महेश राठी
औद्योगिकरण से शुरू विकास की तेज गति भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में द्रुत विकास का रूप धारण कर चुकी है। गति दु्रत इतनी कि इसकी आंधी में सभी भयावह दुष्परिणामों को खारिज करके विकास की इस नई अवधारणा से अभिभूत नीति निर्माताओं ने पूरी दुनिया में विकास को एक नारे या कहें तो एक क्रांति की तरह पेश करते हुए पूरी दुनिया को सम्मोहित कर दिया है। तथाकथित विकास के मोहपाश में जकड़ी दुनिया बेखबर मानव निर्मित तबाही
की ओर दौड़ रही है। आज जब दुनिया 21वीं सदी में दाखिल हो चुकी और उसके सामने जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय चुनौतियां गंभीर और खतरनाक सवाल बनती जा रही हैं तो क्या यह विकास की अंधी दौड़ मानवीय विकास का वास्तविक मुद्दा हो सकता है? आज जब पूरी मानव जाति और धरती इस तथाकथित विकास जनित खतरों को झेल रही है, तब विश्व राजनीति और उसके महानायकों की पर्यावरण के सवालों पर संवेदनहीन खामोशी या दोमुंहापन समाज के प्रति उनके उत्तरदायित्वों और दूरदर्षिता की असली कहानी नहीं कहती है? विकास के नाम पर होने वाला अंधाधुंध औद्योगिकरण से शुरू हुआ सामाजिक और भोगौलिक रूप से असंतुलित विकास ही आज इस खूबसूरत नीले ग्रह के अस्तित्व को चुनौती दे रहा है। इस असामान्य और असंतुलित विकास के नाम पर होने वाले औद्योगिकरण से पैदा होने वाली ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन वायुमंडल के लिए खतरा बन रहा है और यही खतरा पृथ्वी के पर्यावरण की तबाही का कारण है। औद्योगिकरण युग की शुरुआत से ही धरती गरम हो रही है तो मौसम अपना मिजाज बदल रहा है। यही गर्म होती धरती और बदलता मौसम इस खूबसूरत नीले ग्रह की तबाही का कारण बन रहा है। बदलते इस तापमान चक्र के कारण दुनिया के पर्यावरणविदें का मानना है कि अगले दो दशक में पूरा आर्कटिक बर्फ रहित हो जाएगा, जबकि वहीं कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि यह बर्फ इससे पहले 2013 तक पिघल चुकी होगी। केवल 2007 के ग्रीष्म काल के एक सप्ताह में ही आर्कटिक की पिघलने वाली बर्फ की मात्रा ब्रिटेन के कुल क्षेत्रफल से दोगुनी थी। बर्फ का यह निरंतर पिघलना पृथ्वी के तापमान को प्रभावित कर रहा है। आर्कटिक पर बर्फ की चादर के कारण पृथ्वी सूर्य की गर्मी को वापस प्रतिबिंबित कर देती है, जिससे तापमान नियंत्रित रहता है। यदि पृथ्वी की रक्षा टोपी की तरह काम करने वाली यह बर्फ पिघल जाती है तो पृथ्वी सूर्य की किरणों को सोखना शुरू कर देगी और पृथ्वी और अधिक गर्म होने लगेगी। अंधाधुंध औद्योगिकरण से होने वाले ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण पूर्व औद्योगिक युग से अभी तक धरती के तापमान में दो डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो चुकी है और विकास की वर्तमान रफ्तार के अनुसार सदी के अंत तक इसमें एक से साढ़े पांच डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोतरी का अनुमान है। यह घटना केवल आर्कटिक पर नही, वेस्ट अंटार्कटिका और ग्रीनलैंड पर सब तरफ देखी जा सकती है। यदि ग्रीनलैंड के पिघलने का सिलसिला