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गुरुवार, 20 सितंबर 2012

लोकतंत्र के अलोकतांत्रिक औजार

महेश राठी 
आज विश्व लोकतंत्र दिवस है। दुनिया में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति जागरूकता फैलाने और जनता को जनवादी व्यवहार और उसकी जरूरतों के प्रति शिक्षित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2007 में हर साल 15 सितंबर को अंतरराष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस मनाने का फैसला किया था। यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की विडंबना ही है कि जब दुनिया लोकतंत्र दिवस मना रही है तो भारतीय लोकतंत्र सरकारी संवेदनहीनता और असहिष्णुता से पैदा की गई चुनौतियां और खतरे झेल रहा है। मुंबई में कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी की गिरफ्तारी सरकारों में घटती सहिष्णुता और लोकतंत्र के सीमित होते इसी आधार का प्रतीक है। असीम त्रिवेदी वर्तमान भारतीय समाज का ऐसा चेहरा है, जो लोकतंत्र को किसी सीमा में बंधा नहीं बल्कि उसे व्यापक दायरे में देखता है। आज भारत भी अपनी औपनिवेशिक पृष्ठभूमि के कारण ऐसी ही कई विचित्र विडंबनाओं का वाहक आजाद देश है और इन विडंबनाओं की तकलीफ पिछले दो दशक की बाजार नियंत्रित आर्थिक विकास की बढ़ती गति के साथ ही बहुआयामी और निष्ठुर रूपों में उजागर होने लगी है। दरअसल, भारतीय लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी और नागरिक अधिकारों को चुनौती देती इन घटनाओं से उपजे सवाल किसी एक व्यक्ति की गिरफ्तारी से कहीं बड़े और महत्वपूर्ण हैं। यह सवाल औपनिवेशिक पृश्ठभूमि में गढ़ी गई आजादी और राष्ट्रद्रोह की अवधारणा के साथ वर्तमान लोकतांत्रिक हितों और जन आकांक्षाओं के बीच बढ़ते टकराव को भी रेखांकित करता है। भारतीय गणराज्य का भी एक संविधान है, जो नागरिकों के बोलने की आजादी, असंतोष की अभिव्यक्ति, संगठित होने और राजनीतिक दल बनाने की स्वतंत्रता का बुनियादी आधार प्रदान करता है, लेकिन भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) की वह धारा जिसके तहत असीम को गिरफ्तार किया गया संविधान की इस बुनियादी स्थिति और गणराज्य की मूल भावना को चुनौती दे रही है। राजद्रोह को रेखांकित करने वाली आइपीसी की यह धारा संविधान प्रदत्त आधारभूत अधिकारों के लिए चुनौती की तरह है। धारा 124ए राजद्रोह के संबंध में कहती है कि जो भी अपने शब्दों, बोलने या लिखने से, हस्ताक्षर करने से अथवा सादृश्य प्रतिनिधित्व करने या किसी तरह की कोशिश से घृणा फैलाकर सरकार के खिलाफ उत्तेजना फैलाता है, उसे आर्थिक दंड के साथ आजीवन कारावास अथवा साथ तीन साल तक की सजा होनी चाहिए। वास्तव में राजद्रोह की यह परिभाषा इतनी भ्रामक और समाज विरोधी है कि यदि कोई व्यक्ति या समूह अपने अधिकारों या समाजिक समानता के लिए भी यदि सरकार के खिलाफ असंतोष जताते हुए संगठित होता है तो सरकार कभी भी उसे राजद्रोह के केस में आजीवन कारावास तक करा सकती है। दरअसल, आइपीसी और उसकी धाराओं के बनने और उनमें संशोधन का भी एक इतिहास रहा है। धारा 124ए का 1960 में संशोधन किया गया। इतिहास में सिपाही विद्रोह के रूप में विख्यात 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद भारतीय उपनिवेश की सत्ता का हस्तांतरण ईस्ट इंडिया कंपनी से सीधे ब्रिटिश राजशाही को हुआ। अंग्रेज शासकों के सामने फिर ऐसी ही बगावत से निपटने की चुनौती थी। अंग्रेजों ने संविधान