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शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

तबाही की कगार पर शहरी इमारतें

महेश राठी
 उनके लिए यह नई उम्मीदों, नए सपनों का शहर था, जो आज बिखरे सन्नाटे और मौत की खमोशी की जमीन है। जो आशियाना उनकी सुरक्षा और जीवन की परिभाषा था, वही उनकी कब्रगाह बन गया। अब मीडिया से लेकर आम आदमी तक इसमें बिल्डर, पुलिस, प्रशासन के गठजोड़ या तकनीकी खामियों की सनसनीखेज कहानियां गढ़ सकता है, लेकिन वास्तव में यह हमारे समाज और राजनीति की अदूरदर्शिता और संवेदनहीनता की जिंदा और दर्दनाक मिसाल है। दिल्ली के ललिता पार्क की दुर्घटना का जिम्मा यमुना के बढ़े जलस्तर से लेकर बिल्डर और निगम अधिकारियों तक सभी पर डालने की सुनियोजित कोशिश की जा रही है, मगर इस हादसे के लिए जिम्मेदार शहर को खूबसूरत और विश्व स्तरीय बनाने का जनून और उसके लिए बनाई वे नीतियां हैं, जिसने शहर से गरीबो को उजाड़ कर उनके घर और रोजगार से दूर जंगल में फेंक दिया, उससे मीडिया और आमजन सभी जाने-अनजाने मुंह मोड़ रहे हैं। अब एक-दूसरे पर जिम्मेदारी डालकर मामले को दबाने का बेमिसाल राजनीतिक प्रबंधन फिर शुरू हो चुका है। असली गुनाहगारों पर सभी खामोश हैं। 67 लोगों की जान लेकर सैंकड़ों को घायल कर देने वाला यह मामला पहली नजर में बिल्डर और निगम अधिकारियो की मिलीभगत से होने वाले अवैध निर्माण का है, जिसमें स्थानीय पुलिस की साठगांठ भी है और राजनेताओं की शह भी। हालांकि अनियमितताओं और भ्रष्टाचार के इस गठजोड़ से न इनकार किया जा सकता है और न ही इसे नजरअंदाज। परंतु एक कारगर पुनर्वास नीति और तार्किक और दूरदर्शी समग्र शहरी विकास नीति का अभाव ही इस हादसे के प्रमुख कारण हैं। राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी के लिए यमुना के आसपास कई बस्तियों को उजाड़ कर दूसरे स्थानों पर स्थानांतरित कर दिया गया। स्लम बस्तियों की इस पुनर्वास प्रक्रिया को बगैर किसी कारगर नीति और तार्किक सोच के अंजाम दिया गया, जो अंततोगत्वा राजधानी के सबसे बडे़ जानलेवा हादसे का कारण बनी। स्लम बस्तियों को उजाड़ने और पुनर्वासित करने की प्रक्ति्रया का कहीं कोई समन्वय यहां के निवासियों के रोजगार से नहीं था, जबकि इन स्लम बस्तियों के बसने का एकमात्र कारण इन स्थानों का गरीब लोगों का रोजगार स्त्रोत स्थल होना ही होता है। यदि ढह गई इमारत में रहने वाले लोगों की सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि और यहां रहने की विवशताओं का विश्लेषण किया जाए तो इस हादसे के वास्तविक कारणों को आसानी से समझा जा सकता है। इस इमारत में रहने वाले तीन सौ के लगभग लोग वे हैं, जो उजाडे़ जाने से पहले नजदीकी यमुना पुश्ते की झुग्गी बस्तियों में रहते थे। यमुना पुश्ते की स्लम बस्ती में रहने वाले इन लोगों के रोजगार यहीं आसपास की मध्यम-निम्न मध्यमवर्गीय बस्तियों लक्ष्मी नगर, शकरपुर, पांडव नगर और ललिता पार्क पर निर्भर था। जबकि सरकार ने इन्हें उजाड़कर यहां से चालीस किलोमीटर दूर सावदा घेवरा में ऐसी जगह फेंक दिया, जहां इनके पास न नौकरी थी, न ही कोई अन्य कारोबार। इनके पास यदि कुछ बचता था तो कारोबार की मजबूरी में लक्ष्मी नगर एवं शकरपुर के आसपास रहने की विवशता, जिसका भरपूर फायदा छुटभैया किस्म के बिल्डरों ने उठाया। दुघर्टना का शिकार अधिकतर महिला एवं पुरुषों में महिलाएं आसपास के घरों में घरेलू नौकर और पुरुष रेहड़ी-पटरी पर घरेलू जरूरतों के सामान बेचने का काम करते रहे हैं। इसके अलावा इमारत में दबने वालों में ऐसे कई बच्चे भी थे, जो आसपास की कॉलोनियों में कढ़ाई और जरी के काम में लगे हुए बाल मजदूर थे, जिनकी ओर अभी तक किसी का ध्यान नहीं है। एक-एक कमरे में पांच से लेकर 15 तक रहने वाले लोगों की इस विवशता को आसानी से समझा जा सकता है। यही विवशता इन मासूम मजदूरों की मौत की वजह बन गई। अपनी क्षमताओं से दस गुना अधिक विवशताओं के बोझ तले दबी इमारतों की श्रृंखला की यह कहानी केवल लक्ष्मी नगर या ललिता पार्क की नहीं है। पूरे शहर में जहां से भी पिछले सालों में दिल्ली को