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रविवार, 25 सितंबर 2016

शहीदे आज़म भगत सिंह की फांसी पर दो ऐतिहासिक आलेख

शहीदे आज़म भगत सिंह की फांसी पर दो ऐतिहासिक आलेख
डॉ  बी आर आंबेडकर और पेरियार 
शायद ही कोई होगा जिसने भगत सिंह की फांसी पर शोक व्यक्त न किया हो। न ही कोई ऐसा व्यक्ति है जिसने भगत सिंह को फांसी की सजा देने के लिए सरकार की भर्त्सना न की हो। इसी बीच, एक ओर हमने तथाकथित देशभक्तों और राष्ट्रवादियों को भगत सिंह की मृत्यु के लिए गांधी को दोष देते देखा है। वहीं दूसरी ओर, हम देख रहे हैं कि वही आत्म-घोषित देशभक्त और राष्ट्रवादी सरकार के मुखिया महोदय इरविन को बधाई दे रहे हैं और गांधी की तारीफ कर रहे हैं महोदय इरविन से बातचीत के लिए। ये आत्म-घोषित देशभक्त और राष्ट्रवादी इस समझौते पर अपना संतोष व्यक्त कर रहे हैं और जीत मना रहे हैं, इस समझौते में यह शर्त शामिल नहीं है कि भगत सिंह को फांसी नहीं दी जानी चाहिए। इसके अलावा हम इस बात के प्रत्यक्षदर्शी हैं कि गांधी लाॅर्ड इरविन का महात्मा के रूप में अभिवादन कर रहे है और इस देश के लोगों को भी ऐसा ही करने का उपदेश दे रहे हैं। हम देखते हैं कि लाॅर्ड इरविन भी गांधी को एक महान जीवात्मा और एक प्रकार का दिव्य पुरुष कह रहे हैं, और यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि अंग्रेजों के बीच इस तथ्य को खूब प्रचार हो ।
लेकिन जल्दी ही हम देखते हैं कि वही लोग ‘‘गांधीवाद मुर्दाबाद’’ और ‘‘कांग्रेस मुर्दाबाद’’ और गांधी मुर्दाबाद’’ जैसे नारे लगा रहे हैं और आजकल यह आम बात हो गई है कि गांधी जहां कहीं भी जाते हैं, काले झंडे से उनका स्वागत किया जाता है। इससे गांधी जिन बैठकों को संबोधित करते हैं वहां उलझनें पैदा होती हैं।
तमाम बातों को ध्यान में रखते हुए हम यह नहीं समझ पा रहे कि राजनीतिक मामलों में आम जनता की राय क्या है और क्या वे असल में किसी सिद्धांत को मानते हैं? हमें इस बात पर शक है कि वे किसी सिद्धान्त को मानते हैं। फिर भी ऐसा उस दिन से हुआ होगा जब से गांधी ने नमक आंदोलन चलाया। हमने इस बात की ओर ध्यान दिलाया था कि इस आंदोलन से न तो लोगों और न ही राष्ट्र को फायदा होगा और वास्तव में यह आंदोलन राष्ट्र की प्रगति के लिए और जनता की आजादी के लिए नुकसानदायी होगा।
ऐसा केवल हम नहीं कह रहे है लेकिन गांधी ने स्वयं साफ-साफ कहा है कि उनके आंदोलन का मकसद भगत सिंह और उसके जैसे अन्य आंदोलनकारियों की गतिविधियों को रोकना है और नष्ट करना है। इसके अलावा पड़ोसी देशों में सच्चे समाजवादी और देशभक्त गगनभेदी आवाज में कह रहे हैं कि ‘‘गांधी ने गरीबों के साथ विश्वासघात किया है उनकी गतिविधियां समाजवादी आदर्शों से छुटकारा पाने की है और इसलिए ‘‘गांधी मुर्दाबाद और कांग्रेस मुर्दाबाद’’। लेकिन हमारे तथाकथित देशभक्त और राष्ट्रवादी किसी भी चीज को सोचे बिना और परिणामों की चिंता किए बगैर खुश हैं और नाच रहे हैं-लेकिन उन लोगों की तरह नहीं जो कि भले ही उजाले के लिए लालटेन पकड़े होते हैं और फिर भी कुएं में गिर जाते हैं या फिर उन लोगों की तरह जो कि एक शर्त की खातिर अपने सिर को चट्टान पर पटकने की चिंता नहीं करते।  और इसी तरह से तथाकथित देशभक्त और राष्ट्रवादी जेल गए और जब वे जेल से छूट कर वापिस आए तो उनके गले में ‘विजय मालाएं’ थी। इस बात पर वे गर्व से फूले हुए थे। इस सबके बाद अब भगत सिंह की फांसी को देखने के बाद वे ‘गांधी मुर्दाबाद’, कांग्रेस मुर्दाबाद’ और ‘गांधी बर्बाद हो’ कहते हुए हल्ला मचा रहे हैं। हमें समझ नहीं आ रहा कि इस सबका मकसद क्या है?
