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शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

पाकपरस्त आतंक और वैश्विक खामोशी

महेश राठी
 वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में संभवतया आतंकवाद सबसे अधिक चर्चित मुद्दा बनकर उभरा है। आतंकवाद और आतंकवादी घटनाएं भारत के लिए कोई नई बात नहीं हैं, लेकिन मुंबई पर हुए आतंकी हमले के बाद पूरे देश में दहशत और क्षोभ का माहौल था। मुंबई हमले के बाद जितना आतंकवाद चर्चित था, उतना ही पाकिस्तान व उसकी गुप्तचर संस्था आइएसआइ भी चर्चाओं में रही। भारतीय राजनीति में आतंकवाद, आइएसआइ और पाकिस्तान के विरोध को लेकर लंबे समय तक एक उग्र राष्ट्रवाद का वातावरण बना रहा था। हालांकि आतंकवाद जिसके लक्ष्य और उसकी सीमाएं जितने प्रत्यक्ष रूप से दिखाई पड़ते हैं, उससे कहीं अधिक उसकी सीमाएं और मकसद छुपे हुए हैं। आइएसआइ एशिया महाद्वीप में आतंकवादी संगठनों को संसाधन मुहैया कराने वाली एक गुप्तचर संस्था के रूप में कुख्यात संगठन है। आतंकी संगठनों से उसके संबंधों के कारण इस संगठन की भूमिका हमेशा संदेह के घेरे में रहती आई है, लेकिन यह भी वास्तविकता है कि अमेरिका के आतंकवाद विरोधी अभियान में यह संगठन अमेरिका की सीआइए का प्रमुख सहयोगी संगठन है और वर्तमान आतंकवाद विरोध से भी कहीं आगे दोनों संगठनों के आपसी सहयोग का एक लंबा और विवादास्पद इतिहास रहा है। दुनिया में अपने विरोधी और संभावित विरोधी देशों के लिए कठिनाइयां पैदा करने की लगातार मुहिम में सीआइए का मुख्य संपर्क आइएसआइ रहा है। दरअसल, आइएसआइ एशिया और दुनिया में अस्थिरता फैलाने, बांटो और राज करो की एंग्लो-अमेरिकन मुहिम का मुख्य औजार रहा है। मुस्लिम कट्टरपंथियों की मानसिकता को परख कर उसके इस्तेमाल की शुरुआत ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने सबसे पहले की, जिसके तहत मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड नामक संगठन को बनाने में ब्रिटिश साम्राज्य ने अहम भूमिका अदा की। कालांतर में जो मुस्लिम आतंकी संगठनों और सीआइए व ब्रिटिश सेना के गुप्तचर संगठन एम16 के मध्य प्रमुख संपर्क सूत्र रहा। मुस्लिम ब्रदरहुड ही अल कायदा और हमास सरीखे आतंकी संगठनों की सांगठनिक और आर्थिक रीढ़ रहा है। सीआइए द्वारा मुस्लिम आतंकी संगठनों के इस्तेमाल से अराजकता व अस्थिरता फैलाने के अनेक उदाहरण एशिया के कई देशों में देखे जा सकते हैं। इंडोनेशिया के कई आतंकी संगठनों के पीछे सीआइए और एम16 के प्रशिक्षित लोगों और जनरलों की भूमिका रही है। कमांडो जेहाद जो बाद में जेमाहे इस्लामिया के नाम से जाना गया और लश्करे जेहाद जैसे आतंकी संगठनों के पीछे अमेरिका प्रशिक्षित जनरल सुर्पमन जैसे लोगों का हाथ रहा। बाली बमकांड के मास्टरमाइंड अल फारुक की पहचान भी सीआइए के एक प्रशिक्षित एजेंट के तौर पर की गई थी। इंडोनेशिया के इंटेलिजेंस बोर्ड के पूर्व प्रमुख एसी मनुलंग के हवाले से टेंपो नामक पत्रिका में प्रकाशित कहानी के अनुसार अल फारुक सीआइए द्वारा भर्ती किया गया एजेंट था। कुवैती नागरिक उमर अल फारुक बोगोर में 5 जून को गिरफ्तार करके अमेरिका के हवाले कर दिया गया, जहां से वह कथित रूप से हिरासत से भागने में कामयाब रहा। इससे पहले भी सुकर्णो सरकार को अस्थिर करने के लिए साठ के दशक में ब्रिटिश गुप्तचर एजेंसी एम16 ने इंडोनेशिया के इस्लामिक गुरिल्लाओं को समर्थन दिया। मिस्र की जनवादी और धर्मनिरपेक्ष नासिर सरकार को अस्थिर करने की मुस्लिम ब्रदरहुड की लगातार कोशिशों को भी सीआइए और एम16 का समर्थन हासिल रहा। नासिर द्वारा स्वेज नहर पर आधिपत्य की घोषणा के बाद ब्रदरहुड और सीआइए व एम16 में संबंध गहरे हुए। पचास के दशक में नासिर के खिलाफ सीआइए व एम16 ने मुस्लिम ब्रदरहुड के साथ मिलकर अभियान की शुरुआत की और 1954 में नासिर पर जानलेवा हमला किया, जिसके बाद नासिर ने मुस्लिम ब्रदरहुड को प्रतिबंधित करके उसे देश से बेदखल कर दिया। इसी कड़ी में 1955 में सीआइए और एम16 ने ब्रदरहुड का इस्तेमाल सत्तर के दशक में सीरिया की वाम रूझानों वाली सरकार को अस्थिर करने के लिए करते हुए वहां एक कट्टरपंथी सरकार की स्थापना में प्रमुख भूमिका अदा की। अरब जगत में अस्थिरता फैलाने के लिए सीआइए और एम16 ने लगातार ब्रदरहुड का प्रयोग किया। 