में संशोधन करते हुए सरकार के खिलाफ अंसतोष की अभिव्यक्ति से निपटने और संगठित आंदोलन को प्रारंभिक अवस्था में ही कुचलने के लिए धारा 124ए को तथाकथित कानून से बनाई हुई सरकार को बचाने के लिए जोड़ा। आजादी से पहले इसी धारा का सहारा लेकर कई स्वतंत्रता सेनानियों को अंग्रेजो ने जेल भेजा और कई षडयंत्र केस भी उन पर चलाए, जिसमें ऐतिहासिक मेरठ और कानपुर षडयंत्र केस खासे चर्चित रहे। अब भारतीय गणराज्य की त्रासदी देखिए कि स्वतंत्रता का 65वां पर्व हर्षोल्लास से मनाने के बाद भी धारा 124ए कहती है कि सरकार के खिलाफ एक कार्टून से असंतोष की अभिव्यक्ति और सोशल मीडिया में उसका प्रचार-प्रसार भी राजद्रोह की श्रेणी में आता है। असल में सरकार की जन-विरोधी नीतियों के खिलाफ उठने वाले प्रत्येक स्वर को जब राजद्रोही बताकर प्रताडि़त किया जाता है तो यह सरकार की सहिष्णुता के निम्नतम स्तर पर पहुंच जाने और जनवाद से हटकर निरंकुष हो जाने का सूचक है। भारतीय जनतंत्र में किसानों और आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन के लिए खतरा बन रहे कॉरपोरेट विकास ने भी कमोबेश ब्रिटिश राह को ही चुना है। अपने अधिकारों और सम्मान की लड़ाई लड़ रहे हरियाणा और पंजाब के दलितों और मजदूरों के खिलाफ इस धारा के उपयोग के कई उदाहरण सामने हैं। हाल में इसके उदाहरण कुडानकुलम परियोजना का विरोध कर रहे लोगों और हरियाणा के भंगना गांव के दलित परिवारों का है। इन दलित परिवारों को अपना अधिकार मांगने पर राजद्रोही कहा गया। गांव के दंबगों ने मिलकर दलित और अति पिछड़े परिवारों की जमीन हड़प ली, उन्हें गांव से बेदखल कर दिया गया, उनका समाजिक बहिष्कार किया गया। तमाम उत्पीड़न के बाद उन्होंने विरोध किया, मुख्यमंत्री का पुतला फूंका तो उन पर यही राजद्रोह का मुकदमा और सरकारी अधिकारियों के काम में रुकावट डालने का केस दर्ज किया गया। दरअसल, आइपीसी की धारा का प्रयोग राष्ट्र और सरकार के भेद को खत्म कर सरकार को ही राष्ट्र के रूप में निरुपित करता है। हालांकि हाशिये पर पड़े तबकों का संघर्ष बुनियादी रूप से देश समाजिक न्याय और समानता की लड़ाई है। चूंकि यह सरकार के वर्ग चरित्र के विरूद्ध है, इसलिए इसे अन्यायपूर्ण तरीके से राष्ट्र विरोधी साबित किया जाता है। त्रासदी यह है कि इस धारा का प्रयोग देश में विकास की नव उदारवादी अवधारणा के आने के बाद से बहुतायात में हो रहा है और इसका निशाना हमेशा दलित, आदिवासी, अति पिछड़े, गरीब अल्पसंख्यक और खेतिहर मजदूर सरीखे वंचित बनते रहे हैं। राजद्रोह की इस धारा का उपयोग कभी भी अवैध खनन, हवाला अथवा अन्य घोटालों और आर्थिक अपराधों में लिप्त लोगों या विदेशों में कालाधन जमा करने वालों पर नहीं किया गया। भारतीय दंड संहिता की इस धारा के दुरुपयोग का जिस प्रकार से चलन बढ़ा है, वह चिंतनीय है। कारण कि यह भारतीय गणराज्य के संविधान की प्रस्तावना, मौलिक अधिकारों और नीति-निर्देशक सिद्धांतों के लिए खुली चुनौती है। ऐसा भी नहीं है कि डॉ. भीमराव आंबेडकर और उनके सहयोगियों को इस प्रकार के विरोधाभासों का आभास नहीं था। आंबेडकर ने कहा था कि ऐसे विरोधाभासों एवं समस्याओं को उजागर होते ही हल कर दिया जाना चाहिए, लेकिन लगता है कि सरकार की इच्छा विरोधाभासों को हल करने की नहीं, बल्कि उन्हें अपने पक्ष में सक्रियता से इस्तेमाल करते जाने की है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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