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शनिवार, 30 सितंबर 2017

बीएचयू के हालात के लिए जिम्मेदार ब्राह्मणवादी झूठ

महेश राठी 
विश्वविद्यालय परिसर में छात्राओं की सुरक्षा के सवाल से शुरू हुए बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की छात्राओं के आंदोलन ने उस उदण्ड़ मानसिकता को बेनकाब कर दिया है जो एक शिकारी की तरह नारी के आत्मसम्मान और सुरक्षा पर हमले के मौके की तलाश में रहती है। यह बीएचयू परिसर में केवल छात्राओं की सुरक्षा का सवाल नही है बल्कि उनकी आजादी को नियन्त्रित करने की उस मानसिकता का सवाल है जो समाज में नारी की प्रत्येक गतिविधि को नियन्त्रित करने की हिम्मत दिखाती है। परंतु भारतीय समाज की उस मानसिकता का केन्द्र बनारस हिंदू विश्वविद्यालय ही क्यों? वास्तव में यह आधुनिक शिक्षा हासिल कर रही छात्राओं की तार्किक आधुनिकता और उस ब्राहमणवादी वर्चस्व की मानसिकता के बीच का संघर्ष है जो वर्षों से बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में जड़े जमाये बैठी है। 
इस ब्राहमणवादी वर्चस्व और जकड़बंदी की कहानी के मुख्य सूत्रधार और कोई नही वही पण्डित मदन मोहन मालवीय हैं जिन्हें आज तक बीएचयू के संस्थापक के रूप में पेश किया जाता रहा है। जबकि वास्तविकता यह है कि पं. मदन मोहन मालवीय का इस विश्वविद्यालय की स्थापना में उतना और उस प्रकार का योगदान नही है जितना कि उन्हें श्रेय दिया जाता रहा है। बीएचयू की स्थापना का मूल विचार बुनियादी रूप से एनी बेसेन्ट का था जिसे उन्होंने राजा दरभंगा और ब्रिटिश भारत सरकार के सहयोग से मूर्त रूप दिया। एनी बेसेन्ट ने इस अभियान की शुरूआत 1904 से की थी। परंतु बीएचयू के इतिहास को इस प्रकार पेश किया जाता रहा है कि मानों उसकी शुरूआत ही 1916 में हुई थी और उससे पहले के इतिहास और योगदान को ना केवल विस्मृत कर दिया गया बल्कि बेहद चालाकी से गायब कर दिया गया। जाहिर है इस काम को 1919 से 1938 तक इस विश्वविद्यालय के कुलपति रहे पं. मदन मोहन मालवीय के अलावा किसी के द्वारा कर दिये जाना संभव ही नही था। क्योंकि 1916 से इतिहास को संकलित करवाने का कार्य भी उन्हीं के कार्यकाल में 1936 में सीनेट सदस्य श्री सुदरम द्वारा किया गया। जिसमें एनी बेसेन्ट और महाराजा दरभंगा और अन्य राजाओं और जमींदारों के काम को कम करके दिखाया गया था। मदन मोहन मालवीय के निर्देशन में तैयार इस इस इतिहास में 1904 से लेकर 1911 के इतिहास को या तो बेहद धूर्तता के साथ गायब कर दिया गया अथवा उसे नाममात्र के लिए जाहिर किया गया। असल में मदन मोहन मालवीय की एनी बेसेन्ट के साथ मुलाकात अप्रैल 1911 में हुई और जुलाई 1911 से उन्होंने मिलकर काम को आगे बढ़ाया। मौलिक रूप से बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का विचार एनी बेसेन्ट का था और उनका १८९८ में स्थापित सेन्ट्रल हिंदू काॅलेज ही इस विश्वविद्यालय का आधार बना। 1911 में भी विश्वविद्यालय के लिए बनी सोसायटी में पं. मदन मोहन मालवीय एक साधारण सदस्य ही थे। जबकि राजा दरभंगा रामेश्वर सिंह इस सोसायटी के अध्यक्ष थे और 1916 में विश्वविद्यालय की स्थापना के समय भी केवल राजा दरभंगा और उस समय के वायसराय ने ही सभा को संबोधित किया था। इस विषय में शोध करने वाले और जानकारों का कहना है कि 1904 अथवा 1911 तक पं. मदन मोहन मालवीय की ऐसी स्थिति ही नही थी कि वो विश्वविद्यालय के लिए आवश्यक धनराशि एकत्र कर सकें अथवा अंग्रेज सरकार पर विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए विधेयक लाने का दबाव बना सकें। यहां तक कि इस विचार के कार्यान्वित करने की शुरूआत के समय और गांधी के भारत वापस आकर राजनीति में उतरने के काफी समय तक कांग्रेस भी देश में ऐसी कोई निर्णायक ताकत नही थी। जाहिर है एनी  बेसेन्ट के विचार के लिए धन संग्रह का काम राजा दरभंगा ने किया और इस विश्वविद्यालय को मूर्त रूप दिया। परंतु आश्चर्यजनक तरीके से इस विश्वविद्यालय के संस्थापक बन बैठे पं. मदन मोहन मालवीय। विश्वविद्यालय की स्थापना में एक महिला के प्रमुख योगदान को खारिज करके स्वयं उस जगह को हथिया लेने को क्या कहा जायेगा। यह ब्राहमणवादी धूर्तता है जिसमें असली नायिका साजिश के तहत गायब कर दी गयी है और झूठा नायक सामने है। यह सरासर नारी विरोधी दृष्टिकोण है जो इस विश्वविद्यालय की तथाकथित परंपराओं की जड़ है। इस प्रकार विश्वविद्यालय परंपरागत रूप से नारी विरोधी है। 
वास्तव में ब्राहमणवादी व्यवस्था धूर्तता और कपटपूर्ण षडयंत्रों की मिसाल के अलावा कुछ भी नही है। यह धूर्तता आपके योगदान को लूट सकती है, इतिहास को ठग सकती है और अपना बनाकर पेश भी कर सकती है। पंरतु विडंबना यह है कि ऐसे धूर्त ब्राहमणवाद के एक नायक के सम्मान के नाम पर नारी स्वतंत्रता और सम्मान का झूठा पाठ इस विश्वविद्यालय की छात्राओं को उनके आंदोलन के बाद पढ़ाया जा रहा है।

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