महेश राठी
इसे हमारे समय की बड़ी विडंबना ही कहा जाएगा कि विकास की जिस अंधाधुंध राह पर चलकर आज हमारा यह खूबसूरत नीला ग्रह ग्लोबल वार्रि्मग के रूप में सबसे बड़े खतरे का सामना कर रहा है, आज उसी तथाकथित विकास ने पर्यावरण जैसे गंभीर सवाल को फिर से लील लिया है। भारतीय संसद विकास के नाम पर एफडीआइ लाने के लिए बहस में उलझी रही और इस दौर के सबसे गंभीर और जरूरी पर्यावरण के सवाल पर हुआ दोहा सम्मेलन बिना किसी फैसले के ही निपट गया। इससे भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण रहा मीडिया का इसकी खबर को हाशिये पर धेकल देना। पश्चिमी मीडिया में अमेरिकी चुनाव की गहमागमहमी के बाद इस मुद्दे को थोड़ी-बहुत जगह देकर रस्म अदायगी कर अपनी जिम्मेदारी से पाला झाड़ने की कोशिश की। दरअसल, कोपेनहेगन सम्मेलन के बाद पर्यावरण सम्मेलन भी संयुक्त राष्ट्र संघ के कई वार्षिक आयोजनों की तरह एक रस्म अदायगी वाला कर्म बनने की राह पर बढ़ता दिख रहा है। अमीर देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल की बाध्यताओं से बचने के लिए हमेशा पर्यावरण संरक्षण की मुहिम में रूकावटबाजों की भूमिका अदा की है। दुनिया में समाजिक न्याय के नए योद्धा की तरह उभरे अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के नेतृत्व में अमीर देशों ने कोपेनहेगन पर्यावरण सम्मेलन में पर्यावरण सुरक्षा के लिए दुनियाभर के पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की कोशिशों में निर्णायक अडं़गा लगा दिया था। इस अर्थ में पर्यावरण संरक्षण के होने वाले सम्मेलनों की प्रक्रिया में कोपेनहेगन एक निर्णायक पड़ाव माना जा सकता है। इस सम्मेलन के बाद ग्लोबल वार्रि्मग को नियंत्रित करने के लिए बाध्यकारी कानून बनाने की तरफ बढ़ रहा अंतरराष्ट्रीय समुदाय और संयुक्त राष्ट्र संघ एक ऐसे मुकाम पर आकर ठहर गया है, जहां से आगे बढ़ने का कोई सर्वसम्मत रास्ता ढूंढ़ना उसके लिए एक मुश्किल काम जान पड़ता है। वास्तव में कोपेनहेगन पर्यावरण सम्मेलन में विश्व समुदाय को क्योटो प्रोटोकॉल का दूसरा फेज तैयार करना था, परंतु ब्रिक्स देशों के राष्ट्राध्यक्षों की एक बैठक के दौरान ओबामा ने बिना किसी आमंत्रण के अप्रत्याशित ढंग से पहंुचकर उन राष्ट्राध्यक्षों को न केवल चौंका दिया, बल्कि उनके सामने धमकाने के अंदाज में पेश आए। ओबामा के इस अप्रत्याशित हस्तक्षेप का जब चीनी राष्ट्रपति हू जिंताओं ने कठोरता से प्रतिकार किया तो अमरिकी राष्ट्रपति ने ग्लोबल वार्रि्मग से निपटने के लिए 100 बिलियन डॉलर देने की पेशकश कर डाली। यह पूरा घटनाक्रम अमीर देशों की ग्लोबल वार्रि्मग से निपटने और अपने हितों को बचाए रखने की रणनीति को रेखांकित करता है। दरअसल, यदि उसके बाद के सम्मेलनों, मेक्सिको और कानकून को देखें तो वह भी कोपेनहेगन सम्मेलन के अगले भाग से अधिक कुछ भी नहीं है। बेशक दोहा में क्योटो प्रोटोकॉल की खूब चर्चा रही, लेकिन इस वर्ष दोहा में संपन्न हुआ पर्यावरण सम्मेलन भी क्योटा प्रोटोकॉल के बाध्यकारी प्रावधानों को दफन कर देने की अंतिम कड़ी ही साबित होने जा रहा है। क्योटो प्रोटोकॉल की बाध्यताओं को मानने का यह अंतिम वर्ष है और इसके बाद किसी भी देश के सामने इन प्रावधानों को मानने की बाध्यता नहीं रहेगी, क्योंकि इन बाध्यकारी प्रावधानों के लिए क्योटो प्रोटोकॉल का दूसरा भाग जो कोपेनहेगेन में तैयार हो जाना चाहिए था, संभवतया वह