इसी तरह जारी रहा तो समुद्रों का जलस्तर इस सदी के अंत तक 13 से 95 इंच तक बढ़ जाएगा, जो पिछली सदी में पहले ही 4 से 10 इंच बढ़ चुका है। जिसका परिणाम प्राकृतिक आपदाओं के लगातार बढ़ते जाने में परिलक्षित होता रहा है। पिछली सदी के समुद्री तूफान सुनामी और कैटरीना की तबाही इसी जलवायु परिवर्तन का परिणाम है। यों समुद्र में सुनामी रोज ही आती है, मगर प्रकृति की अपनी एक व्यवस्था और संतुलन है और यदि यह सुनामी अब बार-बार धरती से टकरा रही हैं तो इसका अर्थ है कि प्रकृति का संतुलन गड़बड़ा रहा है, उसकी व्यवस्था टूट रही है। एक रिपोर्ट के अनुसार, 1998 में 55 देशों में 96 बाढ़ दर्ज की गई, जो पिछली सदी में एक साल में आने वाली बाढ़ों की अधिकतम संख्या थी। इसके अलावा कैटरीना और सुनामी जैसे भयावह खतरों में भी लगातार बढ़ोतरी हो रही है। भारत के तटीय इलाकों अंडमान निकोबार और अन्य पडोसी देशों में आई सुनामी के कारण ढाई लाख से अधिक लोगों को अपनी जान से हाथ गंवाना पड़ा और भारी आर्थिक नुकसान भी हुआ। उस समय दावा किया गया था कि ऐसी सुनामी काफी लंबे समय के बाद यदा कदा ही आती हैं, परंतु उसके बाद 2005 में अमेरिका में कैटरीना और अब जापान में सुनामी से हुई तबाही और दुनिया पर भावी खतरे को लेकर पूरी दुनिया चिंतित है। प्राकृतिक कही जा रही इन मानव निर्मित आपदाओं में लगातार इजाफा हो रहा है और साथ ही बढ़ रही है इनकी व्यापकता और तबाही फैलाने की क्षमता भी। मौसम विशेषज्ञों और पर्यावरण के जानकारों के अनुसार यदि जलवायु परिवर्तन इसी दिशा में बढ़ता रहा तो इस सदी के अंत तक ऐसे समुद्री तूफानों और बाढ़ों में अस्सी प्रतिशत तक बढ़ोतरी होगी। इस बढ़ोतरी के कारण 20 लाख किमी से अधिक समुद्र तटीय इलाके प्रभावित होंगे, जो बांग्लादेश, चीन, मिस्र और इंडोनेशिया के करोड़ों लोगों के जीवन पर सीधा असर डालेगा और ध्यान रहे कि समुद्र तटों पर रहने वाली पचास प्रतिशत अमरिकी आबादी भी इन प्रभावों से अछूती रहने वाली नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार ग्लोबल वार्मिग के प्रभावों के कारण हर साल 1 लाख 54 हजार लोग अपनी जान गंवाते हैं। ग्लोबल वार्मिग के कारण होने वाले मौसमी बदलावों से तीसरी दुनिया के देशों में लोग अधिक संख्या में मलेरिया और कुपोषण का शिकार हो रहे हैं। बढ़ती बाढ़ें, प्रदूषित होते पीने लायक पानी से जहां कुपोषण का फैलाव हो रहा है, वहीं दूसरी तरफ मच्छरों की विभिन्न किस्मों के बढ़ने से मलेरिया से होने वाली मौतों में भी लगातार बढ़ोतरी हुई। ग्लोबल वार्मिग से धरती के तपमान में लगातार बढ़ोतरी ने दुनिया में पशु-पक्षियों और जलीय जीवों की हजारों प्रजातियों के अस्तित्व के लिए संकट पैदा कर दिया है। एक अनुमान के अनुसार, वर्तमान औद्योगिक विकास के कारण दुनिया के महासागर प्रतिवर्ष बीस लाख टन से भी अधिक कॉर्बन डाई आक्साइड ग्रहण करते हैं। औद्योगिक प्रदूषण और प्रदूषित जल के लगातार समुद्र के पानी में मिलने से समुद्रीय पर्यावरण नए खतरे झेल रहा है। समुद्र की गहराइयों में सफाई कर्मियों का काम करने वाली मूंगे की चट्टानों का अस्तित्व लगातार सिमट रहा