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सोमवार, 25 अप्रैल 2011

आरोप-प्रत्यारोप में फंसती भ्रष्टाचार की मुहिम

महेश राठी 
लोकतंत्र में सुधार की मुहिम त्रासदपूर्ण तरीके से आरोप-प्रत्यारोप का शिकार बन रही है। जन लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार करने के लिए बनी मंत्रियों और सिविल सोसाइटी की दस सदस्यीय कमेटी अपने काम के शुरुआती दौर में ही सीडी विवाद में फंस चुकी है। भ्रष्टाचार से लड़ने की प्रतिबद्धतता को लगातार दोहराने वाली कांग्रेस का दोमुंहापन जहां अन्ना हजारे और उनके सहयोगियो पर बढ़ते हमलों से उजागर हो रहा है तो वहीं अन्ना हजारे के आंदोलन की सफलता पर भी संशय के बादल मंडराने लगे हैं। पूर्व कानून मंत्री शांतिभूषण से जुडे़ सीडी विवाद ने अन्ना हजारे की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को एक विवादास्पद आंदोलन में बदल दिया है। हालांकि लोकपाल बिल के लिए बनी संयुक्त मसौदा कमेटी में शांतिभूषण और प्रशांत भूषण कांग्रेस सहित कई लोगों के लिए शुरू से ही परेशानी का कारण रहे हैं। सबसे पहले इस विवाद की शुरुआत बाबा रामदेव से हुई और योग गुरु की प्रतिक्रिया ने मानो कांग्रेस को सॉफ्ट टारगेट मुहैया करा दिया हो। योग गुरु द्वारा खड़ा किया विवाद खत्म भी नहीं हो पाया था कि शांतिभूषण और प्रशांत भूषण राजनेताओं के निशाने पर आ चुके थे। पहले कांग्रेसी महासचिव दिग्विजय सिंह और उसके बाद परमाणु करार पर वोट के बदले नोट वाले प्रकरण से कांग्रेस के चिर सहयोगी बने अमर सिंह अपने चिर परिचित अंदाज में पूरी तरह से मैदान में आ डटे हैं। अन्ना हजारे के आंदोलन से जुडे़ शांतिभूषण और प्रशांत भूषण के विरुद्ध अमर सिंह की सक्रियता परमाणु करार पर उनकी चिंताओं और सक्रियता की याद ताजा कर देती है। लगता है कि अमर सिंह एक बार फिर से कांग्रेस के संकट मोचक की भूमिका में अवतरित हो रहे हैं। अमर सिंह की सक्रियता के अलावा कांग्रेस में लोकतंत्र के एक नए युग का भी मानो सूत्रपात हो चुका है। अन्ना हजारे पर दिग्गी राजा के बढ़ते हमलों और कपिल सिब्बल के गैर जिम्मेदार बयानों पर सवाल उठाए गए तो सदा गंभीर दिखने की कसरत करने वाले कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने बेहद कुटिलता से मुस्कराते हुए कहा कि लोकतंत्र में सबको बोलने की आजादी है। ऐसी मायावी लोकतांत्रिक आजादी से संभवतया कांग्रेस का खुद उसके इतिहास में पहली बार साक्षात्कार हुआ है। इस कुटिल लोकतांत्रिक आजादी पर कांग्रेस अध्यक्ष का मासूम जवाब भी इस नई लोकतांत्रिक आजादी को नई ऊंचाइयां प्रदान कर देता है। अन्ना हजारे द्वारा लिखे गए पत्र के जवाब में सोनिया गांधी ने जहां एक तरफ एनएसी की कोशिशों का हवाला देते हुए एक तरफ भ्रष्टाचार से लड़ने की अपनी प्रतिबद्धताओं को दोहराया है तो दूसरी तरफ अन्ना को आश्वस्त करने की कोशिश भी की है कि वह किसी प्रकार के दुष्प्रचार की मुहिम को समर्थन नहीं करती हैं। लेकिन अब सवाल यह है कि यदि कांग्रेस अध्यक्ष भ्रष्टाचार के खिलाफ इतनी चिंतित एवं प्रतिबद्ध हैं तो अपने सिपहसालारों की जबानी जंग पर लगाम क्यों नहीं लगाती हैं। दरअसल, यह भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम की हवा निकालने की सोची-समझी कांग्रेसी रणनीति है, जो लोकतांत्रिक आजादी के तर्क से ही लोकतंत्र की मजबूती में रुकावट बन रही है। दरअसल, भ्रष्टाचार पर अन्ना हजारे को मिले व्यापक जन समर्थन के बाद कांग्रेस को अपने तथाकथित भ्रष्टाचार विरोध अभियान को रीडिजाइन करने और नए सिरे से अपनी रणनीति तैयार की जरूरत आ गई थी और इस नई रणनीति की धमक सिविल सोसाइटी के सदस्यों पर हमले के रूप में दिखाई पड़ रही है। कांग्रेस की यह त्रिआयामी रणनीति बेहद दिलचस्प है और स्पष्ट भी। वास्तव में हमेशा की तरह हर अच्छे काम और अभियान के लिए गांधी परिवार को श्रेय देना इस कांग्रेसी रणनीति का केंद्रीय मुद्दा है। यही चपलता कांग्रेस के इन