अब इतिहास में याद करने लायक घटना भर बनकर रह जाएगा। हालांकि दुनिया में कार्बन उत्सर्जन पर यदि ईमानदारी से लगाम लगानी है तो उसके लिए क्योटो प्रोटोकॉल की बाध्यताओं का होना जरूरी है और इस जरूरत को समझते हुए ही दुनिया के गरीब देशों, पर्यावरणविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने प्रोटोकॉल के बाध्यकारी प्रावधानों को 2012 से आगे बढ़ाकर 2020 तक करने की मांग की थी, लेकिन शुक्रवार को समाप्त होने वाले सम्मेलन को एक दिन बढ़ा दिए जाने के बाद भी इस पर कोई फैसला नहीं हो सका। कार्बन कटौती करने पर न कोई सर्वसम्मति बन पाई और न ही कार्बन क्रेडिट खरीद के नाम पर गरीब देशों को विकसित दुनिया द्वारा दी जाने वाली आर्थिक सहायता पर ही बात आगे बढ़ सकी। इस बार एक और पर्यावरण सम्मेलन की विफलता के लिए अमेरिका, जापान, रूस और कनाडा जैसे रूकावटबाज देशों को ही जिम्मेदार माना जाएगा। अमेरिका, जापान और कनाडा ने क्योटो प्रोटोकॉल सरीखे किसी भी बाध्यकारी प्रावधानों के लिए होने वाली कोशिशों से न सिर्फ खुद को अलग कर लिया, बल्कि ऐसे किसी भी बनने वाले अंतरराष्ट्रीय कानून की राह में रुकावट डालने का भी काम किया। निगमीय विकास के यह पुरोधा अभी तक भी अपने तुच्छ स्वार्र्थो से निर्देषित स्व-केंद्रित व्यवहार से ऊपर नहीं उठ पाए हैं। बावजूद इसके कि इन्हें हर साल कैंडी और कैटरीना और जैसे भयावह चक्रवाती तूफानों का सामना करना पड़ रहा है। दो सप्ताह तक चली विषेशज्ञों की बहस के बाद भी जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए कोई निर्णय नहीं कर पाना, जलवायु फंड का खाली रहना और क्योटो प्रोटोकॉल के दूसरे चरण की बातचीत को ठप्प कर देना ही इस सम्मेलन का नतीजा रहा। स्थान के तौर पर कतर की राजधानी दोहा में आयोजित इस सम्मेलन के अपने निहितार्थ थे। कतर वह देश है जो दुनिया में प्रतिव्यक्ति सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन करता है। कतर का प्रतिव्यक्ति कार्बन उत्सर्जन 60 टन सालाना है, जो दुनिया के सबसे अधिक विकसित देश अमेरिका के 20 टन सालान कार्बन उत्सर्जन से तीन गुना अधिक है। दुनिया की दो सबसे तेजी से विकास की राह पर दौड़ रही अर्थव्यवस्थाएं भारत और चीन अपने 2 टन और 6 टन कार्बन उत्सर्जन के साथ इससे बहुत पीछे हैं। दोहा में हुए सम्मेलन का मकसद संभवतया कतर का अराजक ढंग से बढ़ता कार्बन उत्सर्जन और उसके लिए जिम्मेदार जीवनशैली की ओर दुनिया का ध्यान आकर्षित करना ही रहा हो, लेकिन इस सम्मेलन की विफलता के लिए जिम्मेदार अमीर देशों के व्यवहार ने दोहा में सम्मेलन आयोजित करने की पर्यावरणविदों की सद्चि्छा को विपरीत दिशा में पलटकर रख दिया है। अब इस दोहा सम्मेलन की विफलता से बना नया संदेश स्पष्ट है कि जीत आखिरकार अमीर देशों की ही होती है और गरीब देशों का काम उनकी जीवनशैली के लिए त्याग करने के अलावा कुछ नहीं है। विकसित देशों की जीवनशैली और तथाकथित विकास के लालच के कारण होने वाला कार्बन उत्सर्जन पिघलते ग्लेशियरों, कम होती बर्फबारी और बेमौसमी बारिश के लिए जिम्मेदार हैं, जो परंपरागत सिंचाई व्यवस्था और प्रकृति पर पूरी तरह निर्भर गरीब देशों के अस्तित्व को चुनौती दे रहा है। इस सम्मेलन का संदेश अब दोहा की जीवनशैली को ही आदर्श सिद्ध कर रहा है, जहां एक बाल्टी पानी से कार का सफर सस्ता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