1982 में मुस्लिम ब्रदरहुड ने सीरियाई सरकार को फिर से चेतावनी दे डाली और सरकार व ब्रदरहुड के बीच हम्मा शहर में खुला संघर्ष हुआ, जिसमें 20 हजार से अधिक लोगों ने अपनी जान गंवाई। इसी प्रकार 1953 में ईरान की मोशादेग सरकार को पलटकर शाह की सत्ता स्थापित करने में सीआइए और एम16 की अहम भूमिका थी और शाह के 1963 की श्वेत क्रांति के बाद राष्ट्रवादी नेता के तौर पर उभरने और प्रगतिशील सुधारों की शुरुआत के बाद शाह की सरकार पलटने और आयातुल्लाह खुमैनी को स्थापित करने में सीआइए और एम16 ने फिर अहम भूमिका निभाई। ब्रिटिश गुप्तचर एजेंसी के एक एजेंट जॉन कॉलमैन द्वारा जारी एक रिपोर्ट ने मुस्लिम ब्रदरहुड और सीआइए व एम16 के संबंधों का खुलासा किया। आइएसआइ मध्य एशिया, भारत और मध्य-पूर्व में अस्थिरता फैलाने और एंग्लो-अमेरिकन साम्राज्यवादी लक्ष्यों की पूर्ति का प्रमुख हथियार रही है। सोवियत संघ के खिलाफ अफगानिस्तान में अलकायदा और तालिबान को आर्थिक व सांगठनिक सहायता देकर सीआइए और आइएसआइ ने दुनिया के सर्वाधिक खतरनाक संगठनों के रूप में विकसित किया। वह अमेरिकन सीआइए ही था, जिसने अफगानिस्तान में आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों को धन और हथियार मुहैया कराए और उन्हें प्रशिक्षण शिविरों तक पहुंचाने का काम आइएसआइ ने किया। आतंकवादियों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उन्हें ड्रग्स का कारोबार सिखाने वाला भी सीआइए ही था। इस काम के लिए सीआइए ने अफगान आतंकवादियों को आइएसआइ के जरिए एक मिग विमान भी मुहैया कराया। इस मुहिम को सोवियत संघ के विघटन के बाद भी सीआइए और आइएसआइ ने जारी रखा। युगोस्लाविया में सर्ब और बोस्निया के मध्य संघर्षो और युगोस्लाविया के विघटन में भी अलकायदा और पाकिस्तान स्थित लश्करे तैयबा ने बहुत अहम भूमिका अदा की। दरअसल, मुस्लिम जगत में अस्थिरता फैलाने के लिए आइएसआइ पर सीआइए और ब्रिटिश गुप्तचर सेवा की निर्भरता 70 के दशक के बाद बढ़ना शुरू हुई। सोवियत-अफगान युद्ध के दौरान 1979 में अफगान मुजाहिद्दीन नामक आतंकी संगठन को धन और हथियारों की सहायता से सीआइए और आइएसआइ के संबंध प्रगाढ़ होने शुरू हुए, जिन्हें बाद में अलकायदा और तालिबान की सहायता करते हुए नई ऊंचाइयां प्राप्त हुई। सीआइए-आइएसआइ के गठबंधन का अस्थिरता फैलाने का यह सिलसिला अभी तक भी कायम है। लंदन के एक दैनिक ने 2007 में अपनी एक रिपोर्ट में उद्घाटित किया कि अमेरिका ईरान में अस्थिरता फैलाने के लिए आइएसआइ का सहयोग ले रहा है। इसके एक माह बाद एबीसी न्यूज ने इस समाचार की पुष्टि करते हुए बताया कि पाकिस्तान के ईरान सीमा से सटे प्रांत बलूचिस्तान से जुनदुल्लाह नामक संगठन का इस्तेमाल पाकिस्तान ईरान में अस्थिरता फैलाने के लिए कर रहा है। क्या दुनिया और भारतीय जनमानस यह सरल तर्क नहीं समझता है कि जब अमेरिका अफगानिस्तान में आतंकवाद विरोध की मुहिम चला रहा है और पाक में भी अपने विरोधी आतंकी ठिकानों पर हमले करने से नहीं चूकता है तो पाक अधिकृत कश्मीर में लश्करे तैयबा और जैशे मोहम्मद को अपनी गतिविधियां चलाने की छूट क्यों? असल में आजादी के साठ साल बाद भी अभी तक अमेरिका को भारत में सीधा दखल करने का मौका भारतीय राजनीति ने कभी नहीं दिया था, लेकिन मुंबई हमले के बाद पहली बार अमेरिका देश के अंदरूनी मामलों में दखल कर रहा है, जो उसकी एक बड़ी रणनीतिक जीत है और यह जीत उसने इसी आतंकवाद से कमाई है। दुनिया में आतंकवाद विरोध की अगुवाई करने वाला देश आज भी चेचेन्या, झयांगयांग और ईरान में पनपने वाले आतंकवाद को सहायता और समर्थन दे रहा है व कश्मीर पर भी अभी तक उसका रुख स्पष्ट नहीं है। विडंबना यह है कि हम उसकी बयानबाजी से अति उत्साहित होकर उससे ही सहायता की उम्मीद कर रहे हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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