महेश राठी
अप्रत्याशित कदम उठाते हुए सीबीआई ने हरियाणा के पूर्व डीजीपी राठौर के खिलाफ दो मामले बंद करने का निर्णय ले लिया, जिससे अंततोगत्वा राठौर को जमानत मिलने का आधार बन गया है। अंततोगत्वा सत्ता के दुरुपयोग और अपने कारनामों पर गर्व की कुटिल मुस्कुराहट जीत गई। राठौर जानते थे कि सीबीआई के अधिकारी अपने वर्दी बंधुत्व का निर्वाह करते हुए आखिर में उन्ही के पक्ष में निर्णय करेंगे और ठीक ऐसा ही हुआ भी। रुचिका छेड़छाड़ मामला आज देश में नित नई घटने वाली ऐसी घटनाओं में से है जो संविधान की मूल भावना को स्पष्ट चुनौती देते हुए स्वच्छंद एवं निरंकुश शासक वर्ग की मनमानी ओर स्पष्ट इशारा करता है। हालांकि समाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, स्तरों और अवसरों की समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की वह भावना है जिसकी प्राप्ति के लिए भारतीय संविधान वादा करता है। परंतु राठौर जैसी विकृत मानसिकता वाले नौकरशाह और इनको संरक्षण देने वाले राजनेताओं का गठबंधन लगातार संविधान और संविधान की मूलभावनाओं का अपमान करते हैं। अन्यथा 1990 में घटी इस घटना में शक्तिशाली पुलिस अधिकारी को दंडित करने के लिए कानून को बीस साल का लंबा समय नही लगता। रुचिका का मामला छेड़छाड़ से बढ़कर एक पुलिस अधिकारी के सत्ता दुरुपयोग और नौकरशाह व राजनेताओं की मिलीभगत एवं ढि़ठाई का प्रमाण है। हरियाणा की सत्ता में रहने वाली राजनीतिक पार्टियों में कोई भी ऐसी पार्टी नहीं है जिसके समक्ष यह मामला नहीं आया हो या उसने रुचिका या उसके परिवार को न्याय दिलवाने की मंशा जाहिर की हो। 1990 में जब यह घटना घटी तो उस समय राज्य में हुकुम सिंह की सरकार थी और संपत सिंह गृहमंत्री थे शुरुआती जांच के बाद तत्कालीन पुलिस डीजीपी आरआर सिंह ने एक चौदह वर्षीय छात्रा के साथ छेड़छाड़ के मामले में राठौर के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की सिफारिश की परंतु गृहमंत्री कार्यालय में पहंुचकर इस सिफारिश ने दम तोड़ दिया। इसके बाद गिरहोत्रा और उनके करीबी आनंद प्रकाश परिवार के खिलाफ प्रताड़नाओं का एक गहन और दर्दनाक दौर शुरू हुआ। रुचिका के पिता सुभाष चंद्र गिरहोत्रा और भाई आशू को चोरी और हत्या के कई मामलों में फंसाया जाता रहा। परिवार की प्रताड़नाओं का यह दौर इतना भयावह था कि जब रुचिका के तेरह वर्षीय छोटे भाई को पुलिस ने कार चोरी के पांच मामलों में फंसाया तो इस प्रताड़ना से तंग आकर दिसंबर 1993 में आत्महत्या कर ली। जब रुचिका ने आत्महत्या की उस समय भी आशु पुलिस हिरासत में था। एक शक्तिशाली पुलिस अधिकारी द्वारा प्रताडि़त किए जाने का यह पूरा प्रकरण जितना भयावह है उससे भी अधिक पुलिस अधिकारी की पंहुच एवं संपर्को के दुरुपयोग का स्पष्ट प्रदर्शन है। पूरे प्रकरण में राजनीतिक संलिप्तता भी है और नौकरशाही की सक्रियता भी। इस घटना की एकमात्र गवाह रुचिका की दोस्त अनुराधा के माता-पिता आनंद प्रकाश और मधु प्रकाश के सामने आने के बाद 1998 में उच्च न्यायालय ने सीबीआई जांच शुरू करने का आदेश दिया। इसके बावजूद प्रदेश की ओमप्रकाश चौटाला सरकार ने राठौर को पदोन्नति देकर राष्ट्रपति पदक की सिफारिश की। तत्पश्चात भूपेंद्र सिंह हुड्डा की वर्तमान सरकार का व्यवहार भी पूरे मामले पर लीपापोती का ही रहा। मीडिया के आशानुरूप इस मामले को देश के सामने उजागर किया गया, तब कहीं जाकर सरकार कार्यवाही करते हुए दिखी। पर अब ताजा घटनाक्रम के बाद स्थिति जस की तस बनती दिख रही है। एक स्थापित समृद्ध परिवार देखते-देखते एक नौकरशाह के शर्मनाक कुकृत्य और उसके ढिठाईपूर्ण