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शनिवार, 15 जनवरी 2011

मानवाधिकारो व न्याय के लिए जाएँ बालकृष्णन

महेश राठी
न्यायपालिका के लिए प्रतिबद्धता और आम भारतीय तक प्राक्रतिक न्याय की पंहुच का मानवाधिकार आज खतरे में है !  मुख्य न्यायधीश के कार्यकाल एवं उनकी कार्यप्रणाली पर उठते सवालों और मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद पर बने रहने की जस्टिस बालकृष्णन की हठ मानवाधिकारों पर एक नए खतरे की नई आहट की तरह है ! खतरे की यह आहट तब और साफ एवं खतरनाक हो जाती है जब सुप्रतिष्ठित और अपनी इमानदार छवि के लिए विख्यात जस्टिस वी आर कृष्णाय्यर की हिदायत के बाद भी बालकृष्णन का रुख जरा भी नहीं बदलता है ! दरअसल बालकृष्णन ऐसा दृढ निश्चय दिखा रहे हैं जिसमे निश्चय कम और कुर्सी पकडे रहने की ढिठाई अधिक दिखाई पड़ती है ! सत्ता के साथ कदमताल करने और सुविधाए कमाने की एक नई संस्कृति विकसित हो रही है जिसमे जो कुछ लोग फिट हो रहे है वो इस फिटनेस का नकद फायदा भी उठा ही रहे हैं ! अफ़सोस इस बात का है कि इस नई संस्कृति का शिकार अब नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए बने संस्थान हो रहे है, मानवाधिकार आयोग हो, सूचना आयोग, महिला आयोग, बल अधिकार आयोग या न्यायपालिका सबकी स्थिति लगभग एक जैसी ही है सभी जगहों पर सत्ता के एजेंट ही बैठे है और उनका तालमेल अद्भुत है, मजाल कही आम आदमी के लिए कोई एक छेद भर भी गुंजाईस हो ! चोरी और सीनाजोरी की यह व्यवस्था मुकम्मिल तौर पर इस सत्ता और उसके एजेंटो की है ना कम ना ज्यादा पूरी की पूरी जमीनी लूट से उपरी न्यायपालिका और आसमानी सत्ता तक !
               अब बालकृष्णन से आप क्या आशा कर सकते है, न्याय की, नहीं आप तो केवल सत्ता की वफ़ादारी की ही आशा कीजिये केवल, इसी मे आपकी समझदारी है और उनकी सुविधा भी ! बालकृष्णन, माफ़ कीजिये मैं उनको जानबूझ कर जस्टिस नहीं कहने की सुविधा ले रहा हूँ  ! उनके और उनके बेटे प्रदीप के चर्चे सिर्फ उच्चतम न्यायालय के गलियारों तक नहीं मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बनने के बाद बालकृष्णन साहेब ने अपनी वफादारिया और सत्ता के लिए भक्ति की भावना नहीं छोड़ी है और ना ही सबके लिए न्याय के कुदरती कानून  की अवमानना ही ! पूर्वी  दिल्ली के कल्यानपुरी में गत वर्ष एक हादसा हुआ जिसमे पुलिस ने गरीब दलित सिख समुदाय के घरो में घुस कर सैंकड़ो को खींच खींच कर पीटा और रात में २५० के लगभग लोगो  को बंद रखा जिसमे औरत आदमी और स्कूल जाने वाले छोटे लड़के लड़कियां भी थे ! इस केस में ३० से अधिक लोगो के खिलाफ केस दर्ज किया गया ! दरअसल यह पूरा मामला दो लोगो की आपसी दुश्मनी का है जिसमे पुरे सिकलीगर सिख समुदाय को निशाना बनकर पुलिस ने बेरहमी से जानवरों की तरह मारा ! इस इलाके के लोगो की ओर से मेने एक अपील मानवाधिकार आयोग को भेज दी ! मगर विडंबना यह हुई कि मेरी वह अपील जाने के साथ ही बालकृष्णन साहेब की नियुक्ति मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष के तोर पर हो गयी ! अब उनका जवाब आता है कि पुलिस ने कोई गुनाह नहीं किया गुनाहगार तो वो लोग है जिन्हें पुलिस ने बुरी तरह मारा है ! अब उनके टूटे हुए हाथ पांव टूटा हुआ घर का सामान और उखड़े हुए दरवाजे और उनके ताले कोई मायने नहीं रखते हैं ! मैंने अध्यक्ष महोदय के पत्र का जवाब देते हुए कहा कि इस बर्बर हमले के शिकार एक भी आदमी की बात सुने बगैर कैसे केस पर फैसला किया जा सकता है ! हालाँकि अभी तक मानवाधिकार आयोग से कोई जवाब नहीं मिला है मैं अगले जवाब के इंतजार में हूँ और गरीब सिकलीगर भी !
        वास्तव में यही हैं बालकृष्णन जो सत्ता के खिलाफ खड़ा नहीं हो सकते है बल्कि उनसे तालमेल बैठाना ही जानते है और उसकी पूरी कीमत भी और इस कीमत से सभी निहाल हैं उनका भाई उनका दामाद और उनका बेटा ! ऐसे बालकृष्णन नागरिक अधिकारों के संगठनों से देश की राजनीति और सत्ता की काली करतूतों की रक्षा करने के लिए ही पैदा किये गए है ! सूचना आयोग में इनकी लम्बी सूची आप हाल ही में अरविन्द केजरीवार के एक बयाँ में देख सकते हैं ! जिसमे सुषमा सिंह जैसे कई नाम शामिल हैं, यह नाम में इसलिए ले रहा हूँ क्योंकि इन मोहतरमा की कार्यप्रणाली का मुझे व्यक्तिगत अनुभव है ! केंद्रीय सूचना आयोग में इनकी नियुक्ति शायद गृह विभाग के बचाव के लिए ही हुई है जो गृहमंत्रालय को बचाने के लिए सूचना अधिकार अधिनियम की परिभाषाओ को भी ताक पर रख देती हैं ! बहरहाल यह एक ऐसी समस्या है जिसके हल के लिए लोगो को आगे आना ही पड़ेगा ताकि नागरिक अधिकारों के लिए बने इन संगठनों में स्वायत्ता को बनाया और बचाया जा सके और इनके उपर से परोक्ष अपरोक्ष राजनीतिक नियंत्रण खत्म हो अन्यथा ये संगठन ही नागरिक अधिकारों के हनन का औजार बन जायेंगे !

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