है, जिस कारण कई तरह के समुद्री जीव लुप्त होने के कागार पर पहुंच चुके हैं और यह केवल एक स्थिति और आशंका है, जिसके कई आयाम बाकी हैं। ग्लोबल वार्मिग और प्रदूषण के कारण सागरीय भोजन चक्र पर जो हमला हुआ है, उसके कारण मछलियों की कई प्रजातियों, सागरीय पक्षियों, व्हेल्स, सील और पेंग्विनों की संख्या दिनोंदिन घट रही है। सेंडपाइपर, स्कॉटिश क्रासबिल, धुव्रीय भालुओं से लेकर व्हेल्स और पेंग्विन जैसी हजारों प्रजातियां ऐसी हैं, जिनकी संख्या घटते-घटते लुप्त होने की ओर है। हमारे और हमारी अजन्मी पीढि़यों के लिए अवश्यंभावी खतरे की तरह खड़ा यह विकास क्या वास्तव में विकास है? यह विकास जो पर्यावरण और जैविक खतरों के साथ ही व्यापक समाजिक विषमताओं का कारण भी है। आज इस परंपरागत विकास की प्रमाणिकता को जांचने और बदलने की जरूरत है। वास्तव में इस विकास का यह परिणाम कुछ व्यक्तियों और व्यक्ति समूहों के पूंजी संचयन की होड़ और संघर्ष के अलावा कुछ नहीं और पूंजी संचयन का यह संघर्ष हवा और पानी से उनकी ताजगी, पक्षियों से उनकी उड़ान, मछलियों से उनके तैरने का अधिकार छीनकर हमारी अजन्मी पीढि़यों को नई दुनिया देखने से रोक रहा है। इतने भयावह खतरों वाले विकास का यह वास्तविक रूप क्या कभी जीती हुई या हारी हुई किसी चुनावी राजनीति का हिस्सा बन पाएगा, ताकि किसी वैकल्पिक विकास के लिए एकजुट होते हुए धरती, उसके पर्यावरण और पूरे जैवमंडल को बचाने का भी चुनाव किया जा सके। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
औद्योगिकरण से शुरू विकास की तेज गति भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में द्रुत विकास का रूप धारण कर चुकी है। गति दु्रत इतनी कि इसकी आंधी में सभी भयावह दुष्परिणामों को खारिज करके विकास की इस नई अवधारणा से अभिभूत नीति निर्माताओं ने पूरी दुनिया में विकास को एक नारे या कहें तो एक क्रांति की तरह पेश करते हुए पूरी दुनिया को सम्मोहित कर दिया है। तथाकथित विकास के मोहपाश में जकड़ी दुनिया बेखबर मानव निर्मित तबाही
की ओर दौड़ रही है। आज जब दुनिया 21वीं सदी में दाखिल हो चुकी और उसके सामने जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय चुनौतियां गंभीर और खतरनाक सवाल बनती जा रही हैं तो क्या यह विकास की अंधी दौड़ मानवीय विकास का वास्तविक मुद्दा हो सकता है? आज जब पूरी मानव जाति और धरती इस तथाकथित विकास जनित खतरों को झेल रही है, तब विश्व राजनीति और उसके महानायकों की पर्यावरण के सवालों पर संवेदनहीन खामोशी या दोमुंहापन समाज के प्रति उनके उत्तरदायित्वों और दूरदर्षिता की असली कहानी नहीं कहती है? विकास के नाम पर होने वाला अंधाधुंध औद्योगिकरण से शुरू हुआ सामाजिक और भोगौलिक रूप से असंतुलित विकास ही आज इस खूबसूरत नीले ग्रह के अस्तित्व को चुनौती दे रहा है। इस असामान्य और असंतुलित विकास के नाम पर होने वाले औद्योगिकरण से पैदा होने वाली ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन वायुमंडल के लिए खतरा बन रहा है और यही खतरा पृथ्वी के पर्यावरण की तबाही का कारण है। औद्योगिकरण युग की शुरुआत से ही धरती