नीति नियंताओं ने आरटीआइ और ग्रामीण रोजगार योजना के क्रियान्वयन को लेकर दिखाई, जबकि इन दोनों प्रगतिशील कानूनों में विभिन्न सामाजिक कार्यकर्ताओं और संप्रग-1 को समर्थन करने वाले वामपंथ की अहम भूमिका रही है। भारतीय राजनीति के एक प्रगतिशील हिस्से द्वारा तैयार इन कानूनों पर जो रणनीति अपनाई गई, उसी रणनीति पर कांग्रेस अबकी बार भी काम कर रही थी। परंतु अन्ना हजारे और कथित सिविल सोसाइटी ने कांग्रेस के खेल को पूरी तरह बिगाड़ कर रख दिया। यदि पांच राज्यों के चुनाव का दबाव कांग्रेस पर नहीं होता तो संभवतया इस मामले से निपटने के लिए कांग्रेस किसी दूसरी रणनीति पर काम करती। कांग्रेस की इस त्रिआयामी रणनीति में सबसे पहले मिस्टर क्लीन के रूप में प्रधानमंत्री और उनकी मोहिनी छवि है तो दूसरी बाहरी एवं भीतरी राजनीतिक आक्रमण के लिए दिग्विजयी और अमर सिंह की जोड़ी है। तीसरी और आखिरी इन सबसे ऊपर गांधी परिवार की अंतिम निर्णय करने वाली भूमिका है। असल में गांधी परिवार में कांग्रेस ने एक गॉड फैक्टर को प्रत्यारोपित किया है, जिसके कारण गांधी परिवार विशेषतया कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को आरोप-प्रत्यारोप से अलग ऐसी भूमिका सौंपी है, जो प्रत्येक अंतिम एवं अकाट्य निर्णय लेती हैं। यही भूमिका कांग्रेस को सारे सकारात्मक निर्णयों का श्रेय लेने की जमीन बनाती है। अब इस काम में जाने-अनजाने अन्ना हजारे ने भी कदम आगे बढ़ाया है। जब दिग्विजय सिंह और कपिल सिब्बल ने अन्ना हजारे और उनके आंदोलन पर हमला तेज किया तो अन्ना ने सोनिया गांधी को शिकायती पत्र लिखकर मामले में दखल देकर सुलह की अपील की। यही इस नए दौर के गांधी की त्रासदी है कि उससे भी बड़ा कोई गांधी देश में है, जिसे पत्र लिखकर गुहार करते हुए उसे इस गांधी ने अपने नेता के रूप में स्थापित करके अंतिम श्रेय का रास्ता दे दिया है। अब दूसरी तरफ अन्ना की मुहिम पर विवाद गहराता जा रहा है तो अन्ना हजारे के तल्ख सुरों में बदलाव आ रहा है। कल तक देश की राजनीति को कलुषित घोषित करते हुए पूरी राजनीति को खारिज करने वाले अन्ना अचानक संसद के प्रति सम्मान जाहिर करते हुए संसद के निर्णय को स्वीकार करने लेने की बात कहने लगे हैं। इसके अलावा भी अन्ना के आंदोलन और उनके विचारों के विरोधभास भी जग जाहिर हो रहे हैं। नरेंद्र मोदी पर विवादास्पद बयान देकर जहां अन्ना ने सिविल सोसाइटी में अपना एक विरोधी तबका तैयार कर लिया है तो वहीं राज ठाकरे से उनकी नजदीकियां भी उनके विरोधी तबके का आकार बढ़ाएंगी। खासतौर पर हिंदीभाषी राज्यों में। वहीं पुणे के एक गैर सरकारी संगठन ने अन्ना हजारे के ट्रस्ट हिंद स्वराज की अनियमितताओं के खिलाफ याचिका दायर की है तो अंग्रेजी की एक पत्रिका ने अन्ना के गांव में लागू उनके निरंकुश नियमों पर सवाल खडे़ किए हैं। वास्तव में पूरी राजनीति को खारिज करने के अन्ना हजारे के बयान ने तमाम राजनीतिक हलकों में उनके आंदोलन के विरुद्ध एक स्वाभाविक माहौल तैयार कर दिया है। लेकिन वास्तविकता यह है कि खराब राजनीति का विकल्प कोई बेहतर राजनीति ही हो सकती है। राजनीति की केवल आलोचना करने वाली सिविल सोसाइटी बगैर राजनीति में पदार्पण के कोई विकल्प नहीं दे सकती है। इसके अलावा भारतीय राजनेताओं को भी समझना होगा कि यह सिविल सोसाइटी कोई राशन की लाइन में खडे़ गरीबों, सड़क पर सोते बेघरों या किसानों का प्रतिनिधित्व नहीं करती है और न ही इसका नेतृत्व किसी अधनंगे फकीर नुमा महात्मा के पास है। तमाम साधन संपन्न इस कथित सिविल सोसाइटी का भी एक वर्ग चरित्र है, जो आज देश की सत्ता और संसाधनों में अपनी हिस्सेदारी चाहता है। अब इन वास्तविकताओं को समझकर ही यदि अन्ना हजारे और उनके सहयोगी अपनी अगली रणनीति तैयार करते हैं तो ही किसी बेहतर एवं तार्किक लोकपाल कानून बनवाने में कामयाब हो पाएंगे। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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