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मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

जनवाद की नई राह पर मिश्र

महेश राठी
 मिस्र में बदलावों का इतिहास उसकी संस्कृति और सभ्यता के इतिहास जितना ही बड़ा और विविधताओं भरा है, लेकिन ट्यूनीशिया से उठे वर्तमान बदलाव की धंुध ने मिस्र सहित पूरे अरब जगत के आसमान को अपने आगोश में ले लिया है। ट्यूनीशियाई क्रांति की सफलता अब अरब दुनिया में लोकप्रियता के शिखर पर बैठ सत्ता को चुनौती देने वाले आंदोलनो की प्रेरणा का प्रतीक बन चुकी है। इसी चुनौती का सामना लगभग तीन दशक से अरब जगत के सबसे अधिक आबादी वाले देश मिस्र के राष्ट्राध्यक्ष होस्नी मुबारक को भी करना पड़ रहा है। 25 जनवरी से शुरू हुआ अहिंसक और जनवादी आंदोलन चार दिन बाद देश के कई भागों में कफ्र्यू लगाने और आंदोलन को कुचलने के लिए सशस्त्र बलों और होस्नी मुबारक समर्थकों के सड़कों पर उतरने के साथ ही हिंसक प्रतिरोध में परिवर्तित होने की ओर बढ़ चला है। घोडे़ और ऊंटों पर सवार राष्ट्रपति समर्थकों एवं विरोधियों के बीच शुरू हुए इन संघर्षो ने मिस्र में घोडे़ और ऊंट सवारों और नए मध्यमवर्गीय सूचना सवारों के बीच विचित्र जंग की स्थिति खड़ी कर दी है। काइरो सहित मिस्र के लगभग सभी प्रमुख शहरों अलेक्जेंड्रिया, तांतु, मंसूरा, आसवान, गीजा और असुइत की मुख्य सड़कों और राजनीतिक केंद्रों पर आंदोलनकारी छात्र, नौजवान और मजदूर-किसान भ्रष्टाचार एवं दशकों से घोषित आपातकाल के तहत निरंकुश शासन के खिलाफ राष्ट्रपति होस्नी मुबारक की सरकार पर निर्णायक मूड में राजधानी के तहरीर स्क्वॉयर में डटे सरकार विरोधी प्रदर्शनकारी अरब जगत के बदले हुए तेवरों की दास्तान साफ बयां कर रहे हैं। अक्टूबर 1981 में मिस्र के राष्ट्रपति अनवर सादत की हत्या के बाद सत्ता संभालने वाले होस्नी मुबारक पिछले 28 वर्षो से देश की सत्ता पर काबिज हैं। मुबारक का राष्ट्रपति के तौर पर यह पांचवां कार्यकाल है और अगले कार्यकाल के लिए 2012 में होने वाले चुनावों को लेकर देश भर में शंकाए व्याप्त थी कि वह अपने उत्तराधिकारी के तौर पर अपने बेटे गेमाल मुबारक को मैदान में उतार सकते हैं। इन शंकाओं, बढ़ते भ्रष्टाचार और बढ़ती बेरोजगारी के बीच ट्यूनीशिया प्रकरण से प्रेरणा लेकर नए सूचना साधनों के माध्यम से लगातार समन्वय बनाते हुए मिस्र के मध्यम वर्ग ने 25 जनवरी को क्रांति का दिन निश्चित कर दिया और देश की जनता उसी स्वनामधारी श्वेत क्रांति की सफलता के लिए लगातार सड़कों पर डटी हुई है, कफ्र्यू के बीच और सशस्त्र सुरक्षा बलों व टैंको के सामने। विरोध का यह जनसैलाब किसी नई राजनीतिक धारा और संगठन का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहा है और न ही वर्तमान अर्थव्यवस्था को उखाड़ फेंकना चाहता है। इन प्रदर्शनकारियों के हाथ कोई नए रंग का झंडा नहीं, बल्कि अपना राष्ट्रीय ध्वज है और यह केवल ऐसे राजनीतिक सुधार चाहते हैं, जिसमें इनकी आजादी की गारंटी हो, रोजगार हो और वर्तमान भ्रष्टा शासन से मुक्ति का रास्ता हो। मिस्र के विरोध-प्रदर्शन