यदि सच कहें तो देश में जहां बोड़म, मूर्ख और गैर-जिम्मेदार लोग हैं, और वे जो कि आत्म-स्वार्थ और स्वयं के गौरव के लिए चिंतित हैं? ऐसे लोग जोकि अपने कामों के परिणामों से बेफिक्र हैं, हमें लगता है कि भगत सिंह को दीर्घायु जीने की बजाय और ऐसे लोगों को अपने कामों पर रूकावट डालते हुए देखने की बजाय और हर बार उनके ऐसे कामों से कष्ट भोगने की बजाय अपने प्राणों को देना और नीरव ‘‘प्रशांति’’ के साथ रहना ही बेहतर था, केवल इस बात का खेद है कि हमें ऐसा नसीब नहीं मिला। 
वास्तव में सवाल यह कि क्या किसी व्यक्ति ने अपने दायित्व का पालन किया या नहीं? हमें यहां उसके नतीजों से सरोकार नहीं है। हम मानते हैं कि दायित्वपूर्ण कामों को समय और जगह का ध्यान रखना चाहिए, लेकिन हम समझते हैं कि जिन सिद्धांतो के लिए भगत सिंह जिए, वे सिद्धांत जगह, समय और काम के विपरीत नहीं थे। हमें ऐसा लग सकता है कि अपने आदर्शों को पाने के लिए उन्होंने जो तरीका चुना उसमें कुछ कमियां थी, लेकिन इसके बावजूद, अपने आप में उन आदर्शों को गलत ठहराने की हिम्मत हम कभी नहीं कर सकते। निश्चित ही यदि भगत सिंह ने मन से उन विश्वासों पर काम किया है और साथ ही उन आदर्शों और उस रास्ते को चुना है जिससे कि उन आदर्शों को साकार किया जा सके, तब हम केवल उनके साहस भरे काम की सराहना कर सकते हैं और वास्तव में हम में यह कहने का साहस है कि यदि वह अपने चुने हुए रास्ते पर चलने में असफल होते तो शायद ही उन्हें सम्मानीय व्यक्ति कहा जाता। लेकिन अब हम घोषित करते हैं कि वह एक ईमानदार व्यक्ति थे। हमारा दृढ़ विश्वास है कि भगत सिंह के आदर्शों की ही भारत को जरूरत है-हमारी जानकारी के अनुसार, वे समधर्म और साम्यवाद के आदर्शों में विश्वास करते थे। इस बात का प्रमाण उनके ये वाक्य हैं जो कि पंजाब के गवर्नर को लिखे पत्र में दिखते हैंः ‘‘हमारी लड़ाई तब तक चलेगी जब तक कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता न हासिल कर लें और लोगों की बीच की असमानताएं-स्तर की असमानताएं-खत्म नहीं हो जाती। यह लड़ाई केवल इसलिए नहीं रूकेगी कि हम मारे गए हैं। यह जारी रहेगी, खुले रूप से और छिपे रूप से।’’
इसके अलावा, हम इस बात से वाकिफ हैं कि वह एक ऐसे आदमी थे जो कि भगवान में विश्वास नहीं करते थे या इस बात में कि चीजें भगवान की मर्जी से चलती हैं। हम यकीन करते हैं कि इस तरह के सिद्धांतो को मानना एक कानूनी अपराध नहीं माना जा सकता, इससे किसी को डरने की जरूरत नहीं है। क्योंकि हमारा दृढ विश्वास है कि इस तरह का सिद्धांत लोगों को नुकसान नहीं पहुंचाता और न ही यह उन्हें किसी चीज से वंचित करता है। यदि संयोगवश, ऐसी कोई संभावना है कि यह सिद्धांत लोगों को नुकसान पहुंचा सकता है तो हम किसी व्यक्ति विशेष, या जाति या राष्ट्र से घृणा किए बगैर और किसी व्यक्ति विशेष को शारीरिक कष्ट पहुंचाए बिना सचतेन रूप से इस आदर्श  के लिए प्रयास करेंगे। इसके साथ ही हम बलिदान भावना से कष्ट भोगने और कठिनाई सहने की चिंता नहीं करेंगे, हम इन आदर्शों को स्वयं साकार करने के लिए हर प्रयास करेंगे। अतः किसी को घबराने या चिंता करने की जरूरत नहीं है।
