महेश राठी
वर्तमान भारतीय राजनीति संक्रमण के बेहद नाटकीय दौर से गुजर रही है। एक तरफ खासकर शहरी मध्य वर्ग और सिविल सोसायटी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उद्वेलित और आंदोलित दिखाई पड़ती है तो वहीं भारतीय समाज के बहुमत हिस्से की राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों को लगता है कि भ्रष्टाचार एक बेमानी सवाल है। वास्तव में भारतीय समाज बेशक भ्रष्टाचार से त्रस्त है परंतु यह भी कठोर वास्तविकता है कि समाज के अधिकांश हिस्सों पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक तबकों के लिए आज भी आर्थिक अनियमितताओं से कहीं बड़े उनके सामाजिक संास्कृतिक सवाल हैं। पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यकों के सामाजिक सांस्कृतिक सवाल इस त्रासद अंतर्विरोध का आधार तैयार कर रहे हैं।
भारतीय समाज का यह विरोधाभासी संबंध हमारे समाज की बंटी हुई आकांक्षाओं, आशाओं और अवसरों का सीधा अनुवाद है। वर्तमान सामाजिक संरचनाओं में जहां एक वर्ग विशेष के सवाल विकास और उपलब्ध अवसरों को सुगमता और ईमानदारी से पाने का है तो वहीं समाज के बहुसंख्यक भाग के मुद्दे समाजिक न्याय और समानता का है। दलित पिछड़े और अल्पसंख्यकों का संघर्ष सत्ता और संसाधनों के बंटवारे की व्यवस्था उसके ढांचे में उपयुक्त प्रतिनिधित्व पाने का है। दो वर्गों की आकांक्षाओं और आवश्यकताओं का यही वर्गीय भेद इस भ्रष्टाचार विरोधी अभियान से टकराव की पृष्ठभूमि तैयार कर चुका है। इस टकराव की गूंज आज की राजनीतिक घटनाओं में लागातर सुनाई देती रहती है, जब 2जी घोटाला उजागर हुआ तो यही टकराव तर्क बनकर सामने आया, ए राजा के 2जी घोटाले में जेल जाने के बाद उनकी पार्टी ने इसे तमिलनाडु में दलित विरोधी कदम के रूप में प्रचारित करने की कोशिश की। यही तर्क भारतीय राजनीति का दलित चेहरा बनी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री पर लगने वाले आरोपों के संदर्भ में भी दिया जाता रहा है और इस तर्क की सबसे ताजा बानगी भाजपा और कुशवाहा मामले में भी सुनी गई। वास्तव में ये तर्क बंटे हुए बेहद जटिलताओं और विषमताओं वाले भारतीय समाज की ही कठोर वास्तविकता है। यदि समाज के एक हिस्से के लिए विकास और उसकी सुलभता प्राथमिक है तो वहीं समाज का बड़े हिस्से का पहला, अंतिम और निर्णायक सवाल अपने अस्तित्व और आत्मसम्मान का है।
इसी आत्मसम्मान और आत्म गौरव को जब उस समाज का नेता हासिल करता है तो उस समाज विशेष के लिए उस गौरव की प्राप्ति का तरीका कोई अर्थ नहीं रखता है। उसे उच्च वर्ग या वर्ण के मुकाबले खड़ी अपने नेताओं की मूर्तियों में गौरव का एहसास होता है और यह एहसास उस समय भी अपने चरम पर होता है जब उसका नेता हजारों सालों से स्थापित सामाजिक संरचनाओं को शीर्षासन कराते हुए उच्च वर्ण प्रतिनिधियों को अपने सामने जमीन पर बैठने को विवश करता है। दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यकों विशेषतया मुस्लिम अल्पसंख्यकों में कमोबेश यही स्थिति बनी हुई है, आजादी के छह दशक बाद भी आज तक जनसंख्या के इस बड़े हिस्से का संघर्ष सामाजिक गतिविधियों में अपनी समान भागीदारी सुनिश्चित करने का ही है। इसी कारण इन तबको में जब कोई बाहुबली अथवा धनवान इनका प्रतिनिधि बनकर उभरता है तो ये उपेक्षित समुदाय उसके संरक्षण में अपने आपको सुरक्षित महसूस करते हैं। इसी नई जागृति ने वर्तमान भारतीय राजनीति में बाहुबलियों, नव धनाढयों, जातिवादियों और सांप्रदायिक विषवमन करने वाले नेताओं को राजनीति और सत्ता में स्थापित होने का कारण और स्थान दिया है। केंद्र से लेकर राज्यों और स्थानीय निकायों तक हर स्तर पर ऐसे बाहुबलियों और धनवानों की लगातार बढ़ती संख्या देखी जा सकती है।
