महेश राठी
विदेशों में जमा काले धन को महज कर चोरी का मामूली मामला बताने की वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी की मुहिम लगता है सिरे नहीं चढ़ पा रही है। तभी तो विदेश में जमा काले धन के मामले पर सरकार की किसी सफाई को उच्चतम न्यायालय मानने को तैयार नहीं है। 27 जनवरी की सुनवाई में न्यायालय ने सरकार को फटकार लगाते हुए स्पष्ट किया है कि यदि सरकार के पास कालेधन के खातेदारों के नामों की जानकारी है तो उन पर अभी तक क्या कार्यवाही हुई। सरकार काले धन को वापस लाने की बात तो करती हैं, लेकिन काले धन पर अभी तक का टाल-मटोल वाला रवैया सरकार की प्रतिबद्धताओं के कथनों पर सवालिया निशान ही खड़ा कर रहा है। दरअसल, आर्थिक सहयोग और विकास संगठन के दिशा-निर्देशों और काले धन पर अंतरराष्ट्रीय संधियों का हवाला देकर काले धन के खातेदारों का नाम उजागर करने से बचने की संप्रग की विवशता ही अपराधियों के बचाव का नया तर्क है। वास्तव में सरकार काले धन को कर चोरी का मामूली मामला बताकर इस देशद्रोही कार्य पर परदा डालने के तर्को को कानूनी जामा चढ़ाने की कोशिश कर रही है, लेकिन यह कर चोरी से अधिक आमदनी के स्त्रोतों और उस धन की लगातार अवैध गतिविधियों में संलिप्तता का सवाल है और जो लगातार देश की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। विदेशों में जमा ऐसी काली कमाई को वापस लाने के लिए सरकार ने एक पांच सूत्रीय कार्यक्रम की घोषणा की है, लेकिन सरकार ने न तो यह स्पष्ट किया कि ऐसी काली कमाई वालों को क्या सजा दी जाएगी और इस काली कमाई को वापस लाने की क्या कार्य योजना है। काले धन के इस मुद्दे से निपटने के लिए विशेषज्ञों की एक बहुविषयक समिति बना दी है। यह समिति काली कमाई, उसकी मात्रा और उसके समाधान के लिए काम करेगी। सरकार की घोषणाएं प्रथम दृष्टया काफी बेहतर जान पड़ती हैं। हालांकि माफी योजना की संभावनाओ का इशारा देकर सरकार ने इस बहुविषयक विशेषज्ञ समिति की दिशा का संकेत भी दे दिया है। इसके अलावा सरकार ने आयकर विभाग की आठ अंतररष्ट्रीय टीमों के गठन की घोषणा भी की है, जो दुनिया के अलग-अलग टैक्स हेवन देशों में भारतीयों के काले धन की खोज करने का काम करेंगी। वैसे सरकार की इन सारी कवायदों का यदि तार्किक विश्लेषण करें तो इस मौखिक कार्रवाई की वास्तविकता आसानी से समझी जा सकती है। वास्तव में सरकार विपक्ष एवं न्यायपालिका के दबाव में कार्रवाई करते हुए दिखाना चाहती है ताकि बाद में बहुविषयक विषेशज्ञ समिति की संस्तुतियों का हवाला देकर एक सार्वजनिक माफी योजना लागू की जा सके। हालांकि वित्तमंत्री कहते हैं कि हम कुछ छिपाना नहीं चाहते हैं, मगर लगता है कि यह कुछ लाक्षणिक भाषा है या सरकार की मंशा की भाषाई लाक्षणिकता कि हम कुछ छिपाना नहीं चाहते, मगर हम कुछ बताना भी नहीं चाहते कूटनीतिक विवशता के तर्क के साथ। भ्रष्टाचार पर सरकार का यह कूटनीतिक और भाषाई चमत्कार कोई एक मात्र उदाहरण नहीं है। 2जी स्पेक्ट्रम, आदर्श, राष्ट्रमंडल खेल घोटाला और केंद्रीय सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति तक कई ऐसे मामले हैं, जिन पर कार्रवाई के तौर-तरीकों से सरकार की भ्रष्टाचार पर मंशा का पता चलता है। 27 जनवरी को काले धन के साथ ही न्यायपालिका के समक्ष मुख्य सतर्कता आयुक्त पीजे थॉमस की नियुक्ति के मामले की भी सुनवाई थी, जिसमें सरकार ने बेहद मासूमियत से सफाई दी कि नियुक्ति से पहले उसे मालूम ही नहीं था कि पीजे थॉमस के विरुद्ध कोई जांच लंबित है। यह मासूमियत भरा झूठ सरकार तब बोल रही है, जबकि पीजे थॉमस की नियुक्ति पर पूरे देश को अभी तक कुछ दिनों पहले की प्रधानमंत्री और नेता विपक्ष सुषमा स्वराज के बीच की तकरार याद है। नेता विपक्ष ने पीजे थॉमस की भ्रष्टाचार में संलिप्तता को लेकर उंगली उठाते हुए उनकी नियुक्ति पर सवालिया निशान ही खडे़ नहीं किए थे, बल्कि नियुक्ति का पुरजोर विरोध भी किया था। इस बड़ी तकरार के बाद भी यदि सरकार अनजान होने की बात करती है तो यह बेहद हास्यास्पद भी है और दुखद भी। इसके अलावा