वह दर्शन जो कि गरीबी को खत्म करना चाहता है वह उस दर्शन के समान है जो कि अछूत प्रथा का उन्मूलन करना चाहता हैं। जिस तरह से अछूत प्रथा को तोड़ने के लिए ऊंची जातियों और नीची जातियों जैसे विचारों का उन्मूलन होना चाहिए उसी तरह से गरीबी के उन्मूलन के लिए समाज को पूंजीपति और मजदूरों के बीच बांटने वाले विचारों से छुटकारा पाना चाहिए। ये सही रूप से समधर्म और साम्यवाद के आदर्श  हैं, भगत सिंह के आदर्श हैं और इसमें अचरज की कोई बात नहीं है कि जो कोई न्यायपूर्ण और मूलभूत आदर्शों  को मानता है। वह स्वाभाविक रूप से कांग्रेस और गांधी की भर्त्सना  करता है। लेकिन हमें ऐसे लोगों से मिलकर आश्चर्य होता है जो कि इन विचारों का समर्थन करते हैं और ‘गांधी जिन्दबाद’ , कांग्रेस जिन्दाबाद’ की घोषणा करते गांधी जिस क्षण दावा करते हैं कि उनका मार्गदर्शन भगवान कर रहे हैं, कि वर्णाश्रम धर्म इस दुनिया में रहने के ढंग में सर्वश्रेष्ठ है, और सब कुछ परलौकिक शक्ति से होता है, हमारा निष्कर्ष  है कि गांधीवाद और ब्राह्मणवाद के बीच कोई भेद नहीं है। और जब तक कांग्रेस पर गांधी के इस दर्शन का प्रभाव है और कांग्रेस इससे मुक्त नहीं हो जाती इससे देश का कोई भला नहीं होने वाला है। अभी हाल में, हमारे कुछ लोगों को हमारी समझ के सच का एहसास हुआ है और गांधीवाद की निंदा के लिए ज्ञान और साहस हासिल किया है। यह हमारे जैसे विचार रखने वालों की एक बड़ी जीत है।
यदि भगत सिंह को फांसी नहीं लगी होती, यदि उन्होंने अपने जीवन का बलिदान नहीं दिया होता, तब हमारे जैसे विचार रखने वालों के लिए इस तरह की उपलब्धि का कोई आधार नहीं होता। यदि भगत सिंह को फांसी नहीं हुई होती, गांधीवाद का गौरव बढ़ जाता। किसी जीवन का यदि आम तरीके से या फिर किसी बीमारी या कष्ट से अंत हो जाता और वह शरीर राख में बदल जाता तो वह जीवन इतना उपयोगी न होता जितना कि इस दुनिया के लोगों को वास्तविक समानता और शांति  को साकार करने का रास्ता दिखाने से भगत सिंह का जीवन उपयोगी साबित हुआ। भगत सिंह ने एक उच्च अवस्था प्राप्त की है जिसे कोई मामूली व्यक्ति आसानी से नहीं पा सकता। इसलिए हम हाथ उठाके तहे दिल से अपनी पुरजोर आवाज से भगत सिंह की प्रशंसा  करते हैं। इस संदर्भ में हम सरकार से अपील करते हैं कि इस तरह के विचारों पर साहस के साथ अमल करने वाले व्यक्तियों की पहचान करे और प्रत्येक प्रांत में हर महीने कम से कम चार व्यक्तियों केा फांसी दे।
(ई.वी. रामासामी पेरियार की पत्रिका ‘कुडि अरसु’ में दिनांक 29.3.1931 को प्रकाशित संपादकीय)
(अनुवाद : जगदीश चन्द्र )

तीन  शिकार 
(भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू की शाहदत  पर डाॅ. अम्बेडकर)
डाॅ. बी आर अंबेडकर
भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू इन तीनों को अन्ततः फांसी पर लटका दिया गया। इन तीनों पर यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने सान्डर्स नामक अंग्रेजी अफसर और चमनसिंह नामक सिख पुलिस अधिकारी की लाहौर में हत्या की। इसके अलावा बनारस में किसी पुलिस अधिकारी की हत्या का आरोप, असेम्ब्ली में बम फेंकने का आरोप और मौलमिया नामक गांव में एक मकान पर डकैती डाल कर वहां