पिछले पांच दशकों में देश की जनता द्वारा असंतोष और आक्रोश की सबसे बड़ी एवं व्यापक अभिव्यक्ति है, लेकिन बावजूद इसके यह ट्यूनीशिया की क्रांति से अलग है। ट्यूनीशिया में जहां फौज ने जनता के पक्ष में अल अबेदीन बेन अली का साथ देने से इनकार कर दिया था, वहीं मिस्र की सेना पूरी तरह से होस्नी मुबारक के साथ है। जिसके मुख्यत: दो कारण हैं- पहला कि होस्नी मुबारक स्वयं एक पूर्व सैनिक कमांडर हैं, जो मिस्र की सत्ता संभालने से पहले तक वहां की एयरफोर्स के मुखिया थे और एक सोची-समझी रणनीति के तहत देश के अधिकतर प्रमुख उद्योगों पर फौजी अधिकरियों का कब्जा होने के कारण सत्ता के साथ सेना के आर्थिक हित जुडे़ होना भी दूसरा मुख्य एवं अहम कारण है। इसके अलावा आधुनिकता, सूचना प्रौद्योगिकी और दूरसंचार क्रांति के स्तर का अंतर भी ट्यूनीशिया एवं मिस्र की क्रांति का बड़ा अंतर है। जहां ट्यूनीशिया की 35 प्रतिशत आबादी इंटरनेट का और 95 प्रतिशत आबादी फोन का प्रयोग करती है, वहीं मिस्र में यह आंकड़ा इससे काफी छोटा हैं, क्योंकि मिस्र की आधी आबादी अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार गरीबी रेखा के नीचे है, जो अशिक्षित और आधुनिक संसाधनों से वंचित है। एक और महत्वपूर्ण कारण मिस्र के मजदूर आंदोलन का चरित्र और उसका सत्ता से संबंध भी है। ट्यूनीशिया के विद्रोह में अहम भूमिका अदा करने वाली ट्रेड यूनियन यूजीटीटी दरअसल छह लाख की सदस्यता वाली एक व्हॉइट कॉलर मजदूर यूनियन है, जिसने अबेदीन की सत्ता उखाड़ने में प्रमुख भूमिका अदा की, जबकि चालीस लाख सदस्यों वाली मिस्र की ईटीयूएफ सही अर्थो में देश के सभी मजदूर तबकों का प्रतिनिधित्व करने के बावजूद होस्नी मुबारक की समर्थक एवं सहयोगी के तौर पर जानी जाती है। यही कारण है कि अरब जगत में अमेरिका के प्रमुख सहयोगी होस्नी मुबारक पर संकट के बादल छाए रहने के बाद भी अमेरिकी विश्लेषण मिस्र के राष्ट्रपति की सत्ता को उस हद तक खतरे में नहीं मान रहा है। ट्विटर क्रांति का दूसरा मॉडल बनने की राह पर खडे़ मिस्र के इस बदलाव के कुछ खतरे भी हैं। सूचना क्रांति की देन देश के इस नवोदित मध्यम वर्ग के पास अपना कोई संगठन या कोई राजनीतिक दिशा नहीं है। जिस कारण मिस्र की राजनीति की कई स्थापित विपक्षी धाराएं आगे बढ़कर इस आंदोलन के नेतृत्व की दावेदारी कर रही हैं, जिसमें जहां एक तरफ नोबल पुरस्कार विजेता अलबरदेई हैं तो दूसरी ओर पांच दशक से भी पहले देश से बेदखल किए गए मुस्लिम ब्रदरहुड की सक्रियता और तेज आहट साफ सुनी जा सकती है। वास्तव में पूरे पश्चिमी जगत और प्रगतिशील शक्तियों के लिए मुस्लिम ब्रदरहुड का मुख्य विपक्ष के तौर पर अपने को पेश करना ही बडे़ खतरे की घंटी है। यही मुस्लिम ब्रदरहुड कभी सीरिया और लेबनान से लेकर अलकायदा तक के जन्म का आधार बना, अब फिर से इस कट्टरपंथ के रचयिता की आमद अवश्य ही एक चिंता का विषय है। मुस्लिम ब्रदरहुड बेशक अपने आप को जनवाद और धर्मनिरपेक्षता का समर्थक होने के लाख दावे करे और अरब जगत या भारत के भी कई राजनीतिक विश्लेषक उसके आधुनिक चेहरे