महेश राठी
मेमोगेट प्रकरण के उजागर होने के बाद से पाकिस्तान अजीब राजनीतिक असमंजस और अस्थिरता के चौराहे पर खड़ा है। निर्वाचित नागरिक सरकार सेना और न्यायपालिका से टकराव के कारण गंभीर संकट में फंस चुकी है। 1958 के बाद से कई तख्तापलट और सैनिक तानाशाही के साक्षी पाकिस्तान के लिए सेना और सरकार का यह टकराव कोई नई घटना नहीं है, लेकिन पुराने राजनीतिक हालात और वर्तमान घटनाक्रम में कुछ गुणात्मक अंतर जरूर है। इस बार मजबूत पाकिस्तानी सेना के सामने जनवाद के पक्ष में व्यापक जनाकांक्षाओं की चुनौती है तो वहीं सशक्त न्यायपालिका का एक तीसरा पक्ष है और साथ ही सेना के समर्थन को लेकर अमेरिकी अनिश्चय की स्थिति भी। फिर भी पाकिस्तान के पूरे राजनीतिक परिदृश्य पर अभी तक सेना और आइएसआइ ही हावी है। पाकिस्तान का वर्तमान संकट बेशक मेमोगेट कांड से शुरू हुआ दिखाई दे रहा है, लेकिन वास्तविकता यह है कि इस संकट की पटकथा पाकिस्तान में सेना और नागरिक सरकार के लगातार संघर्षो और अपने हितों के लिए निरंतर जारी कूटनीतिक चालों ने तैयार की है। अपने नकारात्मक रुझान के कारण दुनिया भर में कुख्यात पाकिस्तान कई सामानांतर सत्ताओं वाला एक अनोखा देश है। ऐसा देश, जिसमें निर्वाचित नागरिक सरकार की सत्ता के साथ ही उससे कहीं मजबूत सत्ता के तौर पर संप्रभु सेना की मौजूदगी है और सेना की गुप्तचर संस्था आइएसआइ के दुष्चक्रों वाला संगठन भी और इनके साथ ही देश भर में फैले कट्टरपंथी और सांप्रदायिक संगठनों के व्यापक जाल की सामानांतर सत्ता भी। बेशक, मौजूदा संकट की जड़ में मेमोगेट कांड को रेखांकित किया जा रहा हो, लेकिन वास्तव में मेमोगेट से कहीं ज्यादा बड़ा कारण अमेरिका द्वारा एबटाबाद में आतंकी सरगना ओसामा बिन लादेन का सफाया रहा है। पाकिस्तानी सेना के एक बडे़ ठिकाने में छिपकर बैठे ओसामा का जिस तरह अमेरिकी कमांडोज ने सफाया किया, वह पाकिस्तानी सेना को शर्मसार और दुनिया को स्तब्ध कर देने वाली घटना थी। इसका पाकिस्तानी सेना के पास कोई न्यायोचित स्पष्टीकरण नहीं था। पाकिस्तानी सेना ने इसे अपने देश की संप्रभुता पर हमला बताकर भले ही अमेरिका पर जवाबी हमला करने की कोशिश की हो, लेकिन यह तय है कि इसने पाकिस्तानी सरकार से कहीं अधिक सेना को रक्षात्मक मुद्रा में धकेल दिया। मेमोगेट प्रकरण के उजागर होने के बाद सरकार को घेरने का एक स्वर्णिम मौका सेना को मिल गया, जिसमें सेना सरकार को दबाव में लेकर सत्ता पर काबिज हो सकती थी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी व अमेरिका के बीच साठगांठ को उजागर करते हुए देश में बने अमेरिका विरोधी वातावरण का राजनीतिक लाभ भी ले सकती थी। सेना ने अंततोगत्वा यही दांव चलते हुए अपनी रणनीति तैयार कर डाली। सत्ता संघर्षो का यही अंतद्र्वद्व पाकिस्तान के संकट को नई हवा दे रहा है, जिसमें सभी प्रमुख खिलाड़ी अपने हितों के अनुसार दांव चल रहे हैं। पाकिस्तान मुस्लिम लीग के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ सरकार को घेरकर राजनीतिक लाभ लेना चाहते हैं। नवाज शरीफ के पास अपने चिर प्रतिद्वंद्वी दल पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और 1990 तक नवाज शरीफ के करीबी रहे हुसैन हक्कानी की राजनीतिक घेरेबंदी का इससे सुनहरा मौका कोई दूसरा नहीं हो सकता था। इसी कारण नवाज शरीफ मेमोगेट कांड की जांच की मांग लेकर सुप्रीम कोर्ट पंहुच गए और सुप्रीम कोर्ट ने जांच