महेश राठी
नब्बे के दशक की शुरुआत तक जो खेल घाटे का सौदा हुआ करता था अचानक देश का धर्म कहलाने लगा और उसको नियंत्रित करने वाला खेल बोर्ड आज दुनिया का सबसे अमीर खेल बोर्ड बन चुका है। राजनेताओं के बाद अब उद्योगपतियों की इस खेल में कूदने की बेताबी यही बताती है कि यह खेल लाभप्रद होकर अब एक व्यवसाय में बदल चुका है। देश, टीम और टीम भावना की परिभाषाएं तेजी से बदल रही हैं।। अब देश के लिए खेलने का मतलब है पेशेवर अंदाज, आय बढ़ाने के तरीके और उसके लिए मोलभाव की व्यावसायिक संस्कृति। देशहित पर धन को प्राथमिकता देने की यह व्यावसायिक संस्कृति वेस्टइंडीज दौरे पर नहीं जाने के भारतीय टीम के वरिष्ठ सदस्यो के तर्क से उजागर हो रही है। वह आइपीएल मालिकों के सामने खामोश हो खड़े हो जाते हैं जबकि खराब स्वास्थ्य और आराम की आवश्यकता के तर्क भारतीय राष्ट्रीय टीम का चयन होते समय अचानक उठ खडे़ होते हैं। धन के लिए खेलने की इस व्यावसायिक मानसिकता का शिकार केवल भारतीय टीम ही नहीं, बल्कि दुनिया के दूसरे अन्य क्रिकेट बोर्ड भी हैं। भारतीय टीम के सलामी बल्लेबाज गौतम गंभीर, सचिन तेंदुलकर, वीरेंद्र सहवाग और प्रमुख गेंदबाज जहीर खान के बाद अस्वस्थ होकर वेस्टइंडीज नहीं जाने वालों में युवराज सिंह भी शामिल हैं। भारतीय क्रिकेट के बदलते स्वरूप और खेल पर पूंजीपतियों के नियंत्रण के बाद की स्थितियों पर बहस तेज हो गई है। भारतीय क्रिकेट के इस बदलते हुए स्वरूप ने दुनिया के तमाम क्रिकेट जगत को व्यापक रूप से प्रभावित किया हैं। इसीलिए विश्वकप में हार की नैतिक जिम्मेदारी लेने वाले श्रीलंकाई कप्तान को आइपीएल में कप्तानी से कोई गुरेज नहीं था इसके अलावा भी बीसीसीआइ और आइपीएल खेल रहे श्रीलंकाई खिलाडि़यों के दबाव में श्रीलंकाई बोर्ड को अपने कार्यक्रम में निर्णायक परिवर्तन करने पडे़। कमोबेश यही स्थिति न्यूजीलैंड के कप्तान विटोरी की रही और वेस्टइंडीज के गेल और पोलार्ड पर भी इसी तरह के सवाल खडे़ हुए हैं। इसके अलावा अपने देश की टीम और पिछले आइपीएल में लगातार विफल रहे क्रिस गेल का आइपीएल चार में प्रदर्शन भी खासा चर्चा का विषय रहा है। परंतु क्रिकेट के इस बदलते स्वरूप का केंद्र भारत का क्रिकेट बोर्ड ही रहा है और इस कारण से भारत में ही इन बदलावों पर सबसे अधिक चर्चा है।। दरअसल भारत में क्रिकेट केवल एक खेल नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का उत्प्रेरक भी रहा है। क्रिकेट की इस भूमिका की पृष्ठभूमि असल में भारत की औपनिवेषिक गुलामी से जुड़ी है। ब्रिटेन का गुलाम रहे एक देश के ने गोरों और अभिजात्यों के खेल में दक्षता हासिल करके बार-बार फिरंगियों को न केवल हराया, बल्कि इस खेल पर अपना एकाधिकार भी कायम कर लिया। आम आदमी की जीत और गुलामी की वेदना का इससे शांतिपूर्ण और जनवादी प्रत्युत्तर क्या होगा? गुलामी की पीड़ा से उठे प्रतिकार के उच्चारण को हम हिंदी सिनेमा की लगान जैसी फिल्म में देख सकते हैं। क्रिकेट पर यूं तो कई फिल्में बनीं, मगर क्रिकेट से गुलामी का उत्तर देने की भावना पर बनी फिल्म लगान ने अक्षरश: अपना काम पूरा किया। इस अभिव्यक्ति की सफलता की गूंज भारतीय सिनेमा की दुनिया से लेकर पश्चिम के ऑस्कर अवार्ड समारोह तक में सुनाई दी, परंतु वर्तमान दौर में सामाजिक परिवर्तन का प्रेरक यह खेल अपनी मूल प्रेरणा बदल चुका है। कभी