इसे हमारे समय की बड़ी विडंबना ही कहा जाएगा कि विकास की जिस अंधाधुंध राह पर चलकर आज हमारा यह खूबसूरत नीला ग्रह ग्लोबल वार्रि्मग के रूप में सबसे बड़े खतरे का सामना कर रहा है, आज उसी तथाकथित विकास ने पर्यावरण जैसे गंभीर सवाल को फिर से लील लिया है। भारतीय संसद विकास के नाम पर एफडीआइ लाने के लिए बहस में उलझी रही और इस दौर के सबसे गंभीर और जरूरी पर्यावरण के सवाल पर हुआ दोहा सम्मेलन बिना किसी फैसले के ही निपट गया। इससे भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण रहा मीडिया का इसकी खबर को हाशिये पर धेकल देना। पश्चिमी मीडिया में अमेरिकी चुनाव की गहमागमहमी के बाद इस मुद्दे को थोड़ी-बहुत जगह देकर रस्म अदायगी कर अपनी जिम्मेदारी से पाला झाड़ने की कोशिश की। दरअसल, कोपेनहेगन सम्मेलन के बाद पर्यावरण सम्मेलन भी संयुक्त राष्ट्र संघ के कई वार्षिक आयोजनों की तरह एक रस्म अदायगी वाला कर्म बनने की राह पर बढ़ता दिख रहा है। अमीर देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल की बाध्यताओं से बचने के लिए हमेशा पर्यावरण संरक्षण की मुहिम में रूकावटबाजों की भूमिका अदा की है। दुनिया में समाजिक न्याय के नए योद्धा की तरह उभरे अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के नेतृत्व में अमीर देशों ने कोपेनहेगन पर्यावरण सम्मेलन में पर्यावरण सुरक्षा के लिए दुनियाभर के पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की कोशिशों में निर्णायक अडं़गा लगा दिया था। इस अर्थ में पर्यावरण संरक्षण के होने वाले सम्मेलनों की प्रक्रिया में कोपेनहेगन एक निर्णायक पड़ाव माना जा सकता है। इस सम्मेलन के बाद ग्लोबल वार्रि्मग को नियंत्रित करने के लिए बाध्यकारी कानून बनाने की तरफ बढ़ रहा अंतरराष्ट्रीय समुदाय और संयुक्त राष्ट्र संघ एक ऐसे मुकाम पर आकर ठहर गया है, जहां से आगे बढ़ने का कोई सर्वसम्मत रास्ता ढूंढ़ना उसके लिए एक मुश्किल काम जान पड़ता है। वास्तव में कोपेनहेगन पर्यावरण सम्मेलन में विश्व समुदाय को क्योटो प्रोटोकॉल का दूसरा फेज तैयार करना था, परंतु ब्रिक्स देशों के राष्ट्राध्यक्षों की एक बैठक के दौरान ओबामा ने बिना किसी आमंत्रण के अप्रत्याशित ढंग से पहंुचकर उन राष्ट्राध्यक्षों को न केवल चौंका दिया, बल्कि उनके सामने धमकाने के अंदाज में पेश आए। ओबामा के इस अप्रत्याशित हस्तक्षेप का जब चीनी राष्ट्रपति हू जिंताओं ने कठोरता से प्रतिकार किया तो अमरिकी राष्ट्रपति ने ग्लोबल वार्रि्मग से निपटने के लिए 100 बिलियन डॉलर देने की पेशकश कर डाली। यह पूरा घटनाक्रम अमीर देशों की ग्लोबल वार्रि्मग से निपटने और अपने हितों को बचाए रखने की रणनीति को रेखांकित करता है। दरअसल, यदि उसके बाद के सम्मेलनों, मेक्सिको और कानकून को देखें तो वह भी कोपेनहेगन सम्मेलन के अगले भाग से अधिक कुछ भी नहीं है। बेशक दोहा में क्योटो प्रोटोकॉल की खूब चर्चा रही, लेकिन इस वर्ष दोहा में संपन्न हुआ पर्यावरण सम्मेलन भी क्योटा प्रोटोकॉल के बाध्यकारी प्रावधानों को दफन कर देने की अंतिम कड़ी ही साबित होने जा रहा है। क्योटो प्रोटोकॉल की बाध्यताओं को मानने का यह अंतिम वर्ष है और इसके बाद किसी भी देश के सामने इन प्रावधानों को मानने की बाध्यता नहीं रहेगी, क्योंकि इन बाध्यकारी प्रावधानों के लिए क्योटो प्रोटोकॉल का दूसरा भाग जो कोपेनहेगेन में तैयार हो जाना चाहिए था, संभवतया वह अब इतिहास में याद करने लायक घटना