के लिए सरकार को नोटिस जारी कर दिया। न्यायपालिका के इस दखल ने सेना की रणनीति को मजबूती प्रदान करने का निर्णायक मौका तो दिया ही, साथ ही न्यायपालिका और सेना के गठजोड़ और सहयोग की पटकथा भी लिख दी। हालांकि सेना और न्यायपालिका के गठजोड़ की यह कोई नई घटना नहीं है। इससे पहले भी जस्टिस सज्जाद अली के कार्यकाल में सरकार विरोधी ऐसा गठजोड़ सामने आ चुका है। तहरीके इंसाफ पार्टी के मुखिया इमरान खान के लिए भी यह संकट नए अवसर लेकर आया है। पश्चिमी जीवनशैली में पले बढ़े और क्रिकेटर से राजनेता बने तहरीके इंसाफ पार्टी के मुखिया इमरान खान जिंदगी में एक बडे़ यू-टर्न के साथ आजकल पाकिस्तानी कट्टरपंथ का मॉडरेट चेहरा बनकर चर्चाओं में हैं। पाकिस्तान के ताजा हालात में इमरान खान इन दिनों जहां बदली हुई परिस्थतियों में सत्ताधारी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के प्रति आक्रामक दिखाई पड़ रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ वह सेना के तख्तापलट की आशंकाओं का भी जमकर विरोध करते दिखते हैं। इमरान खान राष्ट्रपति जरदारी पर हमला करते हुए सेना से भी दूरी बनाकर नए विकल्प के तौर पर पाकिस्तान की राजनीति में उभरने की कवायद में लगे हैं, लेकिन कट्टरपंथी जमात के बीच आधुनिक चेहरे के तौर पर उनकी राजनीति में भी कई अड़चनें हैं। कई सामानांतर सत्ताओं वाले पाकिस्तान की विडंबनाओं का यहीं अंत नहीं है। एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन के सफाए के बाद पाकिस्तान और अमेरिका के सबंधों में कड़वाहट बेशक दिखाई दी हो, लेकिन सच्चाई यह है कि पाकिस्तान में अब भी अमेरिका की इच्छा के खिलाफ सत्ता परिवर्तन की कल्पना मुश्किल है। दोनों देशों के बीच तमाम कड़वाहट और खटास के बावजूद अमेरिका की पाकिस्तानी प्रशासन और सेना के मामलों में दखलअंदाजी और कथित तौर पर आतंक के खिलाफ लड़ाई में सहयोग कुछ रस्मी विरोध के साथ ही सही, बदस्तूर जारी है। बात आतंकवाद फैलाकर अपना वर्चस्व बनाने की हो या आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई अभियान की, पाक हमेशा अमेरिका का सहयोगी रहा है। सत्तर के दशक के अंत से अभी तक पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ अमेरिकी सीआइए की आतंकी रणनीति का मुख्य औजार रही है। आतंक के खिलाफ कथित युद्ध की घोषणा के बावजूद अमेरिका और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसियों का यह सहयोगी रिश्ता बना हुआ है। कश्मीर में आतंकी घुसपैठ के सवाल और ईरान में आतंकी गुटों को हवा देने के अभियान पर अमेरिकी प्रशासन और खुफिया एजेंसी की सहयोगात्मक खामोशी दोनों देशों की गुप्तचर संस्थाओं के आपसी जिंदा रिश्तों को रेखांकित करती है। यही कारण है कि जहां अमेरिका की पाकिस्तानी राजनीति में गहरी पैठ है, वहीं पाक की सेना पर भी उसकी मजबूत पकड़ है। दरअसल, वर्तमान परिस्थितियों में अमेरिका को पाकिस्तान में एक जनसर्मथन और जनवादी चेहरे वाले गठबंधन की जरूरत है, किसी सैन्य सत्ता की नहीं। नई जनवादी संरचनाओं की मांग को लेकर चल रहे आंदोलनों के इस दौर में पाकिस्तान में कोई भी सैन्य सत्ता अमेरिकी हितों पर गहरा कुठाराघात ही होगा। पाकिस्तान की यही सबसे बड़ी विडंबना है कि इसमें कितनी ही समानांतर सत्ताएं बनी रहें, उनका वास्तविक नियंत्रण देश के बाहर ही रहेगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
