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शनिवार, 29 जनवरी 2011

नया दर्शन तलाशतीं अरब देशों की बगावतें

महेश राठी

अरब जगत में नये युग की शुरुआत हो चुकी है। ट्यूनीशियाई क्रान्ति की सफलता वहां सत्ता को चुनौती देने वाले आंदोलनों की प्रेरणा बन चुकी है। ट्यूनीशिया के राष्ट्रपति के सत्ता पतन के बाद अरब जगत में उठे प्रतिरोध आंदोलनों से लीबिया के राष्ट्रपति गद्दाफी से लेकर लेकर यमन के राष्ट्राध्यक्ष अब्दुलाह सालेह और मिस्र के राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक तक की सत्ता खतरे में है। इन नये लोकप्रिय विरोध प्रदर्शनों का अगुवा नवोदित मध्यवर्ग है जो जनप्रतिरोध के नये तरीके, नये नारे और नई परिभाषा गढ़ रहा है। सूचना प्रौद्योगिकी से समृद्ध नई अर्थव्यवस्था की क्रान्ति असंतोष की अभिव्यक्ति की नई शब्दावली और नया ढंग उजागर कर रही है। दिसम्बर में एक 26 वर्षीय ट्यूनीशियाई नौजवान द्वारा आत्मदाह के बाद सरकार ने इस घटना को दबाने की पुरजोर कोशिशें की, पर ट्विटर और फेसबुक की साझा सूचनाओं ने देश में बगावत की जो पटकथा तैयार की वह बेमिसाल है। आज अरब दुनिया के कई देश ट्यूनीशिया के इस नायाब मॉडल का तेजी से अनुकरण कर रहे हैं। शान्ति और जनवाद की इस नई अवधारणा का विकल्प अरब जगत के लिए अनुकरणीय ही नहीं बल्कि शान्ति और जनवाद निर्यात करने के स्वघोषित उस अमेरिकी अभियान का जवाब भी है जिसकी वेदना इराकी जीवन के हर क्षण और हर हिस्से पर देखी जा सकती है। इसमें औद्योगिक युग के शुरुआत की जनवादी क्रान्तियों का व्यापक रक्तपात नहीं है और न किन्ही नए वर्ग संघर्षो की हिंसक शुरुआत के खतरे। यह मध्यम वर्ग के विरोध का नया ढंग और सत्ता में आम आदमी की भागेदारी के आगाज की आहट है। विरोध की इस आहट से 1969 से सत्ता में काबिज कर्नल गद्दाफी की गद्दी खतरे में है तो यमन में तीन दशक से शासन कर रहे अब्दुलाह सालेह और मिस्र के राष्ट्राध्यक्ष हुस्नी मुबारक भी रोज नए विरोध का सामना कर रहे हैं। मिस्र के प्रधाननमंत्री कार्यालय और संसद के सामने दो व्यक्तियों द्वारा आत्मदाह की कोशिशों के बाद मिस्र की जनता की नाराजगी ने आक्रोश का रूप धारण कर लिया और हजारों लोग सड़कों पर उतर आए। हालांकि मिस्र के विदेश मंत्री अहमद अबुल घेइत ट्यूनीशियाई क्रान्ति के प्रभाव को नकार रहे हैं, परन्तु काहिरा और मिस्र के दूसरे प्रमुख शहरों-अलेक्जेंड्रिया, मनसूरा, तान्ता, असवान आदि में राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक के इस्तीफे की मांग को लेकर प्रदर्शनों का सिलसिला अलग कहानी कह रहा है। इससे पैदा तनाव की लकीरें राष्ट्रपति और प्रशासन के माथे पर साफ दिख रही हैं। इसी का नजीता है कि हुस्नी मुबारक के पुत्र गमाल देश छोड़ सपरिवार ब्रिटेन जा चुके हैं। सड़कों पर होने वाले प्रदर्शन ही