अबकी जुल्म जीतेगा ?
या जीतेगी आज़ादी ?
खून की बू से मदहोश,
बन्दूक सहलाते,
बेडिया खनकाते,
वो छीन लेंगे हमारी माँ,
हमारी जमीन को !
मगर क्या कर लेंगे हमारे हौंसलो का !
जो बना सकते हैं सपाट,
फिर से नए पहाड़ को !
पाटकर समुन्द्र तराश सकते हैं नए खेत !
उनके बूटों की धमक,
उनके बारूद बरसाने की ललक,
जिन्दगी को बदल सकती है !
नए मरघट के लम्बे सन्नाटे में !
क्या वो लूट सकते हैं ?
हमारी आँखों के सपने !
या नोच सकते है बेहतर कल की चाह हमारे ख्यालो से ?
उनकी पलटन के फ्लैग मार्च ,
धुल से भरकर आसमान को,
छीन सकते हैं हमारे खेतों की हरियाली !
ठूंसकर रौशनी हमारे खपरैलों में,
वो फूँक डालेंगे हमारे आशियानों को !
क्या कर लेंगे मगर ?
हमारी जिन्दगी की उम्मीदों का !
क्या मिटा पाएंगे वो हमारे जिन्दा रहने की हसरत को !
माना वो बारूद से भर देंगे, राहे मकतब को !
वो मिटा सकते हैं !
स्कूल जाते नन्हे मासूम पदचिन्हों को भी !
वो पुर्जा पुर्जा कर देंगे,
स्कूल के बस्ते में रखी किताबों को भी !
मगर, क्या करेंगे वो तब ?
हम लड़ जायेंगे कलम को बन्दूक बनाकर जब !
उनमे बचपन है, मासूमियत और नादानी भी,
मगर वो थककर हाफ़ने वाले कोई युवराज नहीं !
पास्को की सरहद के वो सिपाही लड़ेंगे !
दुनिया देखेगी, अबकी बार !
आखिरी जीत ! जुल्म की नहीं आज़ादी की होती है !
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