गरम हो रही है तो मौसम अपना मिजाज बदल रहा है। यही गर्म होती धरती और बदलता मौसम इस खूबसूरत नीले ग्रह की तबाही का कारण बन रहा है। बदलते इस तापमान चक्र के कारण दुनिया के पर्यावरणविदें का मानना है कि अगले दो दशक में पूरा आर्कटिक बर्फ रहित हो जाएगा, जबकि वहीं कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि यह बर्फ इससे पहले 2013 तक पिघल चुकी होगी। केवल 2007 के ग्रीष्म काल के एक सप्ताह में ही आर्कटिक की पिघलने वाली बर्फ की मात्रा ब्रिटेन के कुल क्षेत्रफल से दोगुनी थी। बर्फ का यह निरंतर पिघलना पृथ्वी के तापमान को प्रभावित कर रहा है। आर्कटिक पर बर्फ की चादर के कारण पृथ्वी सूर्य की गर्मी को वापस प्रतिबिंबित कर देती है, जिससे तापमान नियंत्रित रहता है। यदि पृथ्वी की रक्षा टोपी की तरह काम करने वाली यह बर्फ पिघल जाती है तो पृथ्वी सूर्य की किरणों को सोखना शुरू कर देगी और पृथ्वी और अधिक गर्म होने लगेगी। अंधाधुंध औद्योगिकरण से होने वाले ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण पूर्व औद्योगिक युग से अभी तक धरती के तापमान में दो डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो चुकी है और विकास की वर्तमान रफ्तार के अनुसार सदी के अंत तक इसमें एक से साढ़े पांच डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोतरी का अनुमान है। यह घटना केवल आर्कटिक पर नही, वेस्ट अंटार्कटिका और ग्रीनलैंड पर सब तरफ देखी जा सकती है। यदि ग्रीनलैंड के पिघलने का सिलसिला इसी तरह जारी रहा तो समुद्रों का जलस्तर इस सदी के अंत तक 13 से 95 इंच तक बढ़ जाएगा, जो पिछली सदी में पहले ही 4 से 10 इंच बढ़ चुका है। जिसका परिणाम प्राकृतिक आपदाओं के लगातार बढ़ते जाने में परिलक्षित होता रहा है। पिछली सदी के समुद्री तूफान सुनामी और कैटरीना की तबाही इसी जलवायु परिवर्तन का परिणाम है। यों समुद्र में सुनामी रोज ही आती है, मगर प्रकृति की अपनी एक व्यवस्था और संतुलन है और यदि यह सुनामी अब बार-बार धरती से टकरा रही हैं तो इसका अर्थ है कि प्रकृति का संतुलन गड़बड़ा रहा है, उसकी व्यवस्था टूट रही है। एक रिपोर्ट के अनुसार, 1998 में 55 देशों में 96 बाढ़ दर्ज की गई, जो पिछली सदी में एक साल में आने वाली बाढ़ों की अधिकतम संख्या थी। इसके अलावा कैटरीना और सुनामी जैसे भयावह खतरों में भी लगातार बढ़ोतरी हो रही है। भारत के तटीय इलाकों अंडमान निकोबार और अन्य पडोसी देशों में आई सुनामी के कारण ढाई लाख से अधिक लोगों को अपनी जान से हाथ गंवाना पड़ा और भारी आर्थिक नुकसान भी हुआ। उस समय दावा किया गया था कि ऐसी सुनामी काफी लंबे समय के बाद यदा कदा ही आती हैं, परंतु उसके बाद 2005 में अमेरिका में कैटरीना और अब जापान में सुनामी से हुई तबाही और दुनिया पर भावी खतरे को लेकर पूरी दुनिया चिंतित है। प्राकृतिक कही जा रही इन मानव निर्मित आपदाओं में लगातार इजाफा हो रहा है और साथ ही बढ़ रही है इनकी व्यापकता और तबाही फैलाने की क्षमता भी। मौसम विशेषज्ञों और पर्यावरण के जानकारों के अनुसार यदि जलवायु परिवर्तन इसी दिशा में बढ़ता रहा तो इस सदी के अंत तक ऐसे