महेश राठी
चार महीने बीत जाने के बाद भी मुजफ्फरनगर दंगे देश की राजनीति में चर्चा का विषय बने हुए हैं। यह कहना मुश्किल है कि इस चर्चा में प्रमुख दंगा पीड़ितों का दर्द अधिक है अथवा राहत शिविरों का दौरा करके आने वाले राजनेताओं की बयानबाजी और उसके राजनीतिक निहितार्थ। हालांकि यह निश्चित है कि इन राहत शिविरों का वजूद जितने समय तक बना रहेगा कुछ राजनीतिक दलों के नेताओं को वहां जाने और उस पर राजनीति करते रहने का अवसर बने रहेगा और राज्य की सपा सरकार के लिए वह ना केवल तकलीफदेह होगा बल्कि भविष्य में उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए भी नुकसानदेह होगा। संभवतया यही कारण है कि राज्य सरकार ने जिला प्रशासन को अगले तीन चार दिनों में इन शिविरों को बंद करने का समय दिया और अब जिला प्रशासन कोशिश करके इन राहत शिविरों में रहने वाले लोगों को वैकल्पिक जगहों पर स्थानांतरित कर रहा है।
वर्ष के आखिरी दिन बुढ़ाना के नजदीक बने लोई राहत शिविर को खत्म किये जाने और उस में रह रहे लोगों को दूसरी वैकल्पिक जगहों पर भेजे जाने की प्रशासनिक कोशिशों के समाचार प्राप्त हो रहे हैं। हालांकि ऐसी कोशिशें जिला प्रशासन ने पहले भी की थी और गांव के साथ लगी उस सरकारी जगह पर रह लोगों को हटाकर अन्यत्र चले जाने के ना केवल आदेश दिये थे बल्कि इस जगह पर जिला प्रशासन ने बुलडोजर चलाकर जगह को समतल कर दिया था। परंतु राहत शिविरों में रहने वाले लोगों ने इस जगह से हटकर बगल में सड़क के करीब अपने डेरे जमा लिये थे अथवा वह वापस लोटकर फिर वहीं आ गये थे। अब जिला प्रशासन ने इन लॊगों को लोई, नीमखेड़ा, कैराना और लोनी में स्थानांतरित कर दिया है। मुजफ्फरनगर , बागपत और शामली का जिला प्रशासन कमोबेश यही कोशिशें अन्य राहत शिविरों में भी कर रहा है। वास्तव में लोगों के राहत शिविर से लोटने की इस कवायद में एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि दंगा पीड़ित यह लोग उन गाँव में नही लौटना चाहते हैं जहां वहां सांप्रदायिक हिंसा का शिकार हुए हैं, इन राहत शिविरों में रहने वाले लोगों में अभी तक डर और आशंका बनी हुई है। असल में मुजफ्फरनगर के खरड़, फुगाना, लिसाढ़, लाख, बाहवड़ी, कुटबा-कुटबी सहित लगभग दो दर्जन गाँव ही सांप्रदायिक हिंसा का शिकार हुए थे परंतु जिले भर में डर और आशंका का ,ऐसा माहौल था कि जिले के सैंकड़ों गांवों से 50 हजार से अधिक लोग पलायन करके इन राहत शिविरों में आ टिके थे। अब चार महीने के बाद जैसे ही इलाके में हालात नियंत्रण में आ रहे हैं तो लोग अपने घरों की तरफ लौट रहे हैं। परंतु हिंसा का शिकार हु, गाँवों में वापस आने को लेकर अभी भी उनके मन में तमाम तरह की आशंकाएं बनी हुई हैं। इस कारण इन दर्जनों गॉवों में अभी भी लोगों की वापसी मुश्किल बनी हुई है। परंतु जिला प्रशासन राज्य सरकार के आदेशों का पालन करते हु, इन लोगों को राहत शिविरों से ना केवल हटा रहा है बल्कि सरकारी जमीन से नही हटने पर उनके खिलाफ सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा करने के मामले भी दर्ज कर रहा है। झिंझाना क्षेत्र के गाँव मंसूरा में ,ऐसे ही 100 लोगों के खिलाफ मामले दर्ज किये गए तो वहीं रोटन गाँव में 270 लोगों को सरकारी जमीन कब्जाने के खिलाफ नोटिस भी जारी किये गए हैं।
लोगों को राहत शिविर से हटाने के लिए जिला प्रशासन तमाम उपाय कर रहा है। लेकिन उसके बाद भी लोगों की मुश्किलें और उनकी शिकायतें बनी हुई हैं। लोई गाँव से हटाए गए लोगों का कहना है कि इस शिविर में रह रहे 90 दंगा पीड़ित परिवारों में महज 22-25 को ही मुआवजे की राशि मिली है। दरअसल इस शिविर के दंगा पीड़ित लोग पंरपरागत प्रशासनिक खामियों का शिकार भी हैं। प्रशासनिक अधिकारी मुआवजा देने के लिए इन पीड़ित परिवारों से ,ऐसे दस्तावेजों की मांग कर रहे हैं जिससे कि यह सिद्ध हो सके कि वह दंगा प्रभावित गाँवों के रहने वाले और दंगा प्रभावित परिवार हैं। हालांकि ,ऐसी परिस्थितियों में यह मांग बेहद अस्वाभाविक और अजीब है कि