महेश राठी
गंगा की स्वच्छता और उसका प्रदूषण रहित निर्मल अविरल प्रवाह का मुद्दा फिर चर्चाओं में है। अपने अस्तित्व पर लगातार खतरे झेल रही भारत की इस जीवन रेखा को बचाने की मुहिम संभवत: अभी तक के अपने सबसे गंभीर मुकाम पर है। पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में अवैध खनन और गंगा पर उससे होने खतरे के खिलाफ लड़ते हुए आत्म बलिदान करने वाले स्वामी निगमानंद के बाद स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद भी उसी राह पर हैं। स्वामी सानंद के नाम से ख्याति अर्जित कर चुके प्रो. जीडी अग्रवाल का संघर्ष हालांकि वाराणसी से देश की राजधानी पहुंच चुका है और प्रधानमंत्री के दूत के रूप में दो केंद्रीय मंत्रियों श्रीप्रकाश जयसवाल और नारायण सामी की मुलाकात ने इस मुद्दे की गंभीरता को रेखांकित किया है। अब गंगा बचाने की इस मुहिम में कई प्रकार के दृष्टिकोण और उपायों की चर्चा पूरे भारतीय मीडिया का एक उल्लेखनीय विषय बन रही है। इसमें विकास बनाम पर्यावरण एक अहम विषय है तो वहीं विकास और पर्यावरण के बीच समन्वय स्थापित करते हुए विकास का नया मॉडल अपनाना भी बहस का एक मुख्य मुद्दा है, लेकिन इन विकल्पों से अधिक इस समय गंगा को प्रदूषित करने वाले कारकों और उनके स्तरों को समझने की जरूरत है। अगर प्रत्यक्ष रूप से देखें तो गंगा की सभी सहयोगी जलधाराएं स्वच्छ और निर्मल दिखाई देती हैं, लेकिन उत्तराखंड के किसी मूल निवासी से इसके बारे में जानने की कोशिश की जाए तो इस स्वच्छता की वास्तविकता और पिछले सालों में इसमें आई गिरावट को आसानी से समझा जा सकता है। वास्तव में गंगा एक मैदानी नदी ही है, क्योंकि गंगा देवप्रयाग में संगम के बाद ऋषिकेश में प्रकट होने के समय ही गंगा कहलाती है। इससे पहले गंगा अपनी सहयोगी जलधाराओं भगीरथी, मंदाकिनी, पिंडार आदि के नाम से ही जानी जाती है। लेकिन अपने बेसिन में संभवतया दुनिया की सबसे बड़ी आबादी को आश्रय और जीवन देने वाली आस्था की प्रतीक इस नदी की यह विडंबना ही कही जाएगी कि यह महानदी गंगा बनने से पहले ही भारी प्रदूषण का शिकार हो रही है। उत्तराखंड अवैध खनन और अतिक्रमण के चलते भारी पर्यावरण क्षति का शिकार हो रहा है। इसका दुष्प्रभाव लगातार घटते ग्लेशियरों और दरकते हुए पहाड़ के रूप में साफतौर पर दिखाई देता है। इस वजह से गंगा और उसकी सहायक नदियों में लगातार पानी में कमी हो रही है। पिछले पांच दशक में गंगा की समुद्र में पानी की हिस्सेदारी में बीस प्रतिशत से भी अधिक गिरावट आई है। पानी की इस कमी के लिए विकास के नाम पर उत्तराखंड में हो रहे अंधाधंुध बांध निर्माण की भी भूमिका रही है। इस समय उत्तराखंड में तैयार हो चुके, निर्माणाधीन और छोटे-बडे़ प्रस्तावित बांधों की संख्या 300 से भी अधिक है। उत्तराखंड जैसे छोटे से पहाड़ी राज्य के लिए बेशक यह आंकड़ा हैरान कर देने वाला है। हालांकि अभी प्रस्तावित बांधों की बड़ी संख्या न्यायालय के हस्तक्षेप के कारण वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की वन सलाहकार कमेटी के पास विचाराधीन है। फिर भी अभी तक बन चुके छोटे-बडे़ अनेक बांधों ने इस प्रदेश के समाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय जीवन और परिस्थितिकी को बुरी तरह प्रभावित करके इस पूरे क्षेत्र पर निर्णायक अमिट छाप छोड़ दी है। गंगा के प्रदूषण की दूसरी मुख्य वजह औद्योगिक इकाइयों द्वारा छोड़ा जाने वाला कचरा और शहरी सीवर है। गंगा के किनारे कम से कम 29 बडे़ शहर, 70 कस्बे और हजारों गांव हैं, जिनसे लगातार कूड़े-कचरे का उत्सर्जन होता रहता है। बढ़ते शहरीकरण के कारण गंगा में गिरने वाले कचरे की मात्रा रोजाना बढ़ रही है। शहरीकरण ने नदी तट पर होने वाले अतिक्रमण और अवैध खनन जैसे कारोबार को भी बढ़ावा दिया है। इसके साथ ही धार्मिक कर्मकांड भी गंगा के अस्तित्व के लिए संकट का कारण बन रहे है। गंगा किनारे अंतिम संस्कार इस दृष्टि से एक बड़ा संकट है, जिससे गंगा के प्रदूषण में इजाफा हो रहा है। वाराणसी में ही हर साल 40 हजार से अधिक शवों का दाह हो रहा है, दाह के बाद फूल, राख आदि गंगा नदी में बहा दिए जाते हैं, जो प्रदूषण के कारकों में से एक हैं। गंगा के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए पर्यावरण के अनुरूप एक ऐसा मॉडल तैयार करने की जरूरत है, जिससे जीवनदायिनी गंगा भी बची रहे और विकास की प्रक्रिया भी सतत जारी रहे।
