महेश राठी
नौ महीने पहले तहरीर चौक से शुरू हुआ जनवाद और आजादी का बसंत निराशा और असंतोष के पतझड़ में बदल गया है। यह मिस्र की क्रांति की विडंबना ही है कि उसने देश की सत्ता एक निरंकुश फौजी शासन से दूसरे फौजी शासन को सौंप दी, होस्नी मुबारक सत्ता से बेदखल हो गए, मगर मिस्र में अभी तक मुबारक की ही सत्ता है। तहरीर चौक पर फिर से उमड़ा जनाक्रोश संभवतया दुनिया का ऐसा पहला इंकलाब होगा, जो अपने चोरी हो गए इंकलाब की वापसी के लिए दोबारा उठ खड़ा हुआ है।
असैनिक सरकार को सत्ता हस्तांतरित करने की मांग को लेकर 18 नवंबर से मिस्र का तहरीर स्क्वॉयर फिर से ‘आजादी..आजादी...’ के नारों में डूब चुका है। छह माह में सत्ता असैनिक सरकार को सौंपने के वादे के साथ होस्नी मुबारक के बेदखल होने के बाद सैन्य काउंसिल ने मिस्र की सत्ता संभाली थी, परंतु नौ माह बीत जाने के बाद भी देश की सत्ता अभी तक सेना के हाथों में ही है। सरकार के अहम पदों पर वही सब लोग काबिज हैं, जो लोग कल तक होस्नी मुबारक के गुनाहों में बराबर के भागीदार थे और जिन्होंने मुबारक से वफादारी जाहिर करते हुए तीस वर्षों तक रहे दमन के शासन में मुख्य भूमिका अदा की थी। ऐसी स्थिति में जनवाद और आजादी के लिए लडऩे वाली मिस्र की जनता अपने आपको ठगा-सा महसूस कर रही थी। शंकाओं की गहरी धुंध के बीच मिस्र के जनवाद और आजादी चाहने वाले लोग अपने इंकलाब को बचाने के लिए फिर से तहरीर स्क्वॉयर पर जमा हुए हैं। 18 नवंबर शुक्रवार को जब इस आंदोलन की शुरुआत हुई तो उनकी संख्या लगभग पांच हजार थी, मगर जिस प्रकार सैनिक सरकार ने इस विरोध से निपटने की कोशिशें कीं, उसने पुराने होस्नी मुबारक के दमनकारी शासन की यादें ताजा कर दी, जिससे यह आंदोलन अलेक्जेड्रिया और आसवान जैसे देश के दूसरे शहों में भी फैल गया। मिस्र में शुरू हुई इस दूसरी क्रांति में अभी तक 35 के लगभग लोग मारे जा चुके हैं और सत्रह सौ से ज्यादा घायल हुए है। हालांकि नए विरोध प्रदर्शनों के बाद एस्साम शर्राफ के नेतृत्व वाले कैबिनेट ने इस्तीफा दे दिया, परंतु आंदोलकारी सैन्य काउंसिल को तत्काल सत्ता नागरिकों को सौंपने की मांग कर रहे है। असल में आंदोलनकारी बेशक नागरिकों को सत्ता सौंपने की मांग कर रहे हों, लेकिन मिस्र की क्रांति और उसमें शामिल शक्तियों के अंतर्विरोध इतने व्यापक और गहरे हैं कि इसके मुकाम तक पंहुचने की संभावनाओं पर अभी तक भी शंकाओं के गहरे बादल छाए हुए हैं।
