निगमीकृत विकास के लालच और सरकारी पक्षपात से आहत अधिसंख्य अमेरिकी समाज ‘वॉल स्ट्रीट कब्जा करो’ आंदोलन के साथ तेजी से एकजुट हो रहा है। यह विरोध आक्रोश की क्षणिक अभिव्यक्ति से कहीं अधिक नीतियों के विरोध का नवोच्चारण है। वास्तव में दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश की दुर्दशा के कई कारण हैं लेकिन उसकी आर्थिक नीतियां ऐसा कारण हैं जो पूरी दुनिया की अर्थपण्राली के लिए गंभीर खतरे की आहट है। पश्चिमी दुनिया का आर्थिक संकट, उससे निपटने के लिए सरकारों द्वारा लगातार कटौती उपायों की घोषणाएं और उद्वेलित जनता द्वारा तथाकथित मितव्ययता के उपायों का विरोध विकास की खगोलीय अवधारणा की विफलता के साथ ही वि अर्थपण्राली के लिए खतरे की नई दस्तक की तरह है। वैीकरण के दौर में आर्थिक, राजनीतिक समानता और समाज कल्याण की स्थिति अब बीते समय की बात हो चुकी है। ‘हम 99 प्रतिशत हैं’ आंदोलन का संदेश संभवत: अमेरिका में अब तक के आन्दोलनों में सबसे अधिक पूंजीवाद विरोधी है। स्वत:स्फूर्त आंदोलन का नेतृत्व उनके हाथ है जो कहते हैं कि वह न हिप्पी हैं, न अराजकतावादी, न वामपंथी परन्तु उन्हें अपने भविष्य और सामाजिक सुरक्षा की चिन्ता है। दरअसल, यह स्थापित कल्याण राज्य के खत्म होने और बाजार स्वामियों के अराजक हितों के टकराव और इन अथरें में पूंजीवादी अंतर्विरोध के उजागर होने का आंदोलन है। यह अंतर्विरोध ऋण संकट से उबरने के पश्चिमी दुनिया के उपायों में तेजी से सामने आ रहे हैं। भारी खर्च कटौती की शर्त पर समझौता करने वाले संरक्षणवाद के मुखर विरोधी बाजार अर्थव्यवस्था के अमेरिकी नीति निर्माता 2008 से अर्थव्यवस्थाओं को संकट से बचाने के लिए एकाधिकारी निगमों व बैंकों को बेलआउट पैकेज के रूप में अभूतपूर्व संरक्षणवादी उपायों का सहारा ले रहे हैं। दुनिया की सभी अर्थव्यवस्थाओं के वित्तीय संसाधनों का इस्तेमाल बाजार अर्थ पण्राली के स्वामियों के आर्थिक संकटों के निपटारे के लिए किया जा रहा है। वैीकरण के नीति निर्माता संकट के कारणों से अधिक पूरी बहस को संकट के उपायों पर केन्द्रित कर रहे हैं। ब्रिटेन, यूनान, स्पेन से लेकर इटली और पूर्वी यूरोप तक के सभी राजनेता और अर्थशास्त्री एक ही धुन पर एकजुटता के साथ कटौती गीत गा रहे हैं। मितव्ययता के नाम पर कटौती की इस मार ने मध्य वर्ग के स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार को बुरी तरह प्रभावित किया है। इन उपायों की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि इनका बोझ जहां मध्यवर्ग की जेब पर पड़ रहा है, वहीं कारपोरेट स्वामियों की दौलत में इजाफा हो रहा है। इस कारण पश्चिमी मध्यवर्ग की वास्तविक आय एवं सामाजिक सुरक्षा बुरी तरह प्रभावित हो रही है जिससे यह वर्ग लगातार उद्वेलित और आंदोलित हो रहा है। यह खर्च कटौती जहां मध्यवर्गीय कामगारों की आय और सामाजिक सुरक्षा ध्वस्त कर रही है वहीं बाजार स्वामियों और उच्च मध्यवर्ग के लिए समृद्धि का कारण भी बन रही है। जहां अमेरिका के शिक्षक, चिकित्सक, नर्स और दूसरे मध्यम वर्गीय कामगार अपनी आय पर होने वाले इस अप्रत्याशित हमले का प्रतिकार कर रहे हैं, वहीं देश के सबसे धनी व्यक्तियों की दौलत में पिछले 12 महीनों में 18 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। वास्तव में सरकारी खर्च में कटौती का अर्थ है आम आदमी की आय में कटौती, जो निश्चित ही मांग को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है। मांग में गिरावट का अर्थ है मांग-आपूर्ति का संतुलन बिगड़ना जो अर्थव्यवस्था में मंदी कारण बनता है। द्वितीय वियुद्ध के बाद केन्स के राजकीय हस्तक्षेप के सिद्धांत पर चलकर ही दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं ने 1930 की महामंदी से वापसी की थी। केन्स ने निजीकरण की अराजकता और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था नियमित करने के लिए राजकीय हस्तक्षेप की भूमिका रेखांकित की थी। लेकिन विकास की खगोलीय अवधारणा के पैराकार इस विरोधाभाषी संबंध को समझना ही नहीं चाहते कि वर्तमान संकट राजकीय व्यय के कारण नहीं, उनकी उत्पादन विरोधी पूंजी संचय की नीतियों के कारण हैं। दरअसल, ग्लोबल वित्त पूंजी की आवारगी पर टिका यह विकास का गुब्बारा पूंजी के ग्लोबल स्वामियों और राष्ट्र राज्यों की सत्ता के गठजोड़ पर खड़ा है। जहां वित्त पूंजी से पूंजी निर्माण की ऐसी व्यवस्था को संरक्षण दिया जा रहा है जो उत्पादक शक्तियों के विकास की राह में विध्वंसक ढंग से अवरोध खड़े कर रही है। परन्तु वैीकरण के समर्थक अब नए उपायों से होने वाले लाभ से इतने अभिभूत हैं कि वे आर्थिक संकट के कारणों पर नहीं, कटौती उपायों पर ही बात करना चाहते हैं और यही पश्चिमी दुनिया के वर्तमान संकट का मुख्य कारण है।
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