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शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

भ्रष्ट व्यवस्था की यही तो रीढ़ हैं

महेश राठी
 मजबूत लोकपाल को लेकर संसद में बनी सहमति संप्रग सरकार की कोशिशों से टूटती दिखाई पड़ रही है। स्थायी समिति का वर्तमान लोकपाल प्रारूप संभवतया पुराने सरकारी प्रारूप से अधिक जुदा नही होगा। स्थायी समिति के अध्यक्ष अभिषेक मनु सिंघवी और स्थायी समिति में प्रतिपक्ष के सदस्यों के बयानों से लोकपाल प्रारूप पर असहमतियों के लगातार संकेत मिल रहे हैं। सरकार ग्रुप-सी और डी के कर्मचारियों से लेकर प्रधानमंत्री और सीबीआइ को लोकपाल के दायरे से बाहर रखना चाहती है। वास्तव में पहले जहां सरकार एक बेहद लचर लोकपाल से वर्तमान भ्रष्ट व्यवस्था के बचाव की राह तैयार कर रही थी, वहीं अब संप्रग सरकार लोकपाल को टुकड़ों में बांटकर लोकपाल व्यवस्था को लागू होने से पहले ही एक बेहद निष्प्रभावी व्यवस्था में बदल देना चाहती है। अब टीम अन्ना और प्रतिपक्ष के विरोधी स्वरों के बीच वर्तमान लोकपाल प्रारूप की असहमतियों पर सहमति के एक दस्तावेज के रूप में ही संसद के सामने आने की आशंका बनती दिख रही है। दरअसल, लोकपाल पर वर्तमान विवाद की शुरुआत सी वर्ग के कर्मचारियों को लोकपाल में शामिल करने को लेकर हुई है। पहले स्थायी समिति में सी वर्ग के कर्मचारियों को लेकर सहमति बन गई थी, लेकिन कांग्रेस कोर ग्रुप की बैठक के बाद स्थायी समिति के अध्यक्ष ने अचानक एक आपातकालीन बैठक बुलाकर सी वर्ग के कर्मचारियों को लोकपाल से बाहर करने का फरमान जारी कर दिया। स्थायी समिति अध्यक्ष के इस यू टर्न ने ही नए विवाद को जन्म दिया। अभी तक जहां बहस का विषय प्रधानमंत्री और सीबीआइ को लोकपाल के दायरे में लाना था, अब अचानक पूरी बहस सी वर्ग के कर्मचारियों पर केंद्रित हो गई है। सी ग्रुप के कर्मचारियों पर सरकार और विपक्ष के अपने-अपने तर्क हैं। सरकार जहां ग्रुप-सी के कर्मचारियों की बड़ी संख्या का हवाला देकर इस वर्ग को लोकपाल से बाहर रखना चाहती है, वहीं विपक्ष का तर्क है कि ऐसी स्थिति में भ्रष्टाचार विरोधी व्यवस्था बेमानी और निष्प्रभावी हो जाएगी। असल में देश में केंद्रीय कर्मचारियों की कुल संख्या साठ लाख के लगभग है और इसमें ए और बी वर्ग के कर्मचारी महज दो लाख सत्तर हजार ही हैं, बाकी 57 लाख से ज्यादा कर्मचारी सी और डी वर्ग से ही आते हैं। इस सी और डी वर्ग के कर्मचारियों में भी पांचवां और छठा वेतन आयोग लागू होने के बाद अधिकतर कर्मचारी सी वर्ग में पदोन्नत हो चुके हैं यानी अर्थात सी वर्ग के कर्मचारियों की ही संख्या देश में सबसे अधिक है। सी वर्ग कर्मचारियों में ही वह निरीक्षक और सरकारी दफ्तरों के एलडीसी और यूडीसी आते हैं, जो भ्रष्ट व्यवस्था का चेहरा और रीढ़ होते हैं। अगर इसी वर्ग के कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे से बाहर कर दिया जाता है तो भ्रष्टाचार की रीढ़ तोड़ने की यह सरकारी कवायद कागजी तमाशा भर बनकर रह जाएगी। जन वितरण प्रणाली का भ्रष्टाचार हो या मनरेगा का, यही सी वर्ग कर्मचारी इस पूरे भ्रष्टाचार के वे सूत्रधार हैं, जिनकी कड़ी ऊपर के ए, बी वर्ग की नौकरशाही के साथ ही शीर्ष सत्ता की राजनीति तक जुड़ी होती है। जमीनी स्तर पर आम आदमी भ्रष्ट तंत्र का शिकार इसी सी वर्ग की नौकरशाही की कोशिशों से होता है। हालांकि सी वर्ग को लोकपाल से अलग कर देने के सरकार के अपने तर्क हैं। सी और डी वर्ग के केंद्रीय कर्मचारियों की साठ लाख की बड़ी संख्या वास्तव में लोकपाल की व्यवस्था और त्वरित जांच व कार्यवाही के लिए भविष्य में बड़ी बाधा बन सकती है। सूचना अधिकार कानून की प्रक्रिया और उसकी सुनवाई में होने वाली देरी इसका एक सटीक उदाहरण है। सरकार ने ग्रुप सी के कर्मचारियों को लोकपाल से बाहर करने की बात तो कही, लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया कि सी और डी वर्ग के भ्रष्टाचार से निपटने की कौन-सी प्रभावी व्यवस्था होगी और यदि ए, बी, सी और डी वर्ग की नौकरशाही भ्रष्टाचार के एक ही नेटवर्क का हिस्सा हो तो उस नेटवर्क में लिप्त सभी ए, बी, सी और डी वर्ग की नौकरशाही की एक साथ जांच की जिम्मेदारी किसकी होगी? दरअसल स्थायी समिति की ऐसी आधी-अधूरी अनुशंसाएं सरकार की नीयत पर गंभीर सवाल खडे़ करती हैं। सरकार अगर चाहे तो सूचना अधिकार कानून पर बढ़ते बोझ और मिलने वाली सूचना में देरी के अनुभव से सीखकर भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने के लिए लोकपाल को अधिक प्रभावी और तेज गति से जांच एवं कार्यवाही करने वाली व्यवस्था बना सकती है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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