लूटपाट एवं मकान मालिक की हत्या करने जैसे तीन चार आरोप भी उन पर लगे। इनमें से असेम्ब्ली में बम फेंकने का आरोप भगतसिंह ने खुद कबूल किया था और इसके लिए उसे और बटुकेश्वर दत्त नामक उनके एक सहायक दोस्त को उम्रकैद के तौर पर काला पानी की सजा सुनायी गयी। सांडर्स की हत्या भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों ने की ऐसी स्वीकारोक्ति जयगोपाल नामक भगतसिंह के दूसरे सहयोगी ने भी की थी और उसी बुनियाद पर सरकार ने भगतसिंह के खिलाफ मुकदमा कायम किया था। इस मुकदमें में तीनों ने भाग नहीं लिया था। हाईकोर्ट के तीन न्यायाधीशों के स्पेशल ट्रीब्युनल का गठन करके  उनके सामने यह मुकदमा चला और उन तीनों ने इन्हें दोषी घोषित किया और उन्हें फांसी की सजा सुना दी। इस सजा पर अमल न हो और फांसी के बजाय उन्हें अधिक से अधिक काला पानी की सजा सुनायी जाए ऐसी गुजारिश के साथ भगतसिंह के पिता ने राजा और वायसराय के यहां दरखास्त भी की। अनेक बड़े बड़े नेताओं ने और तमाम अन्य लोगों ने भगतसिंह को इस तरह सजा न दी जाए इसे लेकर सरकार से अपील भी की। गांधीजी और लाॅर्ड इरविन के बीच चली आपसी चर्चाओं में भी भगतसिंह की फांसी की सजा का मसला अवश्य उठा होगा और लार्ड इरविन ने भले ही मैं भगतसिंह की जान बचाउंगा ऐसा ठोस वायदा गांधीजी से न किया हो, मगर लार्ड इरविन इस सन्दर्भ में पूरी कोशिश करेंगे और अपने अधिकारों के दायरे में इन तीनों की जान बचाएंगे ऐसी उम्मीद गांधीजी के भाषण से पैदा हुई थी। मगर यह सभी उम्मीदें, अनुमान और गुजारिशें गलत साबित हुई और बीते 23 मार्च को शाम 7 बजे इन तीनों  को लाहौर सेन्ट्रल  जेल में फांसी दी गयी। ‘ हमारी जान बख्श दें’ ऐसी दया की अपील इन तीनों में से किसी ने भी नहीं की थी, हां, फांसी की सूली पर चढ़ाने के बजाए हमें गोलियों से उड़ा दिया जाए ऐसी इच्छा भगतसिंह ने प्रगट की थी, ऐसी खबरें अवश्य आयी हैं। मगर उनकी इस आखरी इच्छा का भी सम्मान नहीं किया गया। न्यायाधीश के आदेश  पर हुबहू अमल किया गया ! ‘अंतिम सांस तक फांसी पर लटका दें’ यही निर्णय जज ने सुनाया था। अगर गोलियों से उड़ा दिया जाता तो इस निर्णय पर शब्दिक अमल नहीं माना जाता। न्यायदेवता के निर्णय पर बिल्कुल शाब्दिक अर्थों में हुबहू अमल किया गया और उसके कथनानुसार ही इन तीनों को शिकार बनाया गया।
यह बलिदान किसके लिए
अगर सरकार को यह उम्मीद हो कि इस घटना से ‘अंग्रेजी सरकार बिल्कुल न्यायप्रिय है - न्यायपालिका के आदेश पर हुबहू अमल करती है’ ऐसी समझदारी लोगों के बीच मजबूत होगी और सरकार की इसी ‘न्यायप्रियता’ के चलते लोग उसका समर्थन करेंगे तो यह सरकार की नादानी समझी जा सकती है। क्योंकि यह बलिदान ब्रिटिश  न्यायदेवता की शोहरत को अधिक धवल और पारदर्शी बनाने के इरादे से किया गया है, इस बात पर किसी का भी यकीन नहीं है। खुद सरकार भी इसी समझदारी के आधार पर अपने आप को संतुष्ट नहीं कर सकती है। फिर बाकियों को भी इसी न्यायप्रियता के आवरण में वह किस तरह संतुष्ट  कर सकती है? न्यायदेवता की भक्ति के तौर पर नहीं बल्कि विलायत के कान्जर्वेटिव ‘राजनीतिक रूढिवादी‘ पार्टी और जनमत के डर से इस बलिदान को अंजाम दिया गया है, इस बात