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शुक्रवार, 24 जून 2011

एकीकरण वैचारिक या कमजोरी का डर



मुद्दा
महेश राठी
पांच राज्यों के चुनाव परिणामों के बाद जो आत्ममंथन देश की दो प्रमुख कम्युनिस्ट पार्टियो में शुरू हुआ है उससे कई नए सवाल जन्म ले रहे हैं। माकपा की केंद्रीय समिति की बैठक के बाद डी राजा और सीताराम येचूरी के बयानों से भाकपा और माकपा के विलय को लेकर एक बहस शुरू हो गई है। हालांकि कम्युनिस्ट पार्टियों की वैचारिक और राजनीतिक परपंराओं और शब्दावली में विलय नहीं, एकीकरण और पुनर्एकीकरण की प्रक्रिया ही होती है। इसी एकीकरण के प्रति सकारात्मक संदेश देते हुए सीताराम येचुरी ने कहा कि यह ऐसा विचार है जिसकी इच्छा अधिकतर पार्टी सदस्यों की है। हालांकि एकीकरण भी कम्युनिस्ट पार्टियों में विभाजन की ही तरह एक लंबी प्रक्रिया होती है। यह विभाजन भाकपा में अधिकारिक तौर पर 1964 में हुआ था। परन्तु इसकी नींव 1948 में भाकपा में बी टी रणदीवे के महासचिव बनने के साथ ही पड़ गई थी। देश का कम्युनिस्ट आंदोलन रणदीवे के इस क्रांतिकारी नारे के साथ ही बंट गया था कि देश की जनता भूखी है, ये आजादी झूठी है। भाकपा में एक बड़े हिस्से ने इसका विरोध किया और क्रांति की इस जल्दबाजी और विरोध का अंतद्र्वद्व ही आगे कम्युनिस्ट आंदोलन में औपचारिक विभाजन का कारण बना। दरअसल, 1964 में हुआ विभाजन पार्टी में आंशिक फूट भर था। 80 का दशक शुरू होने तक देश के अधिकतर जनांदोलनो में फूट पड़ चुकी थी। छात्र, युवा, कामगार, महिलाओं से लेकर सरकारी कर्मचारी, लेखक और संस्कृतिकर्मी तक, सभी पार्टियों के आधार पर बंट चुके थे। यही देश के कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए एक संकट की शुरूआत थी। चूंकि जनांदोलनों का कमजोर होना कम्युनिस्ट पार्टियां के जनाधार को कमजोर कर देता है। भारतीय संदभरे में तो यह आधार संकीर्ण तरीके से बंट चुका था। वैसे इस बंटवारे का एक सैद्धांतिक कारण भी है और इसका प्रभाव भारत में ही नहीं पूरी दुनिया के कम्युनिस्ट आंदोलन में विभाजन के तौर पर दिखाई पड़ता है। दरअसल कम्युनिस्ट आंदोलन में विभाजन का यह आधार मार्क्‍सवाद की नई माओवादी व्याख्या के कारण हुआ। माओ ने मार्क्‍सवाद के दार्शनिक आधार द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की एक बेहद यांत्रिक परिभाषा दुनिया के सामने पेश की। माओ ने द्वन्द्ववाद के बुनियादी नियमों को नकारते हुए कहा कि द्वंद्व का एक ही नियम है, दो विरोधियों के बीच सीधा टकराव का संबंध। अपने लेख ‘आन कन्टड्रिक्शन’
में मार्क्‍सवादी द्वंद्व की व्याख्या को एकदम पलटते हुए माओ ने कहा कि यह द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद नहीं यांत्रिक भौतिकवाद है जिसमें समाज और घटनाओं में कोई अंतर्सबंध नहीं होता है और प्रत्येक वस्तु एक मशीन की भांति अपना काम करती है। यह उस मार्क्‍सवादी धारणा को नकारता है कि समाज अपने ही अंतर्निहित कारणों से विकसित होता है और समाज के परिवर्तनों का सीधा संबंध बदलती हुए आर्थिक संबंधों से होता है। उत्पादन के संबंधों के परस्पर विरोधों के साथ एकता एवं संघर्ष का संबंध रहता है और यही समाज की उत्पत्ति, परिवर्तन और विकास का कारण बनता है। परंतु माओवाद इस प्रकार की किसी भी एकता को नकारते हुए सीधे संघर्ष का सिद्धांत पेश करता है। असल में माओ और अति वामपंथ की यह एक सामान्य समस्या है, जो दुनिया की उत्पत्ति एवं उसके विकास के कारणों की वैज्ञानिक प्रक्रिया को समझना ही नहीं चाहते हैं और इसी वामपंथी नासमझी का प्रभाव दुनिया के सभी नव-स्वाधीन देशों के कम्युनिस्ट आंदोलनों पर पड़ा। 50 के दशक में और उसके बाद आजाद हुए तीसरी दुनिया के देशों में इसी माओवादी वैचारिक भटकाव ने कम्युनिस्ट आंदोलन के एक बड़े हिस्से को उन देशों के लोकप्रिय राष्ट्रीय आंदोलनों के खिलाफ खड़े होने का नया वैचारिक आधार दिया। इसी आधार ने भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन में राजनीतिक फूट की नींव रखी और इसी का परिणाम 1964 में देश में दो कम्युनिस्ट पार्टियों- भाकपा और माकपा के रूप में