भर बनकर रह जाएगा। हालांकि दुनिया में कार्बन उत्सर्जन पर यदि ईमानदारी से लगाम लगानी है तो उसके लिए क्योटो प्रोटोकॉल की बाध्यताओं का होना जरूरी है और इस जरूरत को समझते हुए ही दुनिया के गरीब देशों, पर्यावरणविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने प्रोटोकॉल के बाध्यकारी प्रावधानों को 2012 से आगे बढ़ाकर 2020 तक करने की मांग की थी, लेकिन शुक्रवार को समाप्त होने वाले सम्मेलन को एक दिन बढ़ा दिए जाने के बाद भी इस पर कोई फैसला नहीं हो सका। कार्बन कटौती करने पर न कोई सर्वसम्मति बन पाई और न ही कार्बन क्रेडिट खरीद के नाम पर गरीब देशों को विकसित दुनिया द्वारा दी जाने वाली आर्थिक सहायता पर ही बात आगे बढ़ सकी। इस बार एक और पर्यावरण सम्मेलन की विफलता के लिए अमेरिका, जापान, रूस और कनाडा जैसे रूकावटबाज देशों को ही जिम्मेदार माना जाएगा। अमेरिका, जापान और कनाडा ने क्योटो प्रोटोकॉल सरीखे किसी भी बाध्यकारी प्रावधानों के लिए होने वाली कोशिशों से न सिर्फ खुद को अलग कर लिया, बल्कि ऐसे किसी भी बनने वाले अंतरराष्ट्रीय कानून की राह में रुकावट डालने का भी काम किया। निगमीय विकास के यह पुरोधा अभी तक भी अपने तुच्छ स्वार्र्थो से निर्देषित स्व-केंद्रित व्यवहार से ऊपर नहीं उठ पाए हैं। बावजूद इसके कि इन्हें हर साल कैंडी और कैटरीना और जैसे भयावह चक्रवाती तूफानों का सामना करना पड़ रहा है। दो सप्ताह तक चली विषेशज्ञों की बहस के बाद भी जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए कोई निर्णय नहीं कर पाना, जलवायु फंड का खाली रहना और क्योटो प्रोटोकॉल के दूसरे चरण की बातचीत को ठप्प कर देना ही इस सम्मेलन का नतीजा रहा। स्थान के तौर पर कतर की राजधानी दोहा में आयोजित इस सम्मेलन के अपने निहितार्थ थे। कतर वह देश है जो दुनिया में प्रतिव्यक्ति सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन करता है। कतर का प्रतिव्यक्ति कार्बन उत्सर्जन 60 टन सालाना है, जो दुनिया के सबसे अधिक विकसित देश अमेरिका के 20 टन सालान कार्बन उत्सर्जन से तीन गुना अधिक है। दुनिया की दो सबसे तेजी से विकास की राह पर दौड़ रही अर्थव्यवस्थाएं भारत और चीन अपने 2 टन और 6 टन कार्बन उत्सर्जन के साथ इससे बहुत पीछे हैं। दोहा में हुए सम्मेलन का मकसद संभवतया कतर का अराजक ढंग से बढ़ता कार्बन उत्सर्जन और उसके लिए जिम्मेदार जीवनशैली की ओर दुनिया का ध्यान आकर्षित करना ही रहा हो, लेकिन इस सम्मेलन की विफलता के लिए जिम्मेदार अमीर देशों के व्यवहार ने दोहा में सम्मेलन आयोजित करने की पर्यावरणविदों की सद्चि्छा को विपरीत दिशा में पलटकर रख दिया है। अब इस दोहा सम्मेलन की विफलता से बना नया संदेश स्पष्ट है कि जीत आखिरकार अमीर देशों की ही होती है और गरीब देशों का काम उनकी जीवनशैली के लिए त्याग करने के अलावा कुछ नहीं है। विकसित देशों की जीवनशैली और तथाकथित विकास के लालच के कारण होने वाला कार्बन उत्सर्जन पिघलते ग्लेशियरों, कम होती बर्फबारी और बेमौसमी बारिश के लिए जिम्मेदार हैं, जो परंपरागत सिंचाई व्यवस्था और प्रकृति पर पूरी तरह निर्भर गरीब देशों के अस्तित्व को चुनौती दे रहा है। इस सम्मेलन का संदेश अब दोहा की जीवनशैली को ही आदर्श सिद्ध कर रहा है, जहां एक बाल्टी पानी से कार का सफर सस्ता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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