विकास की नई भूमंडलीय अवधारण ने भी राजनीति के इस नए चेहरे को और अधिक कुरूप करने का काम किया है जिसके अपने कई कारण है। चंूकि कॉरपोरेट विकास की वर्तमान अवस्था में किसी प्रकार के आरक्षण के लिए कोई स्थान नहीं होता है इसीलिए विकास की वर्तमान अवधारणा ने सामाजिक न्याय के लिए लंबे समय से जारी आरक्षण जैसी व्यवस्था के लिए भी एक नई चुनौती खड़ी करने का काम किया है।
आरक्षण के लिए नए खतरे ने इस संवैधानिक सुविधा से लाभान्वित हो रही जातियों और समुदायों के सामने नए तरह के संघर्ष के सवाल खड़े कर दिए हैं। अवसरों को सीमित करके छह दशक से जो विषमता की खाई अभी तक बनी हुई थी, भूमंडलीकरण ने उसको बड़ा करने का काम करके सामाजिक समता के सवालों को एक नया आयाम दिया है।
भूमंडलीकरण ने जहां कमजोर तबकों के लिए अवसरों को सीमित करने का काम किया है वही संवैधानिक सुविधा आरक्षण ने दलित और पिछड़ों को सत्ता में भागीदारी का मौका देकर एक क्रीमी लेयर का निर्माण किया है। यही क्रीमी लेयर भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को परोक्ष रूप से दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक विरोधी कहती है।
दरअसल सवाल एकदम साफ है कि यह लोकतंत्र और भारतीय राजनीति की उस चूक को रेखांकित करता है जिसने सामाजिक न्याय और समानता की लड़ाई को वोट बैंक बनाने की लड़ाई में बदल दिया और इसी कारण आज भ्रष्टाचार के खिलाफ एक आवश्यक लड़ाई को दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक विरोधी कहा जा रहा है। हालांकि समाज के उच्च वर्ग के संघर्षों का मुद्दा यदि विकास के सुलभ और ईमानदार बंटवारे का है तो वहीं ऐतिहासिक रूप से दबे-कुचले बहुमत हिस्से का सवाल समुचित प्रतिनिधित्व वाली नई सामाजिक राजनीतिक संरचनाओं का है।
वर्तमान भारतीय राजनीति संक्रमण के बेहद नाटकीय दौर से गुजर रही है। एक तरफ खासकर शहरी मध्य वर्ग और सिविल सोसायटी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उद्वेलित और आंदोलित दिखाई पड़ती है तो वहीं भारतीय समाज के बहुमत हिस्से की राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों को लगता है कि भ्रष्टाचार एक बेमानी सवाल है। वास्तव में भारतीय समाज बेशक भ्रष्टाचार से त्रस्त है परंतु यह भी कठोर वास्तविकता है कि समाज के अधिकांश हिस्सों पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक तबकों के लिए आज भी आर्थिक अनियमितताओं से कहीं बड़े उनके सामाजिक संास्कृतिक सवाल हैं। पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यकों के सामाजिक सांस्कृतिक सवाल इस त्रासद अंतर्विरोध का आधार तैयार कर रहे हैं।
भारतीय समाज का यह विरोधाभासी संबंध हमारे समाज की बंटी हुई आकांक्षाओं, आशाओं और अवसरों का सीधा अनुवाद है। वर्तमान सामाजिक संरचनाओं में जहां एक वर्ग विशेष के सवाल विकास और उपलब्ध अवसरों को सुगमता और ईमानदारी से पाने का है तो वहीं समाज के बहुसंख्यक भाग के मुद्दे समाजिक न्याय और समानता का है। दलित पिछड़े और अल्पसंख्यकों का संघर्ष सत्ता और संसाधनों के बंटवारे की व्यवस्था उसके ढांचे में उपयुक्त प्रतिनिधित्व पाने का है। दो वर्गों की आकांक्षाओं और आवश्यकताओं का यही वर्गीय भेद इस भ्रष्टाचार विरोधी अभियान से टकराव की पृष्ठभूमि तैयार कर चुका है। इस टकराव की गूंज आज की राजनीतिक घटनाओं में लागातर सुनाई देती रहती है, जब 2जी घोटाला उजागर हुआ तो यही टकराव तर्क बनकर सामने आया, ए राजा के 2जी घोटाले में जेल जाने के बाद उनकी पार्टी ने इसे तमिलनाडु में दलित विरोधी कदम के रूप में प्रचारित करने की कोशिश की। यही तर्क भारतीय राजनीति का दलित चेहरा बनी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री पर लगने वाले आरोपों के संदर्भ में भी दिया जाता रहा है और इस तर्क की सबसे ताजा बानगी भाजपा और कुशवाहा मामले में भी सुनी गई। वास्तव में ये तर्क बंटे हुए बेहद जटिलताओं और विषमताओं वाले भारतीय समाज की ही कठोर वास्तविकता है। यदि समाज के एक हिस्से के लिए विकास और उसकी सुलभता प्राथमिक है तो वहीं समाज का बड़े हिस्से का पहला, अंतिम और निर्णायक सवाल अपने अस्तित्व और आत्मसम्मान का है।