ऐसी किसी नियुक्ति से पहले कार्मिक एवं पेंशन मंत्रालय नियुक्त किए जाने वाले अधिकारी से जुड़ी सभी जानकारी प्रधानमंत्री कार्यालय को मुहैया कराता है। इस पूरी प्रक्ति्रया के बाद ही ऐसी महत्वपूर्ण नियुक्ति होती है। अब क्या सरकार यह कहना चाहती है कि पीजे थॉमस की नियुक्ति में इस प्रक्ति्रया को अपनाया नहीं गया या उसे कार्मिक एवं पेंशन मंत्रालय द्वारा गलत सूचना दी गई। सरकार की ठीक यही स्थिति 2जी स्पेक्ट्रम मामले में भी दिखाई देती है, जिसमें संसद का पूरा शीतकालीन सत्र विपक्ष के विरोध की भेंट चढ़ गया, मगर सरकार जेपीसी की मांग न मानने की अपनी जिद पर अड़ी रही। शीतकालीन सत्र के दौरान कांग्रेस पार्टी ने विपक्ष की कार्यप्रणाली पर कई तरह के तर्क देने के अलावा सत्र नहीं चलने के कारण भत्ता नहीं लेने के नैतिक टोटके करते हुए जेपीसी की मांग मानने से स्पष्ट इनकार कर दिया। कांग्रेस के अति उत्साही प्रवक्ताओ ने विपक्ष पर काम नहीं चलने देने का ठिकरा फोड़ते हुए विपक्ष को अलोकतांत्रिक तक करार दे दिया, लेकिन उन्हें यह भी याद नहीं रहा कि संसद और सरकार चलाना सत्तापक्ष की जवाबदेही है और विपक्ष का काम सरकार की जन विरोधी नीतियों और कार्यो का विरोध करना ही है, जो उसने बखूबी किया भी। यदि इस पूरे मामले पर किसी की विफलता दिखाई दी तो वह सरकार की विफलता थी। कैग की रिपोर्ट आ जाने के बाद संसद में बहस की गुंजाइश नहीं, जांच की जरूरत है। असल में भ्रष्टाचार पर यह कांग्रेसी प्रतिक्रिया केवल वैधानिक बाध्यताओं और अंतरराष्ट्रीय संधियों के कारण नहीं, बल्कि उसकी भ्रष्ट कार्य संस्कृति के कारण है और अब सरकार इसी संस्कृति में पारंगत लोगों को बचाने के लिए नाम नहीं बताने और माफी योजना की परियोजना को आगे बढ़ाने का काम कर रही है। अन्यथा, कोई कारण नहीं कि लेंचस्टाइन मामले में सरकार काली कमाई को विदेश में रखने वाले लोगों के नाम सार्वजनिक न कर सके, क्योंकि प्रसिद्ध अधिवक्ता राम जेठमलानी के अनुसार लेंचस्टाइन पर नाम गोपनीय रखने वाली संधि लागू नहीं होती है। जर्मनी, ऑस्टि्रया और स्विट्जरलैंड के मध्य स्थित लेंचस्टाइन की भौगोलिक और ऐतिहासिक स्थिति के जानकार वकील रामजेठमलानी के तर्क को समझ सकते हैं। यही स्थिति राष्ट्रमंडल खेल, आदर्श घोटाले और 2जी स्पेक्ट्रम मामले में भी है। राष्ट्रमंडल खेलों की जांच का पूरा केंद्र अकेले सुरेश कलमाड़ी और उनकी मित्र मंडली को बनाया जा रहा है, जबकि सत्तर हजार के खेल खर्च में खेल आयोजन समिति का हिस्सा महज सौलह सौ करोड़ था, लेकिन इस घोटाले के मुख्य भागीदार दिल्ली सरकार व शहरी विकास मंत्रालय बेदाग पदोन्नति पा रहे हैं। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की कहानी का रहस्य भी कमोबेश यही है, जिसमें सारा ध्यान सिर्फ ए राजा पर केंद्रित है, जबकि राजा और प्रधानमंत्री कार्यालय के बीच के पत्र व्यवहार से एकदम साफ हो जाता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय को वस्तु स्थिति की पूरी जानकारी थी और पीजे थॉमस की नियुक्ति भी इस घोटाले पर जांच की हवा निकालने की कवायद के तौर पर ही की गई, क्योंकि सरकार की नीयत और मंशा का पता 2जी स्पेक्ट्रम पर कपिल सिब्बल के गैर जिम्मेदाराना बयान से चल ही चुका है। इसीलिए सरकार जेपीसी के गठन से कतरा रही है, क्योंकि वह चाहते हैं कि सरकार के मातहत पीजे थॉमस सरीखे किसी नौकरशाह की देखरेख में कोई सरकारी एजेंसी ही जांच की जिम्मेदारी ले। दरअसल सरकार जांच कानून और संधियों का हवाला देकर भ्रष्टाचार की संस्कृति और भ्रष्टाचारियों को बचाए रखना चाहती है। अब न्यायपालिका के सक्रिय हस्तक्षेप के कारण ही भ्रष्टाचार इस हद तक उजागर हो रहा है, लेकिन न्यायपालिका की भी विधायिका के सामने अपनी सीमाएं हैं और खतरे इस बात के हैं कि कहीं सरकार की भ्रष्टाचारियों को बचाने की सारी कवायद के सामने न्यायपालिका का यह हस्तक्षेप सलाह और फटकार तक ही सिमटकर न रह जाए। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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