महेश राठी
डरबन में जलवायु परिवर्तन पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन खत्म हुआ। निर्धारित समय सीमा से छत्तीस घंटे अधिक चले इस सम्मेलन में बदलती बिगड़ती जलवायु को दुरुस्त करने की कोई पहल नहीं दिखी। पर्यावरण के लिए प्रतिबद्धताओं और गरीब देशों के प्रति करुणामय शब्दों के मुलम्मों से मढ़ी बहसों के बीच अपने हित साधने के लिए कोपेनहेगन से शुरू हुई औद्योगिक देशों की चालाक रणनीति डरबन में एक बार फिर सफल हुई। तमाम विवादों के बाद अंतिम समय में बनी सर्वसम्मति डरबन जलवायु परिवर्तन सम्मेलन की ऐसी उपलब्धि है, जिससे दुनिया को कुछ खास हासिल नहीं हुआ।
अमेरिका के नेतृत्व में विकसित देशों पर कार्बन उत्सर्जन को थामने की वैधानिक बाध्यता को रोकने की चालबाजी कोई नई व पहली नहीं थी। दिसंबर 1997 में जापान के क्योटो शहर में 150 देशों के प्रतिनिधियों ने एकत्र होकर एक प्रोटोकॉल तैयार किया, जिसे क्योटो प्रोटोकॉल के नाम से जाना जाता है।
यह प्रोटोकॉल विकसित, औद्योगिक और कुछ मध्य यूरोपीय देशों को 2012 तक 1990 के स्तर से 6 से 8 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन घटाने के लिए कानूनी रूप से बाध्य बनाता था। इस प्रोटोकॉल को कानून बनाने के लिए 55 प्रतिशत औद्योगिक देशों के अनुमोदन की आवश्यकता थी, परंतु अमेरिका सहित कनाडा, जापान और ऑस्ट्रेलिया सरीखे उसके तमाम सहयोगी देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल को कानून बनने से रोकने के लिए रुकावटबाजों की भूमिका ही अदा की। तीन महीने की लंबी बहस के बाद 2002 में कनाडा और फरवरी 2005 में रूसी अनुमोदन के बाद ही क्योटो प्रोटोकॉल कानूनी रूप ले सका।
विफलताओं के इन सम्मेलनों में कोपेनहेगन की एक मुख्य भूमिका थी, क्योंकि कोपेनहेगन ने जहां एक तरफ दूसरे बाध्यकारी प्रोटोकॉल को बनने से रोकने की दिशा में काम किया तो वहीं तीसरी दुनिया के देशों को भी दो भागों में बांटकर रख दिया था। एक तरफ भारत और चीन के नेतृत्व में बेसिक देश थे तो दूसरी कतार में अल्पविकसित और द्वीपीय देशों का गठजोड़ था। दुनिया के इस विभाजन की स्पष्टता और इसके अंतर्विरोधों की गूंज डरबन में पूरी मुखरता और स्पष्टता से सुनाई देती रही।
भारत ने अपना एवं तेजी से विकसित हो रही विकासशील अर्थव्यवस्थाओं का पक्ष बड़े लंबे समय के बाद इतनी दृढ़ता से रखा कि यूरोपीय संघ और तमाम विकसित देशों के लिए वह बड़ी परेशानी का सबब बन गया। भारत के इस न्यायोचित रुख को यूरोपीय संघ द्वारा बड़ा विवाद बनाकर इसे रुकावट के रूप में पेश करने की कोशिश की गई।
इस खतरे की रचना में जिन विकसित देशों का सबसे बड़ा योगदान है वो अपनी ऐतिहासिक जवाबदेही से बचने के लिए तमाम चालबाजी और रणनीति का सहारा ले रहे हैं। दशकों से जारी कार्बन उत्सर्जन के कारण जो संकट आज दुनिया के सामने है, वह एक अनुमान के अनुसार 2016 तक महाविनाश का रूप धारण कर चुका होगा।
वैसे डरबन सम्मेलन के बाद से भारत और बेसिक देशों की चुनौतियां भी बढ़ गई हैं, उन्हें तीसरी दुनिया के देशों को एकजुट करते हुए जलवायु परिवर्तन की इस मुहिम को ऐसे हल की ओर ले जाना होगा, जिसमें गरीब देशों के अस्तित्व का बचाव भी हो और अमीरो के हितों पर नियंत्रण भी अन्यथा दुनिया के अमीर देश भारत को एक बड़ा रुकावटबाज सिद्ध करके अपने हितों की पूर्ति करने की कोपेनहेगन रणनीति में सफल हो जाएंगे।
