एक भारतीय छात्रा की हत्या के बाद फिर से आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों की सुरक्षा और आस्ट्रेलियाई प्रशासन की कार्यपण्राली पर सवाल उठने लगे हैं। लम्बे अंतराल के बाद हुए इस हमले में अभी तक किसी आस्ट्रेलियाई मूल के छात्र की संलिप्तता पता नहीं चली है फिर भी भारतीय छात्रों पर रह-रह कर होते हमले
जहां आस्ट्रेलियाई समाज में तेजी से बढ़ती आर्थिक तथा सामाजिक विषमताओं को दर्शाते हैं वहीं हमारी शिक्षा व्यवस्था की कमियों और कमजोरियों को भी उजागर करते हैं। उच्च शिक्षा के लिए आस्ट्रेलिया ही नहीं, सिंगापुर, हांगकांग, इंग्लैंड, अमेरिका, कनाडा, चीन और कई यूरोपीय एवं पूर्व सोवियत देशों की ओर भारतीय छात्रों का पलायन हमारी शिक्षा व्यवस्था और वर्तमान शिक्षा सुधारों पर बड़ा प्रश्न चिह्न है। भारतीय शिक्षा व्यवस्था के विकास की यदि बात की जाए व उसकी तुलना एशियाई विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के साथ करें तो भी स्थिति बिल्कुल संतोषजनक नहीं कही जा सकती है। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार जहां देश की केवल 65.47 प्रतिशत आबादी साक्षर थी वहीं चीन में साक्षरता की यह दर 84.1, इंडानेशिया में 87.3 और थाईलैंड में 95.7 थी। 1,68,000 महाविद्यालयों, 20 केंद्रीय विश्वविद्यालयों, 227 राज्य विश्वविद्यालयों, 109 डीम्ड विश्वविद्यालयों और 13 राष्ट्रीय स्तरीय संस्थानों के साथ उच्च शिक्षा की स्थिति कहीं ज्यादा दयनीय है। भारत में केवल 10 प्रतिशत युवा ही उच्च शिक्षा हासिल कर पाते हैं और यह आंकड़ा विकसित दुनिया के आधे से कम और पड़ोसी चीन के 15 प्रतिशत से भी बेहद कम है। आई.आई.टी. और आई.आई.एम. सरीखी शिक्षा की प्रतियोगी परीक्षाओं में छह लाख से अधिक प्रतियोगी हिस्सा लेते हैं जिनमें से कामयाब होकर उच्च शिक्षा पाने का अवसर महज एक से डेढ़ प्रतिशत भाग्यशाली युवाओं को ही होता है। भारतीय शिक्षा व्यवस्था की इस बदहाली का एक बेहद दिलचस्प पहलू यह है कि भारतीय आई.आई.टी. में दाखिला लेना हार्वर्ड विश्वविद्यालय में दाखिला पाने से 10 गुणा मुश्किल काम है और यह कोई शिक्षा के निर्धारित उच्च मानकों के कारण नहीं, संस्थानों की कम संख्या का परिणाम है। पिछले दिनों उच्च शिक्षा की स्थिति पर प्रकाशित लंदन टाइम्स की एक रिपोर्ट भी हमारी शिक्षा व्यवस्था की दुर्गति को उजागर करती है जिसके अनुसार उच्च शिक्षा के दुनिया के शीर्ष दो सौ संस्थानों में जहां महज एक ही भारतीय संस्थान शामिल है, वहीं चीन, हांगकांग, साउथ कोरिया के तीन-तीन विश्वविद्यालय इस श्रेणी में शामिल हैं। उच्च शिक्षा के स्तर में सुधार की जरूरतों को समझते हुए हम लगातार उच्च शिक्षा के संस्थानों के निर्माण की बात करते हैं परंतु इन पर बातें ही अधिक हो रही हैं। भारत में 8 आई.आई.टी., 7 आई.आई.एम. और 5 भारतीय विज्ञान संस्थानों की स्थापना का प्रश्न लम्बे समय से लम्बित है पर अभी तक मामला केवल केंद्रीय मंत्रिमंडल तक पहुंचा है, दूसरी तरफ मैकेंजी के एक सूत्र के अनुसार चीन आई.आई.टी. स्तर के सौ संस्थानों के निर्माण का काम शुरू भी कर चुका है। ध्यान रहे कि चीन दुनिया के एक बड़े एजूकेशन हब की तरह विकसित हो रहा है और आज भी वहां दो लाख से अधिक विदेशी छात्र शिक्षा पाते हैं। वहीं उच्च शिक्षा संस्थानों की कमी के कारण ही बड़ी संख्या में भारतीय छात्र विदेशों में उच्च शिक्षा के मौके तलाशने के लिए विवश होते हैं। विदेशों में शिक्षारत इन छात्रों पर इनके व परिवार द्वारा किया जाने वाला खर्च एक अनुमान के अनुसार 45 हजार करोड़ रुपये सालाना है। यह राशि भारतीय विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के वार्षिक खर्च से पंद्रह गुना से भी अधिक है और भारतीय छात्रों के अभिभावकों के गाढ़े खून- पसीने से कमाई गई इस पूंजी को अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, दुबई, हांगकांग, मलेशिया व आस्ट्रेलिया जैसे देशों के शिक्षा व्यवसायी लूट रहे हैं। उदारवाद के बदलते हुए परिवेश में इस शिक्षा व्यवसाय की लूट और अपनी विफलताओं से अनजान भारतीय मध्यम वर्ग सामाजिक सुरक्षा और रोजगार के खतरों की कठिन चुनौतियों को झेलते हुए भी अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए इस नए कथित विकास के साथ कदमताल करने की कोशिश कर रहा है। विकास की इस कदमताल में वह कल के सुनहरे सपने बुनकर अपने बच्चों को पढ़ने विदेश तो भेज देता है परंतु अपने आप को नए जनवादी राज परिवारों के जैसा समर्थ और आत्मनिर्भर नहीं पाता जिससे उसके बच्चे अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए दूसरे देशों में जाकर अंशकालिक कामों का सहारा लेते हैं। कैजुअल कामगारों के बड़े ठिकाने आस्ट्रेलिया में अंशकालिक कामों के लिए आस्ट्रेलियावासी गरीब युवाओं और भारतीय छात्रों के बीच बढ़ती प्रतिद्वंद्विता हमारे छात्रों पर लगातार होते हमलों का मुख्य कारण है। बेशक हमारे नीति निर्माता सकल घरेलू उत्पाद की तेज वृद्धि दर और क्रांतिकारी शिक्षा सुधारों की लाख बातें करें, मगर वास्तविकता यही है कि एजूकेशन हब बनने की बात तो दूर, हम शिक्षा संस्थानों की आवश्यक संख्या और शिक्षा की गुणवत्ता के मामले में अभी तक अंतराष्ट्रीय मानकों के आस पास भी नहीं हैं। इसी कारण बेहतर भविष्य की तलाश में अपने छात्रों का विदेश में जाना और उनके अभिभावकों की पूंजी को देश से बाहर जाने से रोक पाने में हम पूरी तरह असमर्थ हैं। यदि भारतीय शिक्षा व्यवस्था की स्थिति लगातार ऐसी ही बनी रहती है तो यह तय है कि अंततोगत्वा यह विकास की गति और देश की अर्थव्यवस्था के लिए शुभ संकेत नहीं होगा।
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