समुद्री तूफानों और बाढ़ों में अस्सी प्रतिशत तक बढ़ोतरी होगी। इस बढ़ोतरी के कारण 20 लाख किमी से अधिक समुद्र तटीय इलाके प्रभावित होंगे, जो बांग्लादेश, चीन, मिस्र और इंडोनेशिया के करोड़ों लोगों के जीवन पर सीधा असर डालेगा और ध्यान रहे कि समुद्र तटों पर रहने वाली पचास प्रतिशत अमरिकी आबादी भी इन प्रभावों से अछूती रहने वाली नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार ग्लोबल वार्मिग के प्रभावों के कारण हर साल 1 लाख 54 हजार लोग अपनी जान गंवाते हैं। ग्लोबल वार्मिग के कारण होने वाले मौसमी बदलावों से तीसरी दुनिया के देशों में लोग अधिक संख्या में मलेरिया और कुपोषण का शिकार हो रहे हैं। बढ़ती बाढ़ें, प्रदूषित होते पीने लायक पानी से जहां कुपोषण का फैलाव हो रहा है, वहीं दूसरी तरफ मच्छरों की विभिन्न किस्मों के बढ़ने से मलेरिया से होने वाली मौतों में भी लगातार बढ़ोतरी हुई। ग्लोबल वार्मिग से धरती के तपमान में लगातार बढ़ोतरी ने दुनिया में पशु-पक्षियों और जलीय जीवों की हजारों प्रजातियों के अस्तित्व के लिए संकट पैदा कर दिया है। एक अनुमान के अनुसार, वर्तमान औद्योगिक विकास के कारण दुनिया के महासागर प्रतिवर्ष बीस लाख टन से भी अधिक कॉर्बन डाई आक्साइड ग्रहण करते हैं। औद्योगिक प्रदूषण और प्रदूषित जल के लगातार समुद्र के पानी में मिलने से समुद्रीय पर्यावरण नए खतरे झेल रहा है। समुद्र की गहराइयों में सफाई कर्मियों का काम करने वाली मूंगे की चट्टानों का अस्तित्व लगातार सिमट रहा है, जिस कारण कई तरह के समुद्री जीव लुप्त होने के कागार पर पहुंच चुके हैं और यह केवल एक स्थिति और आशंका है, जिसके कई आयाम बाकी हैं। ग्लोबल वार्मिग और प्रदूषण के कारण सागरीय भोजन चक्र पर जो हमला हुआ है, उसके कारण मछलियों की कई प्रजातियों, सागरीय पक्षियों, व्हेल्स, सील और पेंग्विनों की संख्या दिनोंदिन घट रही है। सेंडपाइपर, स्कॉटिश क्रासबिल, धुव्रीय भालुओं से लेकर व्हेल्स और पेंग्विन जैसी हजारों प्रजातियां ऐसी हैं, जिनकी संख्या घटते-घटते लुप्त होने की ओर है। हमारे और हमारी अजन्मी पीढि़यों के लिए अवश्यंभावी खतरे की तरह खड़ा यह विकास क्या वास्तव में विकास है? यह विकास जो पर्यावरण और जैविक खतरों के साथ ही व्यापक समाजिक विषमताओं का कारण भी है। आज इस परंपरागत विकास की प्रमाणिकता को जांचने और बदलने की जरूरत है। वास्तव में इस विकास का यह परिणाम कुछ व्यक्तियों और व्यक्ति समूहों के पूंजी संचयन की होड़ और संघर्ष के अलावा कुछ नहीं और पूंजी संचयन का यह संघर्ष हवा और पानी से उनकी ताजगी, पक्षियों से उनकी उड़ान, मछलियों से उनके तैरने का अधिकार छीनकर हमारी अजन्मी पीढि़यों को नई दुनिया देखने से रोक रहा है। इतने भयावह खतरों वाले विकास का यह वास्तविक रूप क्या कभी जीती हुई या हारी हुई किसी चुनावी राजनीति का हिस्सा बन पाएगा, ताकि किसी वैकल्पिक विकास के लिए एकजुट होते हुए धरती, उसके पर्यावरण और पूरे जैवमंडल को बचाने का भी चुनाव किया जा सके। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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