इसी आत्मसम्मान और आत्म गौरव को जब उस समाज का नेता हासिल करता है तो उस समाज विशेष के लिए उस गौरव की प्राप्ति का तरीका कोई अर्थ नहीं रखता है। उसे उच्च वर्ग या वर्ण के मुकाबले खड़ी अपने नेताओं की मूर्तियों में गौरव का एहसास होता है और यह एहसास उस समय भी अपने चरम पर होता है जब उसका नेता हजारों सालों से स्थापित सामाजिक संरचनाओं को शीर्षासन कराते हुए उच्च वर्ण प्रतिनिधियों को अपने सामने जमीन पर बैठने को विवश करता है। दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यकों विशेषतया मुस्लिम अल्पसंख्यकों में कमोबेश यही स्थिति बनी हुई है, आजादी के छह दशक बाद भी आज तक जनसंख्या के इस बड़े हिस्से का संघर्ष सामाजिक गतिविधियों में अपनी समान भागीदारी सुनिश्चित करने का ही है। इसी कारण इन तबको में जब कोई बाहुबली अथवा धनवान इनका प्रतिनिधि बनकर उभरता है तो ये उपेक्षित समुदाय उसके संरक्षण में अपने आपको सुरक्षित महसूस करते हैं। इसी नई जागृति ने वर्तमान भारतीय राजनीति में बाहुबलियों, नव धनाढयों, जातिवादियों और सांप्रदायिक विषवमन करने वाले नेताओं को राजनीति और सत्ता में स्थापित होने का कारण और स्थान दिया है। केंद्र से लेकर राज्यों और स्थानीय निकायों तक हर स्तर पर ऐसे बाहुबलियों और धनवानों की लगातार बढ़ती संख्या देखी जा सकती है।
विकास की नई भूमंडलीय अवधारण ने भी राजनीति के इस नए चेहरे को और अधिक कुरूप करने का काम किया है जिसके अपने कई कारण है। चंूकि कॉरपोरेट विकास की वर्तमान अवस्था में किसी प्रकार के आरक्षण के लिए कोई स्थान नहीं होता है इसीलिए विकास की वर्तमान अवधारणा ने सामाजिक न्याय के लिए लंबे समय से जारी आरक्षण जैसी व्यवस्था के लिए भी एक नई चुनौती खड़ी करने का काम किया है।
आरक्षण के लिए नए खतरे ने इस संवैधानिक सुविधा से लाभान्वित हो रही जातियों और समुदायों के सामने नए तरह के संघर्ष के सवाल खड़े कर दिए हैं। अवसरों को सीमित करके छह दशक से जो विषमता की खाई अभी तक बनी हुई थी, भूमंडलीकरण ने उसको बड़ा करने का काम करके सामाजिक समता के सवालों को एक नया आयाम दिया है।
भूमंडलीकरण ने जहां कमजोर तबकों के लिए अवसरों को सीमित करने का काम किया है वही संवैधानिक सुविधा आरक्षण ने दलित और पिछड़ों को सत्ता में भागीदारी का मौका देकर एक क्रीमी लेयर का निर्माण किया है। यही क्रीमी लेयर भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को परोक्ष रूप से दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक विरोधी कहती है।
दरअसल सवाल एकदम साफ है कि यह लोकतंत्र और भारतीय राजनीति की उस चूक को रेखांकित करता है जिसने सामाजिक न्याय और समानता की लड़ाई को वोट बैंक बनाने की लड़ाई में बदल दिया और इसी कारण आज भ्रष्टाचार के खिलाफ एक आवश्यक लड़ाई को दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक विरोधी कहा जा रहा है। हालांकि समाज के उच्च वर्ग के संघर्षों का मुद्दा यदि विकास के सुलभ और ईमानदार बंटवारे का है तो वहीं ऐतिहासिक रूप से दबे-कुचले बहुमत हिस्से का सवाल समुचित प्रतिनिधित्व वाली नई सामाजिक राजनीतिक संरचनाओं का है।
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