महेश राठी
भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई की सरकारी कोशिशों पर सवालिया निशान लगाते हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ सजग नागरिक मुहिम के तहत अन्ना हजारे आखिर दिल्ली पहुंच ही गए। अन्ना हजारे को रोकने और अपने आंदोलन पर पुनर्विचार के लिए सरकार ने कई प्रयास किए, लेकिन सरकार की कोशिशें बेकार ही साबित हुई। दरअसल, सरकार की संवाद की कोशिशें भी उसके भ्रष्टाचार से लड़ने की कोशिशों की तरह उलझाने वाली ओर रस्म अदायगी वाली ही
थी। अन्ना हजारे से वार्ता की जिम्मेदारी वास्तव में एंटोनी के नेतृत्व में एक मंत्री उप समूह को दी गई थी, जो इस बातचीत के निष्कर्षो को प्रणब मुखर्जी के नेतृत्व वाले जीओएम यानी मंत्री समूह को सुपुर्द करने वाला था और यही वह मंत्री समूह है, जिनके हितो के अनुरूप ही वर्तमान लोकपाल विधेयक तैयार किया है। वार्ता के प्रस्ताव को ठुकराते हुए अन्ना हजारे ने सरकार की वार्ता की नीयत पर ही सवाल खडे़ कर दिए हैं। सरकार अपने लोकपाल विधेयक की भांति ही अन्ना हजारे के नेतृत्व वाले भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को एक लंबी बातचीत की ऐसी प्रक्ति्रया में फंसाना चाहती थी, जिसका कोई नतीजा ही नहीं निकलता। वास्तव में सूचना माध्यमों, मीडिया की मजबूती और नई मध्य वर्गीय जागरूकता ने भ्रष्टाचार और उसके राजनीतिक संरक्षण को वर्तमान समय में पूरी तरह उजागर कर दिया है और इन नई बदली हुई परिस्थितियों में राजनीति की कोई भी धारा और सरकार भ्रष्टाचार के इन सवालों से मुंह चुराती है तो निश्चित ही उसके हाशिए पर चले जाने का खतरा है। वहीं जो सरकार इस भ्रष्टाचार से लड़ने का प्रण लेगी, वह वर्तमान दौर में राजनीतिक लाभ की स्थिति में होगी। अब इस वास्तविकता को समझकर आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी कांग्रेस नीत संप्रग-2 सरकार ने आश्चर्यजनक ढंग से इस मुद्दे को भी भुनाने के लिए भ्रष्टाचार से लड़ते हुए दिखाने की कवायद शुरू कर दी है। वर्तमान लोकपाल विधेयक जिसके खिलाफ अन्ना हजारे ने आमरण अनशन का गांधीवादी व्रत लिया है, इस सरकार का भ्रष्टाचार विरोध का तथाकथित औजार भी है और भ्रष्टाचार संरक्षण का मायावी सूत्र भी। असल में लोकपाल विधेयक का सरकारी प्रारूप देश के नागरिकों का कम, शासक वर्गो के सशक्तिकरण का माध्यम ही अधिक जान पड़ता है। अब इसी सरकारी लोकपाल विधेयक के विकल्प के रूप में अन्ना हजारे, किरण बेदी और अरविंद केजरीवाल सरीखे जागरूक नागरिकों ने मिलकर वैकल्पिक जन लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार किया है। सीमित अधिकारों वाले कम प्रभावकरी सरकारी लोकपाल विधेयक के मसौदे में अनगिनत ऐसी खामियां हैं, जो परोक्ष-अपरोक्ष रूप से राजसत्ता का बचाव ही करती नजर आती हैं। कभी-कभी तो यह आश्चर्यजनक ढंग से शासक वर्ग के संरक्षण का बेहद सक्रिय हथियार भी नजर आता है। सरकार द्वारा प्रस्तावित लोकपाल विधेयक में न तो भ्रष्टाचार के विरुद्ध सू मोटो यानी स्वविवेक से कार्रवाई करने के अधिकार का स्थान है और न ही आम नागरिक की शिकायत की सुनवाई का प्रावधान है। केवल सांसदों और मंत्रियों के विरुद्ध शिकायतों की जांच के लिए बना लोकपाल सिर्फ ऐसी शिकायत की ही जांच करेगा, जिसकी सिफारिश लोकसभा या राज्यसभा के अध्यक्ष द्वारा की गई हो। लोकसभा-राज्यसभा के अध्यक्ष जो हमेशा सत्ताधारी दल या वर्तमान समय में सत्ता गठबंधन से ही होते हैं, जाहिर है अपने सहयोगियों का बचाव ही करेंगें। इससे भी दिलचस्प स्थिति तब होगी, जब राजा जैसे मंत्री कोई भी मलाईदार विभाग संभालने से पहले लोकसभा-राज्यसभा के अध्यक्ष पदों पर अपने लोगों की नियुक्ति सुनिश्चित करने का खेल करेंगे। यदि गलती से ऐसी जांच शुरू हो जाती और कोई सांसद या मंत्री इसमें दोषी पाए जाते हैं तो लोकपाल की निष्प्रभावी संवैधानिक शक्तियां दोषी व्यक्तियों के बचाव का अस्त्र बन सकती हैं। क्योंकि सरकार के लोकपाल विधेयक प्रारूप के अनुसार लोकपाल सरकार के लिए महज एक सलाहकार संगठन है, उसके पास किसी जनप्रतिनिधि या मंत्री के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने का अधिकार नहीं है। बहरहाल यह तय है कि देश का जागरूक मध्यवर्ग इस स्थिति को समझते हुए वर्तमान व्यवस्था को चुनौती देने के लिए तैयार हो रहा है और अन्ना हजारे उसी लड़ाई का एक शुरुआती प्रतीक हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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