गंगा की स्वच्छता और उसका प्रदूषण रहित निर्मल अविरल प्रवाह का मुद्दा फिर चर्चाओं में है। अपने अस्तित्व पर लगातार खतरे झेल रही भारत की इस जीवन रेखा को बचाने की मुहिम संभवत: अभी तक के अपने सबसे गंभीर मुकाम पर है। पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में अवैध खनन और गंगा पर उससे होने खतरे के खिलाफ लड़ते हुए आत्म बलिदान करने वाले स्वामी निगमानंद के बाद स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद भी उसी राह पर हैं। स्वामी सानंद के नाम से ख्याति अर्जित कर चुके प्रो. जीडी अग्रवाल का संघर्ष हालांकि वाराणसी से देश की राजधानी पहुंच चुका है और प्रधानमंत्री के दूत के रूप में दो केंद्रीय मंत्रियों श्रीप्रकाश जयसवाल और नारायण सामी की मुलाकात ने इस मुद्दे की गंभीरता को रेखांकित किया है। अब गंगा बचाने की इस मुहिम में कई प्रकार के दृष्टिकोण और उपायों की चर्चा पूरे भारतीय मीडिया का एक उल्लेखनीय विषय बन रही है। इसमें विकास बनाम पर्यावरण एक अहम विषय है तो वहीं विकास और पर्यावरण के बीच समन्वय स्थापित करते हुए विकास का नया मॉडल अपनाना भी बहस का एक मुख्य मुद्दा है, लेकिन इन विकल्पों से अधिक इस समय गंगा को प्रदूषित करने वाले कारकों और उनके स्तरों को समझने की जरूरत है। अगर प्रत्यक्ष रूप से देखें तो गंगा की सभी सहयोगी जलधाराएं स्वच्छ और निर्मल दिखाई देती हैं, लेकिन उत्तराखंड के किसी मूल निवासी से इसके बारे में जानने की कोशिश की जाए तो इस स्वच्छता की वास्तविकता और पिछले सालों में इसमें आई गिरावट को आसानी से समझा जा सकता है। वास्तव में गंगा एक मैदानी नदी ही है, क्योंकि गंगा देवप्रयाग में संगम के बाद ऋषिकेश में प्रकट होने के समय ही गंगा कहलाती है। इससे पहले गंगा अपनी सहयोगी जलधाराओं भगीरथी, मंदाकिनी, पिंडार आदि के नाम से ही जानी जाती है। लेकिन अपने बेसिन में संभवतया दुनिया की सबसे बड़ी आबादी को आश्रय और जीवन देने वाली आस्था की प्रतीक इस नदी की यह विडंबना ही कही जाएगी कि यह महानदी गंगा बनने से पहले ही भारी प्रदूषण का शिकार हो रही है। उत्तराखंड अवैध खनन और अतिक्रमण के चलते भारी पर्यावरण क्षति का शिकार हो रहा है। इसका दुष्प्रभाव लगातार घटते ग्लेशियरों और दरकते हुए पहाड़ के रूप में साफतौर पर दिखाई देता है। इस वजह से गंगा और उसकी सहायक नदियों में लगातार पानी में कमी हो रही है। पिछले पांच दशक में गंगा की समुद्र में पानी की हिस्सेदारी में बीस प्रतिशत से भी अधिक गिरावट आई है। पानी की इस कमी के लिए विकास के नाम पर उत्तराखंड में हो रहे अंधाधंुध बांध निर्माण की भी भूमिका रही है। इस समय उत्तराखंड में तैयार हो चुके, निर्माणाधीन और छोटे-बडे़ प्रस्तावित बांधों की संख्या 300 से भी अधिक है। उत्तराखंड जैसे छोटे से पहाड़ी राज्य के लिए बेशक यह आंकड़ा हैरान कर देने वाला है। हालांकि अभी प्रस्तावित बांधों की बड़ी संख्या न्यायालय के हस्तक्षेप के कारण वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की वन सलाहकार कमेटी के पास विचाराधीन है। फिर भी अभी तक बन चुके छोटे-बडे़ अनेक बांधों ने इस प्रदेश के समाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय जीवन और परिस्थितिकी को बुरी तरह प्रभावित करके इस पूरे क्षेत्र पर निर्णायक अमिट छाप छोड़ दी है। गंगा के प्रदूषण की दूसरी मुख्य वजह औद्योगिक इकाइयों द्वारा छोड़ा जाने वाला कचरा और शहरी सीवर है। गंगा के किनारे कम से कम 29 बडे़ शहर, 70 कस्बे और हजारों गांव हैं, जिनसे लगातार कूड़े-कचरे का उत्सर्जन होता रहता है। बढ़ते शहरीकरण के कारण गंगा में गिरने वाले कचरे की मात्रा रोजाना बढ़ रही है। शहरीकरण ने नदी तट पर होने वाले अतिक्रमण और अवैध खनन जैसे कारोबार को भी बढ़ावा दिया है। इसके साथ ही धार्मिक कर्मकांड भी गंगा के अस्तित्व के लिए संकट का कारण बन रहे है। गंगा किनारे अंतिम संस्कार इस दृष्टि से एक बड़ा संकट है, जिससे गंगा के प्रदूषण में इजाफा हो रहा है। वाराणसी में ही हर साल 40 हजार से अधिक शवों का दाह हो रहा है, दाह के बाद फूल, राख आदि गंगा नदी में बहा दिए जाते हैं, जो प्रदूषण के कारकों में से एक हैं। गंगा के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए पर्यावरण के अनुरूप एक ऐसा मॉडल तैयार करने की जरूरत है, जिससे जीवनदायिनी गंगा भी बची रहे और विकास की प्रक्रिया भी सतत जारी रहे।
बिलकुल सही दृष्टिकोण है।
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