मिस्र की इस श्वेत क्रांति की कोई निश्चित दिशा और सर्वमान्य नेतृत्व का अभाव ही इस क्रांति की बड़ी विडंबना है। स्वत:स्फूर्त ढंग से शुरू हुई मिस्र की क्रांति के पास कभी अपनी राजनीतिक दिशा और कोई संगठन नहीं था, जो क्रांति की अगुवाई का दावा कर सके। यही कारण था कि शुरुआती दौर में नेतृत्व के लिए अलबरदई का नाम जोरों से उठा, मगर अलबरदई के नाम की त्रासदी यह थी कि वह मुबारक से भी अधिक पश्चिमपरस्त है, इसीलिए एक सीमा से आगे उनके नाम पर भी कभी सहमति नहीं बन पाई। इस आंदोलन में सबसे अधिक प्रभाव रखने वाली शक्ति मुस्लिम ब्रदरहुड है, जिसका अपना धार्मिक आस्थाओं के आधार वाला संगठन भी है एवं फ्रीडम और जस्टिस पार्टी नामक राजनीतिक दल भी।
दरअसल, मुस्लिम ब्रदरहुड एक ऐसा कट्टरपंथी सांप्रदायिक संगठन है, जिसका बेहद विवादास्पद और काला इतिहास रहा है। हालांकि यह संगठन आजकल अपने आपके मोडरेट और जनवादी हो जाने के दावे कर रहा है, परंतु इस संगठन की आधुनिकता भी इसकी रूढि़वादिता से ज्यादा दूर नहीं है। जनवादी हो जाने के बावजूद भी मुस्लिम ब्रदरहुड को नेतृत्वकारी भूमिका में कोई अल्पसंखक ईसाई, शिया मुस्लिम या महिला मंजूर नहीं है। असल में मुस्लिम ब्रदरहुड का आधुनिक चेहरा पोशाक और भाषा की आधुनिकता से अधिक कुछ नहीं है, जिसका अंतिम लक्ष्य आज भी शरीया कानून वाला इस्लामी राष्ट्र ही है। मिस्र का सबसे संगठित विपक्ष मुस्लिम ब्रदरहुड बेशक इस आंदोलन का स्वयंभू नेता होने की कवायद में लगा रहे, मगर यह भी वास्तविकता ही है कि इस बगावत का आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष रूप उसकी जड़ मानसिकता और भविष्य के सांप्रदायिक इरादों से मेल नहीं खा रहा है। इसके अलावा इस ट्विटर क्रांति में शामिल ट्रेड यूनियन इसका दूसरा संगठित हिस्सा है। पड़ोसी देश ट्यूनीशिया के विद्रोह में अहम भूमिका अदा करने वाली छह लाख की सदस्यता वाली ट्रेड यूनियन यूजीटीटी जहां एक व्हाईट कॉलर मजदूर यूनियन थी, जिसने बिन अली की सत्ता उखाडऩे में प्रमुख भूमिका अदा की तो वहीं चालीस लाख सदस्यों वाली मिस्र की इटीयूएफ सही अर्थों में देश के सभी मजदूर तबकों का प्रतिनिधित्व करने के बावजूद होस्नी मुबारक की समर्थक एवं सहयोगी के तौर पर जानी जाती रही है। इन स्थापित विपक्षी धाराओं से हटकर सही अर्थों में जनवादी धर्मनिरपेक्ष सूचना प्रौद्योगिकी से लैस नवोदित मध्यम वर्ग है, जिसकी त्रासदी यह है कि वह आधुनिक भी है और जनवादी व धर्मनिरपेक्ष भी मगर उसकी अपनी कोई स्थापित राजनीति और संगठन नहीं है।
वास्तव में यदि सैन्य काउंसिल सत्ता का हस्तांतरण करती भी है तो जाहिर है उसका सबसे अधिक लाभ मुस्लिम ब्रदरहुड सरीखे संगठनों को ही मिलने वाला, जो मिस्र की क्रांति और पूरे अरब जगत के लिए एक नई चुनौती होगी। बहरहाल, इतना तय है कि मिस्र की जनता की आजादी और जनवाद की तलाश न उसकी पहली क्रांति से पूरी हुई है और न ही खोई हुई क्रांति की तलाश के इस नए अभियान से खत्म होने जा रही है। परंतु इस पूरे परिदृश्य में एक सकारात्मक तथ्य यह है कि मिस्र की जनता ने आवाम की ताकत को पहचान कर सड़कों पर आना और आंदोलन करना सीख लिया है।
