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गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

जनगणना से बाहर भूख और गरीबी की दुनिया



महेश राठी
चर्चित लेखक
दिल्ली में बेघरों की गिनती और उन्हें यूनिक आईडी 'आधार कार्ड' सौंपने की मुहिम की शुरुआत बड़े तामझाम के साथ हुई थी परंतु जनगणना का काम पूरा होने तक भी यहां के अधिकतर बेघर इन गैर सरकारी संगठनों की परियोजना से बाहर ही हैं। 121 करोड़ के इस बड़े देश में हम कई राज्यों और कई छोटे देशों की कुल जनसंख्या से भी बड़े एक करोड़ से भी अधिक आबादी वाले देश की नागरिकताविहीन ऐ से राज्य का निर्माण कर रहे हैं जिसमें केवल भूख, गरीबी और अर्ध अपराधों की दुनिया में जाने की अंधी गहरी सुरंग के अलावा कुछ भी नहीं है
15वीं राष्ट्रीय जनगणना के शुरुआती आंकड़े देश के सामने आ चुके हैं। जनसंख्या वृद्धि की दर से लेकर लैंगिक अनुपात, स्त्री एवं पुरुषों में शिक्षा की स्थिति, आबादी का घनत्व, बढ़ती शिक्षा के बीच बढ़ते लिंग अनुपात की विषमताओं तक सभी आंकड़े देश के सामने आ चुके हैं। दुनिया की सबसे बड़ी जनगणना के बावजूद देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जो इस सेंसस से बाहर रहते हुए देश की आधिकारिक नागरिकता से वंचित है।
नहीं बदले जनगणना के तरीके
दरअसल, जनगणना के पहले चरण में घरों एवं उसमें रहने वाले परिवारों की गणना करते हुए उन्हें सूचीबद्ध किया जाता है और अगले चरण में व्यक्तियों एवं उनसे सम्बंधित सूचनाओं का संग्रहण होता है। भारत में पहली जनगणना 1872 में और इसके पूर्व विगत जनगणना 2001 में हुई थी। शुरुआत से लेकर अभी तक जनगणना के तरीकों में कोई आधारभूत बदलाव नहीं हुआ है। घर-परिवार की परिभाषा को लेकर कुछ सतही बदलाव हुए हैं परंतु सवाल उनका है जिनके पास पुरानी या नई सरकारी परिभाषा वाला घर ही नहीं है।
दिल्ली में ही इतने बेघर
यदि देश की राजधानी की ही बात की जाए तो यहीं पर उनकी आबादी एक से डेढ़ प्रतिशत के बीच है। एक गैर सरकारी संगठन 'बेघर फाउंडेशन' के 2008 में किए एक सव्रे के अनुसार इन बेघरों की संख्या 88,723 थी। यह सव्रे रात के समय किया गया था जिस कारण रात में काम करने वाले ढेरों रिक्शा चालक, कुली और बोझा ढोने वाले कामगार इस सव्रे से बाहर रह गए। सव्रे करने वाले संगठन का भी मानना है कि यदि इसमें सव्रे से बाहर रहे लोगों को शामिल किया जाए तो शर्तिया यह आंकड़ा एक लाख से कहीं ज्यादा जाता है।
राष्ट्रीयता की सीमा में ही नहीं
राष्ट्रमंडल खेलों, राजधानी की खूबसूरती के नाम बेघर हुए झुग्गीवासियों और दिल्ली में लगातार जारी निर्माण कायरें के कारण पिछले दो सालों में बेघरों की संख्या को बेहिसाब बढ़ाया है। सरकारी आंकड़ों को सही माना जाए तो 2001 की जनगणना के अनुसार देश में बेघरों की संख्या 20 लाख थी परंतु बेघरों के लिए कार्यरत कई गैर सरकारी संगठनों के अनुसार बेघरों की संख्या का यह आंकड़ा कुल आबादी का कम से कम एक प्रतिशत तो अवश्य है। अर्थात देश में उनकी आबादी कभी भी एक करोड़ से अधिक है। इन बेघरों में 90 प्रतिशत के लगभग आबादी गणना से बाहर यानी नागरिकता और देश की औपचारिक राष्ट्रीयता हासिल करने की सीमा से परे हैं।