राष्ट्रीय सम्मान के लिए खेलने वाले खिलाडी आज क्रिकेट में पैसे के लिए खेलते हैं। भारतीय क्रिकेट में इस बदलाव का मोड़ 1983 के विश्व कप में भारत की जीत व 1987 के विश्व कप की दक्षिण भारत में मेजबानी था। क्रिकेट व्यावसायीकरण का श्रेय बीसीसीआइ के पूर्व अध्यक्ष जगमोहन डालमिया को जाता है। नब्बे के दशक की शुरुआत में इन्हीं जगमोहन डालमिया और आइएस बिंद्रा की व्यावसायिक सोच के कारण बीसीसीआइ दुनिया का सबसे अमीर क्रिकेट बोर्ड बन सका और बीसीसीआइ की यह अमीरी हर साल बढ़ती ही जा रही है। याद रहे आइसीसी की आमदनी का 70 प्रतिशत बीसीसीआइ से ही आता है। एक आंकडे़ के अनुसार 2007-08 में बोर्ड की कुल अनुमानित संपदा 1000 ़41 करोड़ रुपये थी जबकि 2006-07 में 651 ़81 करोड़ रुपये और 2005-06 में 303 ़15 करोड रुपये थी। नब्बे के दशक की शुरुआत में जहां बोर्ड ने घाटे से निकलकर लाभ कमाने की राह पकड़ी वहीं 2008 में आइपीएल की नई संस्कृति के साथ ही क्रिकेट बोर्ड केवल पैसा कमाने की मशीन बन गया। हालांकि आइपीएल के शुरूहोने की कहानी भी बेहद दिलचस्प है। 2007 में अगले दो विश्व कपों के प्रसारण अधिकारों की दौड से बाहर होने के बाद जी टीवी के मालिक सुभाष चंद्रा ने देश में 100 करोड़ के निवेश के साथ क्रिकेट के नए फॉरमेट 20-20 के लिए बीसीसीआइ के सामानांतर आइसीएल के नाम से एक नई क्रिकेट लीग बनाने की घोषणा की। इस घोषणा से भी अधिक रोचक बात यह कि इस नई लीग का मुखिया बनाने के लिए उन्होंने भारतीय क्रिकेट इतिहास के लीजेंड कपिल देव को चुना। बड़ी मुश्किलों में घाटे से निकले बीसीसीआइ के लिए यह एक खतरे की घंटी थी, इसीलिए बीसीसीआइ ने इंगलिश प्रीमियर लीग की तर्ज पर आइपीएल की घोषणा कर डाली जिसमें क्रिकेट की दुनिया के सभी प्रचलित एवं स्थापित बड़े नाम इस नई लीग की नीलामी में शामिल हो गए। यदि क्रिकेट धर्म के भगवान सचिन तेंदुलकर की आमदनी का लेखा-जोखा देखें तो देश के उद्योगपतियों से लेकर स्थापित राजनेताओं तक सबकी आय उनके सामने बौनी नजर आएगी। जहां सचिन की आय 30 डॉलर प्रति मिनट है वहीं मुकेश अंबानी 10 डॉलर प्रति मिनट और अमिताभ बच्चन 8 डॉलर प्रति मिनट के साथ सचिन से बहुत पीछे हैं। सचिन की यह आमदनी उनकी प्रतिभा का मूल्य है। इसके लिए वह सरकार को बड़ी संजीदगी से उचित कर भी अदा करते हैं। हालांकि क्रिकेट के प्रचार-प्रसार का काम करने वाली बीसीसीआइ अधिकारिक तौर पर एक गैर-सरकारी संगठन है जो बड़ी कर छूट का फायदा उठाती है। इसके अलावा क्रिकेट को दौलत और ग्लैमर की नई चकाचौंध में धकेल देने वाली बीसीसीआइ द्वारा गठित आइपीएल तो कोई पंजीकृत संस्था भी नहीं है। मगर आईपीएल के कमिश्नर ललित मोदी जब तीसरे आइपीएल को शुरू करते हुए इससे होने वाली अनुमानित आय को साढ़े चार हजार करोड़ रुपये बताते हैं तो इस तेजी से उभरते हुए उद्योग का पता चलता है। इस आमदनी में आइपीएल की करमुक्त भागीदारी पांच सौ करोड़ रुपये से भी अधिक आंकी गई है। बीसीसीआइ की नई कार्यप्रणाली की आलोचना भी हो रही है। कल तक सचिन तेंदुलकर के लिए भारत रत्न की मांग करने वाले लोग ही वेस्टइंडीज के दौरे पर उनके न जाने को लेकर सवालिया निशान लगा रहे हैं। बावजूद इसके दौलत के इस खेल में उद्योगपतियों से लेकर राजनेता तक डुबकी लगाना चाहते हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