नौ महीने पहले तहरीर चौक से शुरू हुआ जनवाद और आजादी का बसंत निराशा और असंतोष के पतझड़ में बदल गया है। यह मिस्र की क्रांति की विडंबना ही है कि उसने देश की सत्ता एक निरंकुश फौजी शासन से दूसरे फौजी शासन को सौंप दी, होस्नी मुबारक सत्ता से बेदखल हो गए, मगर मिस्र में अभी तक मुबारक की ही सत्ता है। तहरीर चौक पर फिर से उमड़ा जनाक्रोश संभवतया दुनिया का ऐसा पहला इंकलाब होगा, जो अपने चोरी हो गए इंकलाब की वापसी के लिए दोबारा उठ खड़ा हुआ है।
असैनिक सरकार को सत्ता हस्तांतरित करने की मांग को लेकर 18 नवंबर से मिस्र का तहरीर स्क्वॉयर फिर से ‘आजादी..आजादी...’ के नारों में डूब चुका है। छह माह में सत्ता असैनिक सरकार को सौंपने के वादे के साथ होस्नी मुबारक के बेदखल होने के बाद सैन्य काउंसिल ने मिस्र की सत्ता संभाली थी, परंतु नौ माह बीत जाने के बाद भी देश की सत्ता अभी तक सेना के हाथों में ही है। सरकार के अहम पदों पर वही सब लोग काबिज हैं, जो लोग कल तक होस्नी मुबारक के गुनाहों में बराबर के भागीदार थे और जिन्होंने मुबारक से वफादारी जाहिर करते हुए तीस वर्षों तक रहे दमन के शासन में मुख्य भूमिका अदा की थी। ऐसी स्थिति में जनवाद और आजादी के लिए लडऩे वाली मिस्र की जनता अपने आपको ठगा-सा महसूस कर रही थी। शंकाओं की गहरी धुंध के बीच मिस्र के जनवाद और आजादी चाहने वाले लोग अपने इंकलाब को बचाने के लिए फिर से तहरीर स्क्वॉयर पर जमा हुए हैं। 18 नवंबर शुक्रवार को जब इस आंदोलन की शुरुआत हुई तो उनकी संख्या लगभग पांच हजार थी, मगर जिस प्रकार सैनिक सरकार ने इस विरोध से निपटने की कोशिशें कीं, उसने पुराने होस्नी मुबारक के दमनकारी शासन की यादें ताजा कर दी, जिससे यह आंदोलन अलेक्जेड्रिया और आसवान जैसे देश के दूसरे शहों में भी फैल गया। मिस्र में शुरू हुई इस दूसरी क्रांति में अभी तक 35 के लगभग लोग मारे जा चुके हैं और सत्रह सौ से ज्यादा घायल हुए है। हालांकि नए विरोध प्रदर्शनों के बाद एस्साम शर्राफ के नेतृत्व वाले कैबिनेट ने इस्तीफा दे दिया, परंतु आंदोलकारी सैन्य काउंसिल को तत्काल सत्ता नागरिकों को सौंपने की मांग कर रहे है। असल में आंदोलनकारी बेशक नागरिकों को सत्ता सौंपने की मांग कर रहे हों, लेकिन मिस्र की क्रांति और उसमें शामिल शक्तियों के अंतर्विरोध इतने व्यापक और गहरे हैं कि इसके मुकाम तक पंहुचने की संभावनाओं पर अभी तक भी शंकाओं के गहरे बादल छाए हुए हैं।
मिस्र की इस श्वेत क्रांति की कोई निश्चित दिशा और सर्वमान्य नेतृत्व का अभाव ही इस क्रांति की बड़ी विडंबना है। स्वत:स्फूर्त ढंग से शुरू हुई मिस्र की क्रांति के पास कभी अपनी राजनीतिक दिशा और कोई संगठन नहीं था, जो क्रांति की अगुवाई का दावा कर सके। यही कारण था कि शुरुआती दौर में नेतृत्व के लिए अलबरदई का नाम जोरों से उठा, मगर अलबरदई के नाम की त्रासदी यह थी कि वह मुबारक से भी अधिक पश्चिमपरस्त है, इसीलिए एक सीमा से आगे उनके नाम पर भी कभी सहमति नहीं बन पाई। इस आंदोलन में सबसे अधिक प्रभाव रखने वाली शक्ति मुस्लिम ब्रदरहुड है, जिसका अपना धार्मिक आस्थाओं के आधार वाला संगठन भी है एवं फ्रीडम और जस्टिस पार्टी नामक राजनीतिक दल भी।
