महेश राठी
काफी समय के इंतजार के बाद आखिरकार केंद्रीय मंत्रिमंडल में आंशिक बदलाव हो ही गया। प्रधानमंत्री और कांग्रेस की लगातार घोषणाओं के बावजूद इसमें मंहगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने की प्रतिबद्धताओं का कहीं अता-पता नहीं था। प्रधानमंत्री ने इसे छोटा फेरबदल भले ही बताया है, लेकिन इसमें सरकार की छवि बदलने और लोगों की तकलीफे बांटने की चिंता की बजाय उत्तर प्रदेश और केरल जैसे राज्यो में आगामी विधानसभा चुनाव की आहट अधिक थी। कांग्रेस की यह सारी कवायद नए साल के चुनावी महासमर और 2012 में मिशन यूपी की डगर पर बढ़ने की राहुल गांधी की सियासी कार्ययोजना का हिस्सा है। यूपी में अकेले सत्ता में वापसी का राहुल गांधी का खयाल उनकी महत्वकांक्षा का खुमार ज्यादा और वास्तविकता कम है। यह खुमार अब पूरी कांग्रेस पर हावी है। तभी घेटालों और मंहगाई से लापरवाह कांग्रेस ने अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता और मंशा को इस छोटे से बदलाव में दिखा दिया है। यह भी तय है कि अगले बडे़ बदलाव में भी कांग्रेस का एजेंडा सहयोगियों को साधने और अगले दिनों के सियासी महासमर की तैयारियों से ज्यादा से आगे बढ़ने वाला नही है। कांग्रेस की यह सियासी तैयारियां इसलिए भी विशेष हैं, क्योकि पार्टी उत्तर प्रदेश में फिर से एकला चलो की रणनीति पर ही आगे बढ़ रही है। मंहगाई का ठीकरा गठबंधन सरकार की राजनीतिक विवशता पर डालना कांग्रेस की एकला चलो की राजनीतिक मानसिकता का प्रमाण है। पिछले दिनों 2 जी स्पेक्ट्रम, आदर्श घोटाले और महंगाई पर हुई फजीहत से त्रस्त कांग्रेस जाहिर है गठबंधन राजनीति से परेशान है। परंतु कांग्रेस के होनहार महासचिव को समझना चाहिए कि यह केवल राजनीतिक गठबंधन भर नही हैं, बल्कि इन गठबंधनों की अपनी ऐतिहासिक विवशताएं हैं। इन गठबंधनों के अपने ठोस आर्थिक एवं सामाजिक कारण भी हैं। इसके कारण आजाद हिंदुस्तान के छह दशकों की विकास यात्रा और उस विकास से जनित विषमताओं में छुपा हुआ है। गठबंधन केवल जातीय समीकरणों और उनके विश्लेषणों भर से नहीं बनते, बल्कि उनके ध्रुवीकरण की अपनी सामाजिक विवशताएं भी होती हैं। इसके लिए सर्वाधिक यदि कोई राजनीतिक पार्टी दोषी है तो वह कांग्रेस ही है। उत्तर प्रदेश में या कहें पूरे भारत में कांग्रेस की सत्ता में टिके रहने का सबसे मजबूत आधार दलित एवं मुस्लिम अल्पसंख्यक मतदाताओं का उसके साथ होना रहा है। परंतु यदि उत्तर प्रदेश की ही बात की जाए तो मुस्लिम और दलित वोटों का नया ध्रुवीकरण हो चुका है। मुस्लिम वोट जहां कांग्रेस, सपा और बसपा के बीच बंटा हुआ है तो दलित वोटों की सबसे बड़ी और कहें तो एकछत्र दावेदार मायावती की बहुजन समाज पार्टी ही है। राज्य के पिछडे़ मतदाताओं का गैर कांग्रेसवाद से जुडाव का एक लंबा इतिहास रहा है। ऐसी स्थिति में यदि कुछ बचता है तो अगडा वोट बैंक और अति पिछड़ों का कुछ हिस्सा। यहां भाजपा कांग्रेस के आधार की नई साझीदार के रूप में उभरकर सामने आई है। अब कांग्रेस की गठबंधन रहित नई रणनीति का आधार और अनुभव क्या है, यह तो भविष्य ही तय करेगा। परंतु यह तो तय है कि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी को गठबंधन और उसकी ऐतिहासिक आवश्यकताओं को समझकर विश्लेषण करना होगा। वास्तव में पिछले तीन दशक में गठबंधन सकारों का बनना केवल भारत की जरूरत नहीं वरन एक विश्वव्यापीरुझान है। केवल विकासशील देश ही नहीं, बल्कि विकसित दुनिया भी इस नए रुझान और परिघटना का शिकार है। पिछले तीन दशक से विकास की नव उदारवादी संकल्पना ने सामाजिक और आर्थिक विषमताओं की प्रक्रिया को तेज किया है जिससे नए तरह के सामाजिक ंअंतर्विरोधों और संघषरें का जन्म हुआ। एक बड़ी जनवादी व्यवस्था होने के कारण भारतीय संदर्भों में इन अंतर्विरोधों को उनके समाजिक परिवेश, संस्कृति एवं लोक जीवन के अनुरूप ही इन संघषरें को स्वर देने वाले इनके प्रतिनिधि उभरे। विकास के यह अंतर्विरोध कश्मीर से कन्याकुमारी और त्रिपुरा से अरुणाचल तथा राजस्थान, गुजरात तक देश के हर हिस्से में दिखाई दे जाएंगे। इस जांच के लिए किसी अलग तरह के पैमाने या दृष्टि की जरूरत नहीं है। यही स्थिति छतीसगढ़ के बस्तर और झारखंड के पलामू जैसे इलाके की या ऐसे ही किसी इलाके की है, जो आधुनिक दुनिया के विकास से अछूता आदिवासी संसार है।
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