नब्बे के दशक की शुरुआत तक जो खेल घाटे का सौदा हुआ करता था अचानक देश का धर्म कहलाने लगा और उसको नियंत्रित करने वाला खेल बोर्ड आज दुनिया का सबसे अमीर खेल बोर्ड बन चुका है। राजनेताओं के बाद अब उद्योगपतियों की इस खेल में कूदने की बेताबी यही बताती है कि यह खेल लाभप्रद होकर अब एक व्यवसाय में बदल चुका है। देश, टीम और टीम भावना की परिभाषाएं तेजी से बदल रही हैं।। अब देश के लिए खेलने का मतलब है पेशेवर अंदाज, आय बढ़ाने के तरीके और उसके लिए मोलभाव की व्यावसायिक संस्कृति। देशहित पर धन को प्राथमिकता देने की यह व्यावसायिक संस्कृति वेस्टइंडीज दौरे पर नहीं जाने के भारतीय टीम के वरिष्ठ सदस्यो के तर्क से उजागर हो रही है। वह आइपीएल मालिकों के सामने खामोश हो खड़े हो जाते हैं जबकि खराब स्वास्थ्य और आराम की आवश्यकता के तर्क भारतीय राष्ट्रीय टीम का चयन होते समय अचानक उठ खडे़ होते हैं। धन के लिए खेलने की इस व्यावसायिक मानसिकता का शिकार केवल भारतीय टीम ही नहीं, बल्कि दुनिया के दूसरे अन्य क्रिकेट बोर्ड भी हैं। भारतीय टीम के सलामी बल्लेबाज गौतम गंभीर, सचिन तेंदुलकर, वीरेंद्र सहवाग और प्रमुख गेंदबाज जहीर खान के बाद अस्वस्थ होकर वेस्टइंडीज नहीं जाने वालों में युवराज सिंह भी शामिल हैं। भारतीय क्रिकेट के बदलते स्वरूप और खेल पर पूंजीपतियों के नियंत्रण के बाद की स्थितियों पर बहस तेज हो गई है। भारतीय क्रिकेट के इस बदलते हुए स्वरूप ने दुनिया के तमाम क्रिकेट जगत को व्यापक रूप से प्रभावित किया हैं। इसीलिए विश्वकप में हार की नैतिक जिम्मेदारी लेने वाले श्रीलंकाई कप्तान को आइपीएल में कप्तानी से कोई गुरेज नहीं था इसके अलावा भी बीसीसीआइ और आइपीएल खेल रहे श्रीलंकाई खिलाडि़यों के दबाव में श्रीलंकाई बोर्ड को अपने कार्यक्रम में निर्णायक परिवर्तन करने पडे़। कमोबेश यही स्थिति न्यूजीलैंड के कप्तान विटोरी की रही और वेस्टइंडीज के गेल और पोलार्ड पर भी इसी तरह के सवाल खडे़ हुए हैं। इसके अलावा अपने देश की टीम और पिछले आइपीएल में लगातार विफल रहे क्रिस गेल का आइपीएल चार में प्रदर्शन भी खासा चर्चा का विषय रहा है। परंतु क्रिकेट के इस बदलते स्वरूप का केंद्र भारत का क्रिकेट बोर्ड ही रहा है और इस कारण से भारत में ही इन बदलावों पर सबसे अधिक चर्चा है।। दरअसल भारत में क्रिकेट केवल एक खेल नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का उत्प्रेरक भी रहा है। क्रिकेट की इस भूमिका की पृष्ठभूमि असल में भारत की औपनिवेषिक गुलामी से जुड़ी है। ब्रिटेन का गुलाम रहे एक देश के ने गोरों और अभिजात्यों के खेल में दक्षता हासिल करके बार-बार फिरंगियों को न केवल हराया, बल्कि इस खेल पर अपना एकाधिकार भी कायम कर लिया। आम आदमी की जीत और गुलामी की वेदना का इससे शांतिपूर्ण और जनवादी प्रत्युत्तर क्या होगा? गुलामी की पीड़ा से उठे प्रतिकार के उच्चारण को हम हिंदी सिनेमा की लगान जैसी फिल्म में देख सकते हैं। क्रिकेट पर यूं तो कई फिल्में बनीं, मगर क्रिकेट से गुलामी का उत्तर देने की भावना पर बनी फिल्म लगान ने अक्षरश: अपना काम पूरा किया। इस अभिव्यक्ति की सफलता की गूंज भारतीय सिनेमा की दुनिया से लेकर पश्चिम के ऑस्कर अवार्ड समारोह तक में सुनाई दी, परंतु वर्तमान दौर में सामाजिक परिवर्तन का प्रेरक यह खेल अपनी मूल प्रेरणा बदल चुका है। कभी राष्ट्रीय सम्मान के लिए खेलने