नहीं, नए जनप्रतिरोध की ट्विटर और फेसबुक पर प्रचलित भाषा से भी इनकी दिशा और भावना का पता चल जाता है। मिस्र में फेसबुक के एक समूह ने 25 जनवरी को मुक्ति की क्रान्ति का दिन घोषित करते हुए कहा कि ट्यूनीशिया की प्यारी जनक्रान्ति का सूरज डूबने नहीं दिया जाएगा। एक अनुमान के अनुसार इन संदेशों ने अस्सी हजार लोगों को विरोध प्रदर्शन के लिए आकर्षित किया। मिस्र का सूचना प्रौद्योगिकी में शिक्षित नवोदित मध्यवर्ग इस क्रान्ति को मिस्र की श्वेत क्रान्ति का नाम दे रहा है। 25 जनवरी को मिस्र सरकार द्वारा ट्विटर पर रोक लगाए जाने से पहले तक देश के लगभग पांच लाख लोग ट्विटर और फेसबुक पर ट्यूनीशिया की क्रान्ति से प्रेरणा लेकर तालमेल बनाए हुए थे। हालांकि रोक के बाद भी ये लोग आपसी संपर्क के विकल्प तलाश रहे हैं। संपर्क  और सूचनाओं के तालमेल का यह दौर जहां लोगों के सामाजिक-व्यक्तिगत जीवन पर व्यापक प्रभाव छोड़ रहा है, वहीं राजनीतिक प्रतिरोध की नई राह भी प्रशस्त कर रहा है। परन्तु इस स्वत: स्फूर्त विरोध की एक विडम्बना भी है। इस विरोध के पास प्रतिरोध और आंदोलन खड़ा करने के नारे और ऊर्जा तो हैं लेकिन सुगठित वैकल्पिक राजनीतिक राह और उस पर आधारित कोई संगठन नहीं है। यह इसलिए कि इस विरोध का अपना कोई दर्शन नही है और यह अस्वाभाविक नहीं है क्योंकि यह उत्तर औद्योगिक विकास की वर्तमान अवस्था के अनुरूप है जिसमें उत्तर आधुनिकता सभी पुरानी परंपराओ और विचारधाराओं को खारिज करते हुए आगे बढ़ती है और इसे ही नया विचार और विचारधारा समझती है। बरहाल दर्शनविहीन इन बगावतों को अभी क्रान्ति कहना संभवत: थोड़ा जल्दबाजी होगी। इन बगावतों की दर्शन दरिद्रता का सबसे बड़ा उदाहरण भी वही ट्यूनीशिया है जो आज सबकी प्रेरणा का स्रोत बना है। ट्यूनीशिया की जैस्मिन क्रान्ति की सबसे बड़ी भागीदार वह मजदूर यूनियन सीजीटीटी है जो 2009 तक बिन अली की सबसे बड़ी ताकत और समर्थक थी और जब अंतरिम सरकार का गठन हुआ तो फिर से सत्ता में वही पुराने वफादार सहयोगी और कुछ मतभेदों के कारण 2009 में सरकार से अलग हो चुकीं मजदूर यूनियनें थी। अब यदि अंतरिम सरकार के खिलाफ दोबारा आंदोलन शुरू हो रहा है तो उसकी पृष्ठभूमि में वही पुरानी मजदूर यूनियने हैं या फिर वर्षो से वैधानिक ढंग से हाशिए पर धकेले गए कट्टरपंथी इस्लामी संगठन, जिनके पुनरोदय  के अपने खतरे हैं। ऐसे में प्रश्न है कि नए संविधान और नए गणराज्य के सुहावने नारों पर खड़े इस आंदोलन के पास क्या कोई अपनी वैकल्पिक राजनीतिक राह है। संभवत: यह विरोध की ऐसी शुरुआत है जिसका राजनीतिक दर्शन तैयार होना बाकी है। रुझानों और इस दौर की ऐतिहासिक जरूरतों के अनुसार इस दर्शन और राजनीतिक धारा को तैयार करने का दायित्व दुनिया के सभ्य समाज के नए मध्य वर्ग पर है।

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