दंगे के समय अपनी जान बचाकर भागने वाला व्यक्ति अपना सबूत भी साथ लेकर भागे! परंतु प्रशासनिक अधिकारी दंगा प्रभावित गाँवों में सर्वे करवा कर अथवा अन्य तरीके अजमाकर मुआवजा देने के राजनीतिक आदेश के बावजूद अपने काम को आसान बनाने के लिए इस प्रकार की पंरपरागत बहानेबाजी का सहारा लेते हैं। कमोबेश यही बात दंगे में शामिल रहे आरोपियों की पहचान के मामले में भी रही। हाल ही में राहत शिविरों का को मदद पहूँचाने के मकसद से शिविरों का दौरा करके लौटी एआईएसएफ दिल्ली और जनता कालोनी भाकपा के साथियों की टीम ने बताया कि एसआईटी और स्थानीय पुलिस की टीमें उन लोगों को आरोपियों की पहचान करने के लिए दंगा प्रभावित गाँवों में रोजाना खिनाख्त सैर पर ले जाती है और उक्त गावों में कभी भी उनकों आरोपी मिल ही नही पाते हैं। राहत शिविर से लौटकर आए साथियों का कहना था कि रोजाना शिनाख्त सैर के इस सिलसिले से होता यह है कि दंगा पीड़ित किसी वैकल्पिक रोजगार ढूढने लायक स्थिति में नही रहते हैं। राहत शिविर में रहने वाले दंगा पीड़ितों की एक प्रमुख शिकायत यह भी थी कि उन्हें अपने साथ ले जाने वाले पुलिसकर्मी उन्हें लगातार यह समझाने की कोशिश करते रहते हैं कि जो हो गया, सो हो गया, अब कुछ नही होने वाला है और वह यूं ही 10-12 सालों तक भटकते रहेंगे और कोई नतीजा हासिल नही होगा। दरअसल यह बातें राज्य के बहुसंख्यक वर्चस्व वाले वर्तमान पुलिस विभाग की पक्षपाती और सांप्रदायिक मानसिकता को रेखांकित करती हैं। ऐसा भी नहीं है कि यह मानसिकता केवल उत्तर प्रदेश के पुलिस विभाग की ही हैं दंगे की जांच करने के लिए राज्य सरकार द्वारा गठित की गई एसआईटी चार महीने बीत जाने के बाद भी केवल 28 मामलों में ही आरोप-पत्र दाखिल कर पाई है। राज्य सरकार द्वारा गठित एसआईटी को कुल 573 मामलों की जांच का जिम्मा दिया गया था जिसमें से पाया गया कि छह मामले दंगे से पहले अथवा बाद के थे जिन्हें जांच के लिए राज्य पुलिस के सुपूर्द कर दिया गया था। अब बचे 566 मामले और जिसमें 6409 आरोपियों पर कार्यवाही होनी थी। परंतु चार माह गुजर जाने के बाद महज 28 मामलों की ही जांच पूरी हो पायी है जिसमें लगभग 250 लोगों के खिलाफ वारंट अथवा गिरफ्तारी हो पायी है। जांच और कार्यवाही प्रक्रिया की इस धीमी गति और मुआवजा देने में टाल मटौल के रवैये ने भी दंगा पीड़ित लोगों में डर और आशंकाओं को बढ़ाने का काम किया है और यही कारण हैं कि वह इन राहत शिविरों से वापस किसी अन्य वैकल्पिक जगह अथवा अपने घरों को जाना नही चाहते हैं। लोई शिविर से यदि लोगों को हटाया गया है तो उनमें से जिन लोगों को मुआवजा मिल गया है तो वो वहीं किसी की निजी जगह पर कटे प्लाटों में जगह लेकर रहने लगे हैं अथवा गाँव के अंदर गाँववासियों के घरों में शरण लेकर रह रहे हैं।
बहरहाल राज्य सरकार की तमाम घोषणाओं और कोशिशों के बाद भी दंगे का दंश झेल चुके लोगों के लिए अभी बहुत कुछ किये जाने की आवश्यकता है। स्थानीय प्रशासन को चाहिए कि वह यह मानसिकता छोड़कर कि दंगा पीड़ित को स्वयं सिद्ध करना होगा कि वह दंगे पीड़ित है प्रशासन दंगे प्रभावित गाँव का सर्वे करवाकर दंगा पीड़ित और गाँव से उजड़ गये लोगों की सूची तैयार करते हुए उनके लिए मुआवजे और समुचित राहत एवं पुनर्वास का इंतजाम करे। साथ ही राज्य सरकार में इन शिविरों में 34 बच्चों की मौत स्वयं पुष्टि की है । ऐसे में राज्य प्रशासन का दायित्व है कि वह इस बात को सुनिश्चित करे कि इस प्रकार के हादसे आगे नही हो पायें। बलात्कार पीड़ित महिलाओं के मामले में प्रशासन और पुलिस किसी को क्लीन चिट देने की बजाये सही समय पर पीड़िताओं की मेड़िकल जांच कराकर बलात्कार की पुष्टि नही करवाने के दोषी अधिकारियों की पहचान करते हुए उनके खिलाफ कार्यवाही करे। इसके अलावा दंगा प्रभावित परिवारों को मुआवजे के अलावा प्रत्येक परिवार में से एक बालिग व्यक्ति को रोजगार मुहैया कराने के प्रबंध भी सरकार द्वारा किये जाने चाहिए।
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