वाले खिलाडी आज क्रिकेट में पैसे के लिए खेलते हैं। भारतीय क्रिकेट में इस बदलाव का मोड़ 1983 के विश्व कप में भारत की जीत व 1987 के विश्व कप की दक्षिण भारत में मेजबानी था। क्रिकेट व्यावसायीकरण का श्रेय बीसीसीआइ के पूर्व अध्यक्ष जगमोहन डालमिया को जाता है। नब्बे के दशक की शुरुआत में इन्हीं जगमोहन डालमिया और आइएस बिंद्रा की व्यावसायिक सोच के कारण बीसीसीआइ दुनिया का सबसे अमीर क्रिकेट बोर्ड बन सका और बीसीसीआइ की यह अमीरी हर साल बढ़ती ही जा रही है। याद रहे आइसीसी की आमदनी का 70 प्रतिशत बीसीसीआइ से ही आता है। एक आंकडे़ के अनुसार 2007-08 में बोर्ड की कुल अनुमानित संपदा 1000 ़41 करोड़ रुपये थी जबकि 2006-07 में 651 ़81 करोड़ रुपये और 2005-06 में 303 ़15 करोड रुपये थी। नब्बे के दशक की शुरुआत में जहां बोर्ड ने घाटे से निकलकर लाभ कमाने की राह पकड़ी वहीं 2008 में आइपीएल की नई संस्कृति के साथ ही क्रिकेट बोर्ड केवल पैसा कमाने की मशीन बन गया। हालांकि आइपीएल के शुरूहोने की कहानी भी बेहद दिलचस्प है। 2007 में अगले दो विश्व कपों के प्रसारण अधिकारों की दौड से बाहर होने के बाद जी टीवी के मालिक सुभाष चंद्रा ने देश में 100 करोड़ के निवेश के साथ क्रिकेट के नए फॉरमेट 20-20 के लिए बीसीसीआइ के सामानांतर आइसीएल के नाम से एक नई क्रिकेट लीग बनाने की घोषणा की। इस घोषणा से भी अधिक रोचक बात यह कि इस नई लीग का मुखिया बनाने के लिए उन्होंने भारतीय क्रिकेट इतिहास के लीजेंड कपिल देव को चुना। बड़ी मुश्किलों में घाटे से निकले बीसीसीआइ के लिए यह एक खतरे की घंटी थी, इसीलिए बीसीसीआइ ने इंगलिश प्रीमियर लीग की तर्ज पर आइपीएल की घोषणा कर डाली जिसमें क्रिकेट की दुनिया के सभी प्रचलित एवं स्थापित बड़े नाम इस नई लीग की नीलामी में शामिल हो गए। यदि क्रिकेट धर्म के भगवान सचिन तेंदुलकर की आमदनी का लेखा-जोखा देखें तो देश के उद्योगपतियों से लेकर स्थापित राजनेताओं तक सबकी आय उनके सामने बौनी नजर आएगी। जहां सचिन की आय 30 डॉलर प्रति मिनट है वहीं मुकेश अंबानी 10 डॉलर प्रति मिनट और अमिताभ बच्चन 8 डॉलर प्रति मिनट के साथ सचिन से बहुत पीछे हैं। सचिन की यह आमदनी उनकी प्रतिभा का मूल्य है। इसके लिए वह सरकार को बड़ी संजीदगी से उचित कर भी अदा करते हैं। हालांकि क्रिकेट के प्रचार-प्रसार का काम करने वाली बीसीसीआइ अधिकारिक तौर पर एक गैर-सरकारी संगठन है जो बड़ी कर छूट का फायदा उठाती है। इसके अलावा क्रिकेट को दौलत और ग्लैमर की नई चकाचौंध में धकेल देने वाली बीसीसीआइ द्वारा गठित आइपीएल तो कोई पंजीकृत संस्था भी नहीं है। मगर आईपीएल के कमिश्नर ललित मोदी जब तीसरे आइपीएल को शुरू करते हुए इससे होने वाली अनुमानित आय को साढ़े चार हजार करोड़ रुपये बताते हैं तो इस तेजी से उभरते हुए उद्योग का पता चलता है। इस आमदनी में आइपीएल की करमुक्त भागीदारी पांच सौ करोड़ रुपये से भी अधिक आंकी गई है। बीसीसीआइ की नई कार्यप्रणाली की आलोचना भी हो रही है। कल तक सचिन तेंदुलकर के लिए भारत रत्न की मांग करने वाले लोग ही वेस्टइंडीज के दौरे पर उनके न जाने को लेकर सवालिया निशान लगा रहे हैं। बावजूद इसके दौलत के इस खेल में उद्योगपतियों से लेकर राजनेता तक डुबकी लगाना चाहते हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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