दरअसल, मुस्लिम ब्रदरहुड एक ऐसा कट्टरपंथी सांप्रदायिक संगठन है, जिसका बेहद विवादास्पद और काला इतिहास रहा है। हालांकि यह संगठन आजकल अपने आपके मोडरेट और जनवादी हो जाने के दावे कर रहा है, परंतु इस संगठन की आधुनिकता भी इसकी रूढि़वादिता से ज्यादा दूर नहीं है। जनवादी हो जाने के बावजूद भी मुस्लिम ब्रदरहुड को नेतृत्वकारी भूमिका में कोई अल्पसंखक ईसाई, शिया मुस्लिम या महिला मंजूर नहीं है। असल में मुस्लिम ब्रदरहुड का आधुनिक चेहरा पोशाक और भाषा की आधुनिकता से अधिक कुछ नहीं है, जिसका अंतिम लक्ष्य आज भी शरीया कानून वाला इस्लामी राष्ट्र ही है। मिस्र का सबसे संगठित विपक्ष मुस्लिम ब्रदरहुड बेशक इस आंदोलन का स्वयंभू नेता होने की कवायद में लगा रहे, मगर यह भी वास्तविकता ही है कि इस बगावत का आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष रूप उसकी जड़ मानसिकता और भविष्य के सांप्रदायिक इरादों से मेल नहीं खा रहा है। इसके अलावा इस ट्विटर क्रांति में शामिल ट्रेड यूनियन इसका दूसरा संगठित हिस्सा है। पड़ोसी देश ट्यूनीशिया के विद्रोह में अहम भूमिका अदा करने वाली छह लाख की सदस्यता वाली ट्रेड यूनियन यूजीटीटी जहां एक व्हाईट कॉलर मजदूर यूनियन थी, जिसने बिन अली की सत्ता उखाडऩे में प्रमुख भूमिका अदा की तो वहीं चालीस लाख सदस्यों वाली मिस्र की इटीयूएफ सही अर्थों में देश के सभी मजदूर तबकों का प्रतिनिधित्व करने के बावजूद होस्नी मुबारक की समर्थक एवं सहयोगी के तौर पर जानी जाती रही है। इन स्थापित विपक्षी धाराओं से हटकर सही अर्थों में जनवादी धर्मनिरपेक्ष सूचना प्रौद्योगिकी से लैस नवोदित मध्यम वर्ग है, जिसकी त्रासदी यह है कि वह आधुनिक भी है और जनवादी व धर्मनिरपेक्ष भी मगर उसकी अपनी कोई स्थापित राजनीति और संगठन नहीं है।
वास्तव में यदि सैन्य काउंसिल सत्ता का हस्तांतरण करती भी है तो जाहिर है उसका सबसे अधिक लाभ मुस्लिम ब्रदरहुड सरीखे संगठनों को ही मिलने वाला, जो मिस्र की क्रांति और पूरे अरब जगत के लिए एक नई चुनौती होगी। बहरहाल, इतना तय है कि मिस्र की जनता की आजादी और जनवाद की तलाश न उसकी पहली क्रांति से पूरी हुई है और न ही खोई हुई क्रांति की तलाश के इस नए अभियान से खत्म होने जा रही है। परंतु इस पूरे परिदृश्य में एक सकारात्मक तथ्य यह है कि मिस्र की जनता ने आवाम की ताकत को पहचान कर सड़कों पर आना और आंदोलन करना सीख लिया है।
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