महेश राठी
राजनीति जब मूल्यों को छोड़ अवसरवादिता का दामन थामती है तो वह जनाकांक्षाओं की नहीं, व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति का औजार बन जाती है। इस पर भी यदि राजनीति अव्यावहारिक और बचकाने प्रयोगों का केंद्र बन जाए तो वह अस्थिरता और संघर्षों के नए दौर की पटकथा लिख सकती है। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और अव्यावहारिक प्रयोगात्मकता की इसी राजनीति का नतीजा है कि चुनाव परिणामों के बाद उत्तराखंड की राजनीतिक अनिश्चितता कांग्रेस में उठे तूफान के शांत होने के साथ ही बेशक थमती नजर आ रही हो, परंतु कई दिनों तक चली इस उथल-पुथल ने राज्य की राजनीति में सामाजिक और क्षेत्रीय संघर्षों को जन्म देने वाली विभाजन की स्थायी लकीरें खींच दी हैं।
उत्तराखंड में कांग्रेस की आंशिक जीत के अहसास को पार्टी में सत्ता के लिए मचे घमासान ने ऐसे विभाजक दर्द में बदल दिया हैं जो न प्रदेश की जनता के लिए हितकर होगा और न ही जनवादी धर्मनिरपेक्ष राजनीति का ही कुछ भला कर सकेगा। सत्ता के लिए मचे इस कांग्रेसी घमासान ने उत्तराखंड की राजनीति के सभी मौलिक मुद्दों को लील लिया है और यदि उत्तराखंड की राजनीति में कुछ शेष बचा है तो वह जातीय और क्षेत्रीय विभाजन।
ऐसा नहीं है कि क्षेत्रीय और जातीय विभाजन पर आधारित यह टकराव पहले से उत्तराखंड में नही थे। कुमायुं और गढ़वाल क्षेत्र के बीच एक परपंरागत टकराहट इस पहाड़ी राज्य के जीवन का अहम हिस्सा रहा है और इसी तरह प्रदेश में सत्ता के लिए ब्राह्मण एवं ठाकुर जातियों की परपंरागत प्रतिद्वंद्विता भी एक जगजाहिर तथ्य है।
उत्तराखंड राज्य के निर्माण के बाद विकास के नाम पर हुई संसाधनों की लूट के खिलाफ पूरे उत्तराखंड में जारी असंख्य बिखरे हुए प्रगतिशील जनवादी आंदोलनों ने भी निरंतर इस क्षेत्रीय एवं जातीय राजनीति के यथार्थ को उजागर करने का काम किया। परंतु यह इस छोटे राज्य की विडंबना ही है कि जनवादी आंदोलनों की लंबी प्रक्रिया ने जिन राजनीतिक भटकावों को कमजोर कर दिया था, विजय बहुगुणा के मुख्यमंत्री बनने की घोषणा के बाद ही फिर सत्ता की लालसा के संघर्ष ने उन्हें एक निर्णायक मोड़ पर पहुंचा दिया है।
वास्तव में उत्तराखंड में कांग्रेस के भविष्य को कमजोर करने की इस पटकथा का असली रचयिता कांग्रेस की उस आलाकमान को माना जाएगा, जिसके अव्यावहारिक निर्णय के कारण इस घमासान की शुरुआत हुई।
पिछले कम से कम एक दशक से उत्तराखंड की कांग्रेसी राजनीति में निर्णायक भूमिका अदा करने वाले हरीश रावत को जिस प्रकार से नजरअंदाज करते हुए विजय बहुगुणा को प्रदेश का मुख्यमंत्री घोषित किया गया, वह कांग्रेस आलाकमान के जमीनी हकीकत के प्रति अनभिज्ञता को दर्शाता है। दरअसल यह घटना कांग्रेस की राजनीति में उस राहुल प्रभाव को रेखांकित करती है, जो नए लोगों को लाने की नव संस्कृति के नाम पर बेटों को स्थापित करने की नई परंपरा को आगे बढ़ाने का ही काम कर रही है। पूर्व न्यायाधीश और हेमवंती नंदन बहुगुणा के पुत्र विजय बहुगुणा को जमीन और संगठन पर पकड़ रखने वाले कांग्रेसी नेता पर प्राथमिकता दी गई।
इस प्राथमिकता ने कांग्रेस को क्षेत्रीय और जातीय संघर्ष के एक ऐसे स्थायी भाव में पहुंचा दिया है जिसके सामने राज्य के पर्यावरण, पेयजल, अवैध खनन, रोजगार की तलाश में जवानों के पलायन और भ्रष्टाचार के सभी मौलिक और आवश्यक सवाल गौण हो गए और कुछ बच गया है तो वह क्षेत्रीय, जातीय धु्रवीकरण के आधार पर सत्ता के बंटवारे के लिए मोलभाव ही है।
सत्ता के लिए हुए इस घमासान ने उत्तराखंड के निर्माण की जरूरत पर भी सवालिया निशान खड़े कर दिए हैं, क्योंकि इस घमासान में जीत किसी भी राजनीतिक पक्ष की हुई हो, उत्तराखंड की आम जनता की आकांक्षाओं और उम्मीदों की तो हार ही हुई है।
बेहद सटीक निष्कर्ष दिया है।
जवाब देंहटाएं