बचाव के कारण तबाह हो गया और सीबीआई को कोई साक्ष्य नही मिल पा रहा। पूरी संभावना है कि राठौर और उनके दोस्त सक्रिय हैं कि दो मासूम जिंदगियों को मिटा देने वाले की मुस्कुराहट को कैसे कायम रखा जाए। रुचिका प्रकरण के उजागर होने के बाद जहां एक तरफ राजनीतिक दोषारोपण की राजनीति गरम हो उठी थी तो दूसरी तरफ पुलिस सुधारों की चर्चा भी शुरू हो गई थी। भारतीय संविधान के पांच दशक से भी अधिक समय पूरा होने पर भी ऐसी घटनाओं का होना या तो संविधान की विफलता है या संविधान के प्रति हमारी विफलता है। यदि पूरे परिदृश्य का विश्लेषण करें तो समाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बाहुबलियों के अस्तित्व उनके लोकव्यवहार और असीमित अधिकारों से संविधान को मिलने वाली चुनौतियों से पैदा स्थितियां केवल पुलिस सुधारों अथवा संविधान की विफलता का सवाल नहीं वरन पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था में उपजी विसंगतियों का मामला है। यह लोकतांत्रिक विसंगति या लोकतांत्रिक व्यवस्था की विफलता नहीं, बल्कि लोकतंत्र में आए एक ठहराव को रेखांकित करता है। वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में नौकरशाह अपने चारों ओर आसानी से महसूस कर सकते हैं। यह किसी भी दौर के शासक वर्ग से ज्यादा अधिकार प्राप्त शासक वर्ग है और यह स्पष्ट रूप से सांमती और पूंजीवादी घालमेल के हमारे समाजिक रूप को परिलक्षित करता है। यह अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए शासकीय अधिकारों को एक औजार की तरह प्रयोग करता है एवं इस क्रम में उसके व्यवहार की ढिठाई उसे सांमती शासक वर्गो से भी अधिक बड़ा शासक बनाती है। राठौर जैसों के लिए नौकरशाही एक औजार की तरह है जिसका प्रयोग वह अपने स्वाथरें की पूर्ति के लिए कर सकते हैं तो कभी दोषारोपण की राजनीति के लिए। वास्तव में तमाम विरोधों एवं दोषारोपण के बावजूद नौकरशाहों के बीच स्वाभाविक एवं छिपी हुई मित्रता होती है जो इसे एक शासक वर्ग के रूप में स्थापित करती है। इस नए शासक वर्ग के अधिकारों का सूत्रधार वर्तमान प्रतिनिधित्व लोकतंत्र बनता है। जिसमें हम अपने प्रतिनिधियों का चयन कर उन्हें अपने समस्त अधिकार हस्तांतरित कर देते हैं। जिन अधिकारों का प्रयोग यह वर्ग आम नागरिकों के हितों की कीमत पर अपने हितों को साधने के लिए करता है, अंततोगत्वा यह इसकी वर्गीय धूर्तता होती है। संविधान के शिल्पी भीमराव अंबेडकर ने भी इसे लागू करने के दिन 26 जनवरी 1950 को कहा था कि हम विरोधाभासी जीवन में प्रवेश कर रहे हैं और हमें लगातार इन विरोधाभासों को यथाशीघ्र हल करते रहना चाहिए अन्यथा इन विसंगतियों से पीड़ा झेलने वाले लोगों का उबाल मेहनत से बनाए इस राजनीतिक ढांचे को बदल देगा। अब जब इस जनवादी ढांचे को 60 साल पृरे हो रहे हैं तो आवश्यकता इस नवोदित मध्यम वर्ग की जरूरतों के अनुसार एक नई राजनीतिक धारा तैयार करते हुए नए लोकतंत्र के निर्माण को दिशा देने की है। जो संभवत: किसी पुलिस सुधार अथवा संशोधन से कहीं बड़ा सवाल है, क्योंकि सवाल सभी की जरूरतो को पूरा करने वाला एक सबल नागरिक समाज बनाने का है जो लोकतंत्र में जन भागीदारी को बढ़ाने से ही संभव है। वर्तमान समय में हम सूचना और प्रौद्योगिकी के एक नए युग में प्रवेश कर रहे हैं जिसमें वर्तमान शासन तंत्र में नागरिकों की भूमिका को बढ़ाने और परिभाषित किए जाने की आवश्यकता है। ताकि शासन तंत्र के प्रत्येक अंग को नागरिकों के प्रति जवाबदेह बनाया जा सके। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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