डरबन में जलवायु परिवर्तन पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन खत्म हुआ। निर्धारित समय सीमा से छत्तीस घंटे अधिक चले इस सम्मेलन में बदलती बिगड़ती जलवायु को दुरुस्त करने की कोई पहल नहीं दिखी। पर्यावरण के लिए प्रतिबद्धताओं और गरीब देशों के प्रति करुणामय शब्दों के मुलम्मों से मढ़ी बहसों के बीच अपने हित साधने के लिए कोपेनहेगन से शुरू हुई औद्योगिक देशों की चालाक रणनीति डरबन में एक बार फिर सफल हुई। तमाम विवादों के बाद अंतिम समय में बनी सर्वसम्मति डरबन जलवायु परिवर्तन सम्मेलन की ऐसी उपलब्धि है, जिससे दुनिया को कुछ खास हासिल नहीं हुआ।
अमेरिका के नेतृत्व में विकसित देशों पर कार्बन उत्सर्जन को थामने की वैधानिक बाध्यता को रोकने की चालबाजी कोई नई व पहली नहीं थी। दिसंबर 1997 में जापान के क्योटो शहर में 150 देशों के प्रतिनिधियों ने एकत्र होकर एक प्रोटोकॉल तैयार किया, जिसे क्योटो प्रोटोकॉल के नाम से जाना जाता है।
यह प्रोटोकॉल विकसित, औद्योगिक और कुछ मध्य यूरोपीय देशों को 2012 तक 1990 के स्तर से 6 से 8 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन घटाने के लिए कानूनी रूप से बाध्य बनाता था। इस प्रोटोकॉल को कानून बनाने के लिए 55 प्रतिशत औद्योगिक देशों के अनुमोदन की आवश्यकता थी, परंतु अमेरिका सहित कनाडा, जापान और ऑस्ट्रेलिया सरीखे उसके तमाम सहयोगी देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल को कानून बनने से रोकने के लिए रुकावटबाजों की भूमिका ही अदा की। तीन महीने की लंबी बहस के बाद 2002 में कनाडा और फरवरी 2005 में रूसी अनुमोदन के बाद ही क्योटो प्रोटोकॉल कानूनी रूप ले सका।
विफलताओं के इन सम्मेलनों में कोपेनहेगन की एक मुख्य भूमिका थी, क्योंकि कोपेनहेगन ने जहां एक तरफ दूसरे बाध्यकारी प्रोटोकॉल को बनने से रोकने की दिशा में काम किया तो वहीं तीसरी दुनिया के देशों को भी दो भागों में बांटकर रख दिया था। एक तरफ भारत और चीन के नेतृत्व में बेसिक देश थे तो दूसरी कतार में अल्पविकसित और द्वीपीय देशों का गठजोड़ था। दुनिया के इस विभाजन की स्पष्टता और इसके अंतर्विरोधों की गूंज डरबन में पूरी मुखरता और स्पष्टता से सुनाई देती रही।
भारत ने अपना एवं तेजी से विकसित हो रही विकासशील अर्थव्यवस्थाओं का पक्ष बड़े लंबे समय के बाद इतनी दृढ़ता से रखा कि यूरोपीय संघ और तमाम विकसित देशों के लिए वह बड़ी परेशानी का सबब बन गया। भारत के इस न्यायोचित रुख को यूरोपीय संघ द्वारा बड़ा विवाद बनाकर इसे रुकावट के रूप में पेश करने की कोशिश की गई।
इस खतरे की रचना में जिन विकसित देशों का सबसे बड़ा योगदान है वो अपनी ऐतिहासिक जवाबदेही से बचने के लिए तमाम चालबाजी और रणनीति का सहारा ले रहे हैं। दशकों से जारी कार्बन उत्सर्जन के कारण जो संकट आज दुनिया के सामने है, वह एक अनुमान के अनुसार 2016 तक महाविनाश का रूप धारण कर चुका होगा।
वैसे डरबन सम्मेलन के बाद से भारत और बेसिक देशों की चुनौतियां भी बढ़ गई हैं, उन्हें तीसरी दुनिया के देशों को एकजुट करते हुए जलवायु परिवर्तन की इस मुहिम को ऐसे हल की ओर ले जाना होगा, जिसमें गरीब देशों के अस्तित्व का बचाव भी हो और अमीरो के हितों पर नियंत्रण भी अन्यथा दुनिया के अमीर देश भारत को एक बड़ा रुकावटबाज सिद्ध करके अपने हितों की पूर्ति करने की कोपेनहेगन रणनीति में सफल हो जाएंगे।
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