मेमोगेट प्रकरण के उजागर होने के बाद से पाकिस्तान अजीब राजनीतिक असमंजस और अस्थिरता के चौराहे पर खड़ा है। निर्वाचित नागरिक सरकार सेना और न्यायपालिका से टकराव के कारण गंभीर संकट में फंस चुकी है। 1958 के बाद से कई तख्तापलट और सैनिक तानाशाही के साक्षी पाकिस्तान के लिए सेना और सरकार का यह टकराव कोई नई घटना नहीं है, लेकिन पुराने राजनीतिक हालात और वर्तमान घटनाक्रम में कुछ गुणात्मक अंतर जरूर है। इस बार मजबूत पाकिस्तानी सेना के सामने जनवाद के पक्ष में व्यापक जनाकांक्षाओं की चुनौती है तो वहीं सशक्त न्यायपालिका का एक तीसरा पक्ष है और साथ ही सेना के समर्थन को लेकर अमेरिकी अनिश्चय की स्थिति भी। फिर भी पाकिस्तान के पूरे राजनीतिक परिदृश्य पर अभी तक सेना और आइएसआइ ही हावी है। पाकिस्तान का वर्तमान संकट बेशक मेमोगेट कांड से शुरू हुआ दिखाई दे रहा है, लेकिन वास्तविकता यह है कि इस संकट की पटकथा पाकिस्तान में सेना और नागरिक सरकार के लगातार संघर्षो और अपने हितों के लिए निरंतर जारी कूटनीतिक चालों ने तैयार की है। अपने नकारात्मक रुझान के कारण दुनिया भर में कुख्यात पाकिस्तान कई सामानांतर सत्ताओं वाला एक अनोखा देश है। ऐसा देश, जिसमें निर्वाचित नागरिक सरकार की सत्ता के साथ ही उससे कहीं मजबूत सत्ता के तौर पर संप्रभु सेना की मौजूदगी है और सेना की गुप्तचर संस्था आइएसआइ के दुष्चक्रों वाला संगठन भी और इनके साथ ही देश भर में फैले कट्टरपंथी और सांप्रदायिक संगठनों के व्यापक जाल की सामानांतर सत्ता भी। बेशक, मौजूदा संकट की जड़ में मेमोगेट कांड को रेखांकित किया जा रहा हो, लेकिन वास्तव में मेमोगेट से कहीं ज्यादा बड़ा कारण अमेरिका द्वारा एबटाबाद में आतंकी सरगना ओसामा बिन लादेन का सफाया रहा है। पाकिस्तानी सेना के एक बडे़ ठिकाने में छिपकर बैठे ओसामा का जिस तरह अमेरिकी कमांडोज ने सफाया किया, वह पाकिस्तानी सेना को शर्मसार और दुनिया को स्तब्ध कर देने वाली घटना थी। इसका पाकिस्तानी सेना के पास कोई न्यायोचित स्पष्टीकरण नहीं था। पाकिस्तानी सेना ने इसे अपने देश की संप्रभुता पर हमला बताकर भले ही अमेरिका पर जवाबी हमला करने की कोशिश की हो, लेकिन यह तय है कि इसने पाकिस्तानी सरकार से कहीं अधिक सेना को रक्षात्मक मुद्रा में धकेल दिया। मेमोगेट प्रकरण के उजागर होने के बाद सरकार को घेरने का एक स्वर्णिम मौका सेना को मिल गया, जिसमें सेना सरकार को दबाव में लेकर सत्ता पर काबिज हो सकती थी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी व अमेरिका के बीच साठगांठ को उजागर करते हुए देश में बने अमेरिका विरोधी वातावरण का राजनीतिक लाभ भी ले सकती थी। सेना ने अंततोगत्वा यही दांव चलते हुए अपनी रणनीति तैयार कर डाली। सत्ता संघर्षो का यही अंतद्र्वद्व पाकिस्तान के संकट को नई हवा दे रहा है, जिसमें सभी प्रमुख खिलाड़ी अपने हितों के अनुसार दांव चल रहे हैं। पाकिस्तान मुस्लिम लीग के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ सरकार को घेरकर राजनीतिक लाभ लेना चाहते हैं। नवाज शरीफ के पास अपने चिर प्रतिद्वंद्वी दल पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और 1990 तक नवाज शरीफ के करीबी रहे हुसैन हक्कानी की राजनीतिक घेरेबंदी का इससे सुनहरा मौका कोई दूसरा नहीं हो सकता था। इसी कारण नवाज शरीफ मेमोगेट कांड की जांच की मांग लेकर सुप्रीम कोर्ट पंहुच गए और सुप्रीम कोर्ट ने जांच के लिए सरकार को नोटिस जारी कर