विश्व स्तरीय शहर बनाने के लिए झुग्गी बस्तियों को उजाड़ा गया है, उसके आसपास की सभी बस्तियां में ऐसी इमारतों और उसमें रहने वाले जरूरतमंदों की भरमार है। यमुना पुश्ता राजघाट से उजाडे़ जाने के बाद वहां रहने वाले झुग्गी वासियों को तो बवाना में पुनस्र्थापित कर दिया गया, लेकिन उनके जीवनयापन के सारे स्त्रोत जामा मस्जिद और उसके आसपास की बस्तियों में ही थे, जिस कारण इनमें से कई के सामने पुरानी दिल्ली के इन्ही इलाकों में रहने की मजबूरी थी। कमोबेश यही स्थिति नंगला माछी और निजामुद्दीन यमुना पुल के करीब रहने वाले लोगों की भी है, जिनमें से अधिकतर सराय काले खां के आसपास की बस्तियों में रहते हैं। यमुना नदी तट से उजाड़ी गई बस्तियों की बड़ी आबादी इसी प्रकार से लक्ष्मी नगर, शकरपुर, पांडव नगर, गणेश नगर, जामा मस्जिद, नबी करीम, खजूरी खास और जाकिर नगर की बेशुमार दड़बेनुमा कमजोर इमारतों के कमरों में संयुक्त रूप से या अपने परिवारों के साथ बड़ी संख्या में रहती है। यदि सरकार ने उन्हें उजाड़कर पुर्नस्थापित करने की योजना को इनके रोजगार से भी जोड़ा होता तो संभवतया ऐसी स्थिति नहीं आती। कुछ राजनीतिक दलों और कई समाजिक संगठनों ने स्लम बस्तियों को उजाडे़ जाते समय आंदोलन चलाकर मांग की थी कि इन्हें बस्तियों के तीन किलोमीटर के दायरे में ही बसाया जाए, क्योंकि इनके रोजगार के साधन यहीं पर हैं। ऐसा नहीं होने की स्थिति में अपने रोजगार की जरूरतों के कारण इनका व्यावहारिक विस्थापन संभव नहीं होगा और ये लोग अपने आवंटित प्लाटों को बेचकर या छोड़कर अपने रोजगार स्थलों पर दोबारा नए तरह के स्लम का निर्माण करेंगे। कई सालों के बाद अंततोगत्वा नए तरह के इस किरायेदारी स्लम की शुरुआत हो चुकी है, जो दिल्ली के इस हिस्से में नई तरह की तबाही के संकेत दे रहा है। सरकार की पुर्नवास नीतियों में स्लम बस्तियों को एक जगह से उजाड़कर दूसरी जगह बसाने देने के अलावा कोई दूसरी दूरदर्शी योजना नहीं है। उच्चतम न्यायालय की लगातार हिदायतों के बाद भी आज तक पुनस्र्थापित स्लम बस्तियां बुनियादी सुविधाओं के आभाव से बुरी तरह ग्रस्त हैं। इसके अलावा दिल्ली में अनधिकृत बस्तियों के बनने और बनने की भी एक बड़ी लंबी कहानी है। देश की राजधानी जो आज बिल्डर माफिया, राजनीति, नौकरशाही और पुलिस के नापाक गठजोड़ के कारण अनियंत्रित, अनियमित और अराजक ढंग से बढ़ रही इमारतों का शहर बन गई है, तीन दशक पहले तक यही राजधानी राजनीति, नौकरशाही और बेतरतीब ढंग से शहर को बेचने वाले भूमाफियाओं के कब्जे में थी। भूमाफियाओं की यह अराजकता शहरी विकास की नीतियों एवं योजना की सुनियोजित विफलता का परिणाम थी। सरकार ने दिल्ली के विकास को सुरक्षित एवं सही दिशा देने के लिए 1957 में दिल्ली विकास प्राधिकरण की स्थापना की, जो पूरी तरह अपनी जिम्मेदारियों में विफल रहा। डीडीए की इसी विफलता ने दिल्ली को भूमाफिया और बिल्डरों की राजधानी में परिवर्तित कर दिया। आज दिल्ली की साठ प्रतिशत से अधिक आबादी इन्हीं भूमाफियाओं और बिल्डरों की राजधानी में रहती है। यदि शहरी विकास के क्षत्रप सही अर्थो में इस हादसे पर संजीदा हैं तो उन्हें बयानबाजी छोड़कर अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करते हुए गरीबों के पुनस्र्थापन और शहरी विकास की अपनी नीतियों को समाज के प्रत्येक वर्ग की जरूरतों के मुताबिक बदलना चाहिए। साथ ही शहरी मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग को भी शहर में गरीबों की जरूरत को पहचान कर उनके लिए उचित स्थान बनाने की मांग करनी चाहिए, क्योंकि दिल्ली के जमीन पर फैलने के बाद अब आकाश की ओर बढ़ने की शुरुआत हो चुकी है और बगैर किसी समग्र शहरी विकास योजना के आगे बढ़ने से देश की राजधानी तबाही की नई संभावनाओं का शहर बनकर रह जाएगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

1 टिप्पणी:

  1. kya krae sir imarat bnane kee har noc sirf 100-100 rupae mae bikti hai...............aur uskae sath bikati hai har vo jaan jo unmae rahti hai.......

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