के भुलावे में आ जाएं, लेकिन वास्तव में मुस्लिम ब्रदरहुड की पुरानी कारगुजारियां उसके नए चेहरे से कतई मेल नहीं खाती हैं। यही मुस्लिम ब्रदरहुड है, जिसने 1954 में साम्राज्यवाद के प्रबल विरोधी मिस्र के तत्कालीन राष्ट्रपति और गुटनिरपेक्ष आंदोलन के बडे़ नेता नासिर पर जानलेवा हमले की व्यूह रचना की, जिसके लिए नासिर ने मुस्लिम ब्रदरहुड को प्रतिबंधित करके मिस्र से बेदखल कर दिया। तत्पश्चात मुस्लिम ब्रदरहुड ने अपना ठिकाना सीरिया में बनाया, जहां पर बाथ पार्टी के वामपंथी रुझान वाले गुट के खिलाफ साजिश करते हुए वर्तमान असद परिवार की चार दशक पुरानी दक्षिणपंथी सरकार के निर्माण में सहयोगी भूमिका अदा की। मध्य-पूर्व की राजनीति के जानकार जानते हैं कि अलकायदा, हिज्बुल्लाह और हमास का जन्मदाता यही मुस्लिम ब्रदर हुड रहा है। मुस्लिम ब्रदरहुड की साफ मंशा हमेशा से ही एक इस्लामिक मध्य-पूर्व की रही है और यदि मुस्लिम ब्रदरहुड आज सत्ता में काबिज होता है तो यह न केवल अरब जगत के लिए, बल्कि पुरी दुनिया के लिए एक खतरनाक भविश्य की ओर जाने की शुरुआत होगी, क्योंकि यदि साधनहीन अफगानिस्तान दुनिया के लिए इतना बड़ा सिरदर्द बन सकता है तो सोचिए सुविधा संपन्न मिस्र के उसी राह पर चलने से क्या हालात बनेंगे? आज बेशक मुस्लिम ब्रदरहुड अमेरिका-इस्त्राइल विरोध की अरब दुनिया की मानसिकता की सवारी करते हुए कामयाब होता दिखाई पड़ता हो, मगर एक समय यही मुस्लिम ब्रदरहुड सोवियत संघ के खिलाफ अपनी मुहिम के लिए ब्रिटिश गुप्तचर संस्था और सीआइए का पंसदीदा हथियार रहा है। अब ऐसे में नए मौके के मुताबिक उसका अपना हुलिया बदलना शर्तिया ही भेडि़ए का मेमने की खाल ओढ़ लेने की तरह है। दरअसल, अरब जगत के इस हिस्से की शासन पद्धतियों की अपनी एक विशेषता रही है। लीबिया के कर्नल गद्दाफी से लेकर इराक के सद्दाम हुसैन तक इनमें कई समानताएं कोई अनायास नहीं हैं। यह उस समय के राष्ट्रवादी आंदोलनों से बने अरब जगत की ऐतिहासिक जरूरत था और नए जनवादी बदलाव वर्तमान अरब दुनिया की जरूरत है। इनके तथाकथित अनूठे जनवाद में जहां एक तरफ निरंकुशता है तो वहीं आधुनिकता से लगाव और अरब संस्कृति की जड़ों से गहरे जुडे़ धर्मनिरपेक्षता के चरित्र को हमेशा बनाए रखने की जिद भी। यही कारण है कि इन्होंने हमेशा कट्टरपंथी इस्लाम को बलपूर्वक दबाए रखा है। अब इस स्वत: स्फूर्त मध्यमवर्गीय आंदोलन के नेतृत्व के लिए बेशक अमेरिकी हितरक्षक अलबरदेई और कट्टरपंथी मुस्लिम ब्रदरहुड आगे आ रहे हों, मगर जमीनी स्तर पर यह आंदोलन सर्वहारा के जनसमूहों, बेरोजगारों, किसानों और प्रगतिशील छात्र नौजवानों का है। जिसके नारे भ्रष्टाचार, मानवाधिकर, बेरोजगारी, महंगाई और न्यूनतम वेतन में बढ़ोतरी कोई इस्लामी कट्टरपंथ के नहीं, आम मजदूर किसान और गरीब शहरी के हैं और यह आम आदमी संगठित हो एक जनवादी मिस्र और अरब जगत का आधार तैयार करेगा, जिसमें शासक वर्ग से अधिक आम आदमी की भागेदारी की संभावनाएं होंगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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