दिया। न्यायपालिका के इस दखल ने सेना की रणनीति को मजबूती प्रदान करने का निर्णायक मौका तो दिया ही, साथ ही न्यायपालिका और सेना के गठजोड़ और सहयोग की पटकथा भी लिख दी। हालांकि सेना और न्यायपालिका के गठजोड़ की यह कोई नई घटना नहीं है। इससे पहले भी जस्टिस सज्जाद अली के कार्यकाल में सरकार विरोधी ऐसा गठजोड़ सामने आ चुका है। तहरीके इंसाफ पार्टी के मुखिया इमरान खान के लिए भी यह संकट नए अवसर लेकर आया है। पश्चिमी जीवनशैली में पले बढ़े और क्रिकेटर से राजनेता बने तहरीके इंसाफ पार्टी के मुखिया इमरान खान जिंदगी में एक बडे़ यू-टर्न के साथ आजकल पाकिस्तानी कट्टरपंथ का मॉडरेट चेहरा बनकर चर्चाओं में हैं। पाकिस्तान के ताजा हालात में इमरान खान इन दिनों जहां बदली हुई परिस्थतियों में सत्ताधारी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के प्रति आक्रामक दिखाई पड़ रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ वह सेना के तख्तापलट की आशंकाओं का भी जमकर विरोध करते दिखते हैं। इमरान खान राष्ट्रपति जरदारी पर हमला करते हुए सेना से भी दूरी बनाकर नए विकल्प के तौर पर पाकिस्तान की राजनीति में उभरने की कवायद में लगे हैं, लेकिन कट्टरपंथी जमात के बीच आधुनिक चेहरे के तौर पर उनकी राजनीति में भी कई अड़चनें हैं। कई सामानांतर सत्ताओं वाले पाकिस्तान की विडंबनाओं का यहीं अंत नहीं है। एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन के सफाए के बाद पाकिस्तान और अमेरिका के सबंधों में कड़वाहट बेशक दिखाई दी हो, लेकिन सच्चाई यह है कि पाकिस्तान में अब भी अमेरिका की इच्छा के खिलाफ सत्ता परिवर्तन की कल्पना मुश्किल है। दोनों देशों के बीच तमाम कड़वाहट और खटास के बावजूद अमेरिका की पाकिस्तानी प्रशासन और सेना के मामलों में दखलअंदाजी और कथित तौर पर आतंक के खिलाफ लड़ाई में सहयोग कुछ रस्मी विरोध के साथ ही सही, बदस्तूर जारी है। बात आतंकवाद फैलाकर अपना वर्चस्व बनाने की हो या आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई अभियान की, पाक हमेशा अमेरिका का सहयोगी रहा है। सत्तर के दशक के अंत से अभी तक पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ अमेरिकी सीआइए की आतंकी रणनीति का मुख्य औजार रही है। आतंक के खिलाफ कथित युद्ध की घोषणा के बावजूद अमेरिका और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसियों का यह सहयोगी रिश्ता बना हुआ है। कश्मीर में आतंकी घुसपैठ के सवाल और ईरान में आतंकी गुटों को हवा देने के अभियान पर अमेरिकी प्रशासन और खुफिया एजेंसी की सहयोगात्मक खामोशी दोनों देशों की गुप्तचर संस्थाओं के आपसी जिंदा रिश्तों को रेखांकित करती है। यही कारण है कि जहां अमेरिका की पाकिस्तानी राजनीति में गहरी पैठ है, वहीं पाक की सेना पर भी उसकी मजबूत पकड़ है। दरअसल, वर्तमान परिस्थितियों में अमेरिका को पाकिस्तान में एक जनसर्मथन और जनवादी चेहरे वाले गठबंधन की जरूरत है, किसी सैन्य सत्ता की नहीं। नई जनवादी संरचनाओं की मांग को लेकर चल रहे आंदोलनों के इस दौर में पाकिस्तान में कोई भी सैन्य सत्ता अमेरिकी हितों पर गहरा कुठाराघात ही होगा। पाकिस्तान की यही सबसे बड़ी विडंबना है कि इसमें कितनी ही समानांतर सत्ताएं बनी रहें, उनका वास्तविक नियंत्रण देश के बाहर ही रहेगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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