा था, वहीं वर्तमान विभाजन आर्थिक और अमेरिका के हरेक राज्य, शहर और आबादी में देखा जा सकता है।
दरअसल समाज के विभाजन की यह पटकथा रेगन-थैचर द्वारा प्रतिपादित आर्थिक विकास के नए मॉडल ने रख दी थी, परंतु राष्ट्रपति के रूप में डेमोक्रेट ओबामा की विफलताओं ने इसे नए सामाजिक विस्फोट में रूपांतरित कर दिया, जो आज अमेरिका की सड़कों पर ‘वॉल स्ट्रीट कब्जा करो’ आंदोलन की शक्ल में दिखाई पड़ रहा है। आंदोलन की यह स्वत:स्फूर्त प्रवृत्ति आवारा वित्तीय पंूजी के अंतहीन लालच से जन्मी सामाजिक-आर्थिक विषमताओं, बढ़ती बेकारी और टूटते सपनों और बिखरती उम्मीदों से ऊर्जा पा रही है।
असल में, अमेरिका की वर्तमान दो दलीय व्यवस्था की शुरुआत 1860 से ही दिखाई पड़ती है, रिपब्लिकन पार्टी अपने मध्य से दक्षिणपंथी रुझानों के लिए जानी जाती है तो वहीं डेमोके्रट मध्य से वाम रुझानों और सामाजिक सरोकारों के लिए प्रतिबद्ध दल के रूप में। दोनों दलों का अपना जनाधार है। रिपब्लिकन अपने कट्टर पंूजीवादी रुझानों के लिए जाने जाते हैं तो वहीं डेमोक्रेट का आधार मध्यवर्ग, ट्रेड यूनियन और देश के प्रगतिशील तबकों में है। परंतु यही भूमंडलीकरण का चमत्कार है कि उसने इतनी विविधताओं वाले दोनों दलों को नीतियों के, विशेषकर आर्थिक नीतियों के स्तर पर एकाकार कर दिया। रिपब्लिकन पार्टी ने सेना और उद्योग गठजोड़ मॉडल को आक्रामक ढंग से बुशवाद की नई संकल्पना के रूप में आगे बढ़ाया तो वहीं ओबामा ने अपने जोशीले भाषणों में बुशवाद के मुखर विरोध को अपने राजनीतिक प्रचार का मुख्य एजेंडा बनाया। ओबामा के एजेंडे में जहां बुश की रिपब्लिकन नीतियों का कड़ा विरोध था तो वहीं युवाओं के लिए आउटसोर्सिंग पर रोक और रोजगार मुहैया कराने के लुभावने वायदे भी थे। देश की जनता विशेष तौर पर युवाओं को उस समय हताशा हुई, जब उन्होंने पाया कि अपने तमाम वायदों के बाद ओबामा भी अमेरिकी विकास के सैन्य उद्योग मॉडल का हिस्सा बनकर रह गए हैं। विकास के इसी मॉडल की तर्ज पर चलते हुए 2007-08 की मंदी से उबरने के लिए बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घरानों और वित्तीय संस्थानों को बेलआउट पैकेज देकर सरकार ने एक तरफ तो कॉर्पोरेट तिजोरियों को भरने का काम किया तो दूसरी तरफ बजट में खर्च कम करने के नाम पर मध्य वर्ग पर कटौती प्रस्तावों को थोपा। उदारवाद के इसी दोहरे व्यवहार से उपजी हताशा, डेमोक्रेट और ओबामा की विफलता ने अमेरिका के युवाओं को सड़कों पर आने और शेयर बाजार पर कब्जा करने की प्रेरणा दी।
विज्ञान-प्रौद्योगिकी, आर्थिक एवं सामाजिक संक्रमण के इस निर्णायक मोड़ पर रिपब्लिकन पार्टी की हार के बाद डेमोक्रेट पार्टी की विफलता के अमेरिकी राजनीति में बड़े गहरे अर्थ हैं। यह केवल राजनीतिक हार का आधार नहीं वरन अपने उस जनाधार को गंवा देना है, जिसके प्रतिनिधि के तौर पर डेमोक्रेट अपने देश और समाज में जाने जाते हैं। ऐसी स्थिति में इन तबकों को अपने लिए नए राजनीतिक प्रतिनिधियों की आवश्यकता फिर से महसूस हो रही है। अमेरिका के कई राजनीतिक विश्लेषक इन परिस्थितियों की तुलना 1856 में रिपब्लिकन पार्टी के पैदा होने की परिस्थितियों से कर रहे हैं। नई तीसरी पार्टी के उदय की भविष्यवाणी करने वाले मुख्यत: दो पक्ष हैं, एक वे राष्ट्रवादी जो आउटसोर्सिंग और विदेशी प्रवासी पेशवरों एवं कामगारों को अमेरिकी अर्थव्यवस्था की दुर्गति का कारण मानते हुए आउटसोर्सिंग और वर्क वीजा पर प्रतिबंध लगाने की बात करते हैं तो वहीं दूसरे वे ट्राटस्कीवादी एवं कुछ अतिवादी वामगुट, जो अति उत्साह में इसे वर्ग युद्ध और क्रांति की आहट के रूप में देखते हुए मजदूर पार्र्टी बनाने का आह्वान भी कर रहे हैं। परंतु इस आंदोलन का जो स्वरूप और स्वर है, उसके संदेश कुछ दूसरी ही दास्तान बयान कर रहे हैं। सड़कों पर उमड़ा युवाओं का यह जनसैलाब अपने भविष्य को लेकर फिक्रमंद है तो वहीं इसकी चिंता में अपने बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार को लेकर भी सवाल हैं, वे ऐसे बदलाव चहते हैं, जिनसे सरकार की सामाजिक जवाबदेही सुनिश्चित की जा सके, जिसमें एक प्रतिशत लोग देश के पूरे संसाधनों को हड़पने की नीतियां निर्धारित नहीं कर सके। इस आंदोलन में ऐसे कल्याण राज्य की बहाली की गंूज स्पष्ट सुनाई देती है जिसे रिपब्लिकन आक्रामकता के साथ और डेमोके्रट लोक-लुभावने झूठे नारों के साथ खारिज कर चुके हैं। इसीलिए ‘वॉल स्ट्रीट कब्जा करो’ आंदोलन को अमेरिका में एक नई राजनीतिक ताकत के उदय की आहट के रूप में देखा जा रहा है, मगर इस नई राजनीति का चरित्र मोराटोरियम बिल लाने वाली राष्ट्रवादी पार्टी या क्रांतिकारी लेबर पार्टी से इतर लैटिन अमेरिकी वाम रुझानों वाली सामाजिक जिम्मेदारियों के लिए प्रतिबद्ध जनवादी पार्टी का अधिक होगा, क्योंकि एक विकसित जनवाद से वापसी का कोई रास्ता नहीं होता है और इस आंदोलन एवं दुनिया भर में जारी नई राजनीतिक संरचनाओं की लड़ाई में अंतर्निहित एक संदेश स्पष्ट समझा जा सकता है कि जनवाद बराबरी के बगैर और बराबरी जनवाद के बगैर अधूरी होती है।
आपका निष्कर्ष सही है।
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