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बुधवार, 7 मार्च 2012

आरक्षण के नाम पर जातिवादी संघषर्



महेश राठी
हरियाणा के हिसार में फिर से अंगड़ाई ले रहा आरक्षण का आन्दोलन सामाजिक समानता की न्यायिक मांग से कहीं ज्यादा अंदरूनी जाट राजनीति और समाजिक वर्चस्व की लड़ाई का ऐसा भावनात्मक मुद्दा है जो नए सामाजिक संघर्ष की जमीन तैयार कर रहा है। आरक्षण दलित, आदिवासियों और पिछड़ी जातियों को अनुपातिक प्रतिनिधित्व देकर समाजिक समानता की ओर ले जाने की राह का एक माध्यम भर है। केवल आरक्षण ही इस सामाजिक न्याय की संपूर्ण व्याख्या या व्यवस्था नहीं है। इस पर भी यदि पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा का उदाहरण देखें तो यहां की स्थिति एकदम भिन्न है। यहां सवाल अनुपातिक प्रतिनिधित्व से कहीं अधिक अपने समाजिक प्रभुत्व को बनाऐ रखने का है और आरक्षण की यह मांग भी उसी प्रभुत्व को बनाऐ रखने की एक समुदाय विशेष की रणनीति ही दिखाई देती है। वास्तव में यदि देखा जाए तो आरक्षण और आरक्षण के लिए संघर्ष अब नई तरह की समाजिक अवस्था में प्रवेश कर चुका है। भूमंडलीकरण के इस दौर में जब सरकारी नौकरियों की संभावनाएं प्रतिदिन सीमित हो रही हैं, तब हरियाण और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में संसाधनों पर काबिज जातियों का आक्रामक आंदोलन एक जाति विषेश की लामबंदी के राजनीतिक नारे से अधिक कुछ दिखाई नहीं देता। इन अथरेंमें आरक्षण सामाजिक न्याय की मांग न होकर एक तरह के राजनीतिक जातिवाद और उसकी शक्तियों का प्रदर्शन बनकर रह गया है। असल में इस राजनीतिक जातिवाद को दिशाहीन लोकतान्त्रिक विकास की एक विसंगति के रूप में भी देखा जाना चाहिए। क्योंकि यह जनवादी व्यवस्था में वोट की राजनीति के लिए सामुदायिक ध्रुवीकरण से ही पैदा होता है। वोट की राजनीति के कारण ही पहचान की राजनीति और उसकी खेमेबंदी का जन्म होता है जो अन्ततोगत्वा एक प्रकार के राजनीतिक जातिवाद में परिवर्तित होता है। जिस प्रकार इस राजनीतिक जातिवाद का सहारा लेकर राजस्थान में कर्नल बैंसला या किरोड़ीमल मीणा नेता बन बैठे हैं, तो यह उदाहरण हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ सुविधा संपन्न नवधनाढ्य जाटों को भी ऐसे आन्दोलन के नेतृत्व के लिए प्रेरित कर रहा है। वास्तव में हरियाणा के इस आरक्षण आंदोलन की पृष्ठभूमि में जाट वर्चस्व, जाट राजनीति के अंदरूनी समीकरण और परंपरागत दबंगई की मानसिकता सरीखे कई पहलू हैं। हरियाणा में भजनलाल युग के खात्मे से सत्ता की लड़ाई दो जाट क्षत्रपों तक ही केन्द्रित हो चुकी है। जिस कारण हरियाणा की पूरी राजनीति जाटों की खेमेबंदी के समीकरणों में उलझ कर रह गई है। इसी कारण जाटों का यह राजनीतिक जातिवाद एक अलग रूप व ऊंचाई पर दिखाई दे रहा है। आरक्षण का यह आन्दोलन केन्द्र सरकार के खिलाफ जाए या राज्य सरकार के, इतना तय है कि इसका नुकसान जाटों के नेता के तौर पर स्थापित होने की कोशिश कर रहे वर्तमान जाट मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा को ही होगा। इसके आलोक में ओमप्रकाश चौटाला की खामोशी के भी निहितार्थ हैं। यदि आरक्षण के इस आंदोलन की कमान चौटाला परिवार प्रत्यक्ष तौर पर संभालता तो जाटों में दो फाड़ निश्चित था। चौटाला की खामोशी कम से कम आरक्षण पर जाटों की एकता सुनिश्चित कर रही है। हरियाणा में सत्ता और विपक्ष दोनों तरफ जाट नेता हैं और एक के सत्ता गंवाने का अर्थ है दूसरे को सत्ता की गारंटी। आरक्षण आंदोलन की उग्रता में जाति विषेश की दबंगई की मानसिकता और उसको मिल रही चुनौतियां भी हैं। जाट हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दबंग जाति के रूप में जानी जाती है और इन क्षेत्रों का प्रत्येक वर्ग और समुदाय इस तथ्य का साक्षी है। परन्तु अब एक बदलते समाज में इनकी दबंगई को लगातार चुनौतियां भी मिल रही हैं जिसके कारण जाटों में एक प्रकार की व्याकुलता जरूर है। यही व्याकुलता इस उग्र आंदोलन के लिए ऊर्जा का काम कर रही है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के आसपास कुछ जातियों की राजधानी को बंधक बनाने की क्षमता, स्थिति एवं समय समय पर उससे मिलने वाला प्रतिफल भी इस प्रकार के आंदोलनों के लिए ऊर्जा का काम करता है। दरअसल राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में कुछ खास दबंग जातियों ने अपनी इसी क्षमता के कारण ब्लैकमेलिंग की एक नई राजनीति ईजाद की है। इसका ताजातरीन उदाहरण है हाल में मथुरा में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ शुरू हुआ आंदोलन जिससे सत्ता से लेकर विपक्ष तक हर रंग की राजनीति चिन्तित हो गई और देश के सभी नेता मथुरा दौड़ पड़े। उधर अपनी जमीन बचाने के लिए उड़ीसा में जारी पॉस्को आंदोलन की सुध लेने की फुर्सत किसी को नही। असल में राजधानी से करीबी और राजधानी को बंधक बनाने की क्षमता इस ब्लैकमेलिंग की राजनीति को बेहद रास आ रही है। कभी दिल्ली का पानी रोक देने, कभी दूध बन्द कर देने और कभी दिल्ली को चारों तरफ से सील करने की दबंग धमकियां इन उत्पातियों का प्रमुख औजार हैं। दिल्ली की जीवनरेखा ध्वस्त करने की इनकी ताकत ही इनके प्रदर्शनों की जीवनशक्ति है, जिसके सामने सरकार देर-सबेर झुकती भी है। परन्तु ब्लैकमेलिंग की इस प्रकार की अराजक राजनीति का फैलाव राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में सबसे बड़ी बाधा है जो अंततोगत्वा दश में एक नए प्रकार की राजनीतिक अव्यवस्था और खुली गुंडागर्दी की नई परंपरा की राह तैयार करेगा। वास्तव में यह स्थितियां व्यापक सांस्कृतिक और समाजिक आंदोलनों के अभाव एवं वाम जनवादी आंदोलनों में आए भटकाव के कारण भी हैं। यदि प्रगतिशील शक्तियां बगैर वस्तुगत स्थितियां जाने और विश्लेषण किए अपनी विचारधारा एक फार्मूले की तरह अजमाते हुए राजनीति करेंगी तो वह भी एक किस्म के संकीर्णतावाद का शिकार होगीं। बगैर सामाजिक संरचना का विश्लेशण किए सामाजिक सवालों से बचकर इन क्षेत्रों में आर्थिक आधार पर वर्ग संघर्ष की बात बेमानी है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब के ये इलाके ऐसे हैं, जहां परंपरागत विश्लेषणों से हटकर वस्तुगत स्थिति के अनुसार कुछ नई पहल करने की आवश्यकता है। यहां आर्थिक से अधिक सामाजिक सवाल प्रमुख हैं।

1 टिप्पणी:

  1. "सांस्कृतिक और समाजिक आंदोलनों के अभाव एवं वाम जनवादी आंदोलनों में आए भटकाव के कारण भी हैं। यदि प्रगतिशील शक्तियां बगैर वस्तुगत स्थितियां जाने और विश्लेषण किए अपनी विचारधारा एक फार्मूले की तरह अजमाते हुए राजनीति करेंगी तो वह भी एक किस्म के संकीर्णतावाद का शिकार होगीं। बगैर सामाजिक संरचना का विश्लेशण किए सामाजिक सवालों से बचकर इन क्षेत्रों में आर्थिक आधार पर वर्ग संघर्ष की बात बेमानी है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब के ये इलाके ऐसे हैं, जहां परंपरागत विश्लेषणों से हटकर वस्तुगत स्थिति के अनुसार कुछ नई पहल करने की आवश्यकता है। यहां आर्थिक से अधिक सामाजिक सवाल प्रमुख हैं।"

    आपका निष्कर्ष बिलकुल सही है,किन्तु बाम जनवादी शकतिया सही रास्ते पर आए इसके लिए राष्ट्रीय कान्फरेंस मे प्रयास करने की कृपा करे।

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