जिनकी गणना में जगह नहीं
देश की नागरिकता से अलग यह केवल एक आबादी है। इसके अलावा वे प्रवासी मजदूर जो मजदूरी कानूनों से बचने के लिए सरकारी या उनके हितों की वकालत करने वाली आंखों से बचाकर रखे जाते हैं, वे भी इसी दायरे में आते हैं। बांग्लादेशी या श्रीलंकाई तमिल शरणार्थी और सालों से भारत में रह रहे नेपाली कामगार कहां के नागरिक हैं? शहरों में किरायेदार परिवार मकान मालिक कई कारणों से जिनकी जानकारी सार्वजनिक नहीं करना चाहते हैं, वह भी नागरिकता के और उससे प्राप्त होने वाली दस्तावेजी पहचान से वंचित रह जाते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर जो अक्सर अलग-अलग जगहों पर किरायेदार के तौर पर रहते हैं, उनका कहना है कि पिछले 20 सालों में उन्हें याद नहीं कि जनगणना से सम्बंधित जानकारी किसी ने उनसे मांगी हो।
समस्या सिर्फ भारतजनित नहीं
यह समस्या न केवल दिल्ली की है और न ही केवल देश की। यह कमोबेश एक विश्वव्यापी समस्या है। अल्प विकसित और विकासशील देशों से लेकर विकसित औद्योगिक देश भी वर्तमान उदारवादी नीतियों के कारण तीसरी दुनिया के देशों की इन समस्याओं का शिकार हो रहे हैं। दरअसल, सामाजिक दायित्वों को छोड़ निर्बाध विकास का जुनून जहां कुछेक के लिए अपार सम्भावनाओं के द्वार खोल रहा है, तो दूसरी तरफ नागरिक अधिकारों को भी खोती जा रही वंचितों की बढ़ोतरी के लिए भी जिम्मेदार है। उदारवादी विकास से अभिभूत नवउदारवादी विकासजनित आर्थिक विषमताओं के दुष्परिणामों से एकदम बेपरवाह अपने विकासगान में व्यस्त है।
कल्याण की रस्मअदायगी
गरीबी, बेकारी के कारण लगातार हाशिए पर धकेली जा रही दुनिया की एक बड़ी आबादी के लिए सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक कल्याण की बात सरासर बेमानी है। क्योंकि जनगणना देश की आबादी के आकार, सामाजिक आर्थिक वितरण, जनसांख्यिकीय बनावट और विशेषताओं के आंकड़े उपलब्ध कराने का काम करती है जिसके आधार पर सरकार, प्रशासन और गैर सरकारी संगठन देश और जनता के लिए योजनाएं और उनको लागू करने का काम करते हैं। यदि राज्य और सरकार के पास अपने नागरिकों के वास्तविक आंकड़े और उनकी नागरिकता के ही प्रमाण नही हैं तो कल्याण किसका और कैसा? दरअसल इस बड़ी बेघर आबादी के लिए घोषित कल्याण योजनाएं सरकारी रस्म अदायगी से अधिक कुछ भी नहीं जान पड़ती हैं।
विचारणीय पहलू
देश की राजधानी दिल्ली में राज्य की मुख्यमंत्री ने बेघरों की गिनती और उन्हें यूनिक आईडी 'आधार कार्ड' सौंपने की मुहिम की शुरुआत बड़े तामझाम के साथ की थी, परंतु जनगणना का काम पूरा होने तक भी दिल्ली के अधिकतर बेघर इन गैर सरकारी संगठनों की परियोजना से बाहर ही हैं। 121 करोड़ के इस बड़े देश में हम कई राज्यों और कई छोटे देशों की कुल जनसंख्या से भी बड़े एक करोड़ से भी अधिक आबादी वाले देश की नागरिकताविहीन ऐसे राज्य का निर्माण कर रहे हैं जिसमें केवल भूख, गरीबी और अर्ध अपराधों की दुनिया में जाने की अंधी गहरी सुरंग के अलावा कुछ भी नहीं है।
    


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