को सरकार के साथ साथ तमाम दुनिया भी जानती है। गांधी जैसे राजनीतिक बन्दियों को बिना षर्त रिहा करने और गांधी खेमे से समझौता करने से ब्रिटिश साम्राज्य की बदनामी हुई है और जिसके लिए लेबर पार्टी की मौजूदा सरकार और उनके इषारे पर चलनेवाला वायसराय है, ऐसा षोरगुल विलायत के राजनीतिक रूढिवादी पार्टी के कुछ कटटरपंथी नेताओं ने चला रखा है। और ऐसे समय में एक अंग्रेज व्यक्ति और अधिकारी की हत्या करने का आरोप जिस पर लगा हो और वह साबित भी हो चुका हो, ऐसे राजनीतिक क्रांतिकारी अपराधी को अगर इरविन ने मुआफी दी होती तो इन राजनीतिक रूढिवादियों के हाथों बना बनाया मुद्दा मिल जाता। पहले से ही ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सरकार डांवाडोल चल रही है और उसी परिस्थिति में अगर यह मसला राजनीतिक रूढिवादियों को मिलता कि वह अंग्रेज व्यक्ति और अधिकारी के हिन्दुस्तानी हत्यारे को भी माफ करती है तो यह अच्छा बहाना वहां के राजनीतिक रूढिवादियों को मिलता और इंग्लैण्ड का लोकमत लेबर पार्टी के खिलाफ बनाने में उन्हें सहूलियत प्रदान होती। इस संकट से बचने के लिए और रूढिवादियों के गुस्से की आग न भड़के इसलिए फांसी की इन सजा को अंजाम दिया गया है। यह कदम ब्रिटिष न्यायपालिका को खुश  करने के लिए नहीं बल्कि ब्रिटिश लोकमत को खुश करने के लिए उठाया गया है। अगर निजी तौर पर यह मामला लार्ड इरविन की पसंदगी -नापसंदगी से जुड़ा होता तो उन्होंने अपने अधिकारों का इस्तेमाल करके फांसी की सजा रद्द करके उसके स्थान पर उमर कैद की सजा भगत सिंह आदि को सुनायी होती। विलायत की लेबर पार्टी के मंत्रिमंडल ने भी लार्ड इरविन को इसके लिए समर्थन प्रदान किया होता, गांधी इरविन करार के बहाने से इसे अंजाम देकर भारत के जनमत को राजी करना जरूरी था। जाते जाते लार्ड इरविन भी जनता का दिल जीत लेते। मगर इंग्लेण्ड की अपने रूढिवादी बिरादरों और यहां के उसी मनोवृत्ती की नौकरशाही के गुस्से का वह शिकार होते। इसलिए जनमत की परवाह किए बगैर लार्ड इरविन की सरकार ने भगतसिंह आदि को फांसी पर चढ़ा दिया और वह भी कराची कांग्रेस के तीन चार दिन पहले। गांधी-इरविन करार को मटियामेट करने व समझौते की गांधी की कोशिशो को विफल करने के लिए भगतसिंह को फांसी और फांसी के लिए मुकरर किया समय, यह दोनों बातें काफी थी। अगर इस समझौते को समाप्त करने का ही इरादा लार्ड इरविन सरकार का था तो इस कार्रवाई के अलावा और कोई मजबूत मसला उसे ढूढने से भी नहीं मिलता। इस नजरिये से भी देखें तो गांधीजी के कथनानुसार सरकार ने यह बड़ी भूल ‘ब्लंडर‘ की है, यह कहना अनुचित नहीं होगा। लुब्बेलुआब यही कि जनमत की परवाह किए बगैर, गांधी-इरविन समझौते का क्या होगा इसकी चिन्ता किए बिना विलायत के रूढिवादियों के गुस्से का शिकार होने से अपने आप को बचाने के लिए, भगतसिंह आदि को बली चढ़ाया गया यह बात अब छिप नहीं सकेगी यह बात सरकार को पक्के तौर पर मान लेनी चाहिए।

(प्रस्तुत अंश ‘डाॅ. बाबासाहेब अम्बेडकर, एम ए, पीएचडी, डीएससी, बार-एट-लाॅ’ की अगुआई में निकलने वाले पाक्षिक अखबार ‘जनता’ 13 अप्रेल 1931’ से लिया गया है।)

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