पुस्तक समीक्षा
महेश राठी
लेखकीय कौशल, रचनाशीलता जब केवल मनोरंजन और सौंदर्यशास्त्र नहीं रह कर यथार्थ से रूबरू होकर सामाजिक सरोकारों से जुड़ते हुए राजनीतिक मुद्दों को उठाती है तो सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों का माध्यम बनती हैं। कवि-शायर बुनियादी रूप से बागी होता है। यह बगावत जब यथार्थ से होकर गुजरते हुए रोमानी होती है तो कवि शायर इंकलाबी बन जाता है और उसकी रचना इंकलाब का नारा बनती है। नारा जो दशकों और शताब्दियों तक प्रेरणास्रोत बनकर अपनी सामाजिक राजनीतिक जवाबदेही का निर्वाह करता है। 2011 ऐसे ही पांच जनकवियों और शायरों की जन्मशताब्दी का वर्ष है। फैज अहमद फैज, बाबा नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह, केदारनाथ अग्रवाल और असरारूल हक मजाज की चुनिंदा रचनाओं को और जीवन परिचय को प्रगतिशील लेखक संघ के सहयोग से प्रकाशित करके पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस ने प्रगतिशील साहित्य की प्रासंगिकता को पुनसर््थापित करने का सार्थक प्रयास किया है। भारतीय प्रगतिशील आंदोलन में सदा एक ऐतिहासिक भूमिका निभाने वाले पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस ने ऐसे ही पांच कवि शायरों की प्रतिनिधि रचनाओं को सात पुस्तकों में संकलित किया है। इन कवि शायरों की रचनाओं का यह संकलन यूं एक बड़ी पुस्तक में भी समाहित किया जा सकता था, परंतु तब संभवतया इनकी रचनाओं और इनके जीवन की सूक्ष्मतम संवेदनाओं से परिचय का ऐसा मौका नहीं मिल पाता। ये कवि-शायर स्वतंत्रता आंदोलन की वैचारिक सांस्कृतिक विरासत का अहम हिस्सा हैं, जो रोमानी होते हुए भी क्रांतिधर्म का निर्वाह करते हुए अपनी रचनाओं को उत्प्रेरक नारे के रूप में बदलते हैं। राष्ट्रकवि और महाकवि बनने की होड़ से हटकर जनकवि होने की यह प्रतिबद्धता रूसी क्रांति के व्यापक प्रभाव के रूप में बीसवीं सदी के दूसरे दशक के बाद और पांचवें दशक तक के साहित्यिक संस्कारों में स्पष्टतया दिखाई देती है। 1917 में हुई रूसी क्रांति ऐसी युगांतरकारी घटना थी, जिसने कला, साहित्य, राजनीति और समाज में एक नई सोच नए दृष्टिकोण का सूत्रपात किया। इस एक घटना के साथ ही सामंती व्यवस्था और साम्राज्यवाद से लडऩे की एकाकार कोशिश ने कला साहित्य से लेकर जीवन के प्रत्येक पक्ष को प्रभावित किया, परंपरागत मान्यताओं को तोड़कर नई परिभाषाएं नई प्रस्थापनाएं गढऩे का काम किया। कवि शायर अब स्थापित मान्यताओं को तोड़कर जनपक्ष में संगीनों के सामने मोर्चे पर लडऩे को तैयार परिवर्तनकामी राजनीतिक व्यक्ति था। हिंदुस्तानी लोकजीवन में वामपंथ का शुरुआती प्रभाव और माक्र्सवादी रुझान ही था कि फैज अहमद फैज एक शायर भी हैं, एक ट्रेड यूनियन लीडर भी, एफ्रो-एशियाई देशों के लेखकों, कवि और शायरों को संगठित करने वाले संगठनकर्ता भी और सत्ता पलटने की कोशिशों के लिए रावलपिंडी षडयंत्र केस में जेल जाने वाले कम्युनिस्ट नेता भी इसी क्रम में बाबा नागार्जुन भी दिखाई पड़ते हैं। एक घुमक्कड़ साधु, ठेठ भारतीय कवि, सतत यात्री, किसान आंदोलन के कारण जेल जाते आंदोलनकारी और एक कम्युनिस्ट नेता। माक्र्सवाद से प्रेरित प्रगतिशील आंदोलन ने सही अर्थों में कवि और शायर से कहीं बढ़कर क्रांतिकारियों की एक बड़ी जमात के निर्माण का काम किया है। उर्दू-हिंदी दोआब के इन कवियों में जहां वैचाारिक समानताएं हैं तो इनके व्यक्तित्व की विविधताएं भी हैं। फैज की शायरी में एक सौम्य नरमी है, मिठास है और गीतात्मकता है तो इंकलाबी धमक भी है जो कई बार शायरी और नारों का फर्क खत्म कर देती है। असरारूल हक मजाज की जिंदगी जितनी बेतरतीब, घोर निराशा और अवसादों का शिकार रही उनकी शायरी में उतनी ही ज्यादा रोमानियत, जिंदादिली और वैचारिक स्पष्टता दिखाई देती है। केदारनाथ अग्रवाल चौथे दशक की क्रांतिकारी चेतना के एक प्रमुख कवि हैं। केदार की कविता अपने सौंदर्य और शब्द विन्यास के अलावा अपनी दृढ़ वैचारिक पक्षधरता के लिए पहचानी जाती है। उनके शब्द शिल्प जितने सुंदर जान पड़ते हैं, उनका वैचारिक आक्रमण उतना ही तीक्ष्ण और तेज होता है। उनके इस आक्रमण और वैचाारिक पक्षधरता को गांधीवाद से टकराहट के रूप में देखा जा सकता है। बाबा नागार्जुन की उपस्थिति भारतीय लोक संस्कृति में प्रचलित तमाम काव्य शैलियों से साक्षात्कार कराती है। जनाकांक्षाओं की अडिग पक्षधरता के लिए जनप्रिय साहित्यिक उपकरणों का उपयोग करने के कारण ही नागार्जुन जनकवि हैं और बाबा नागार्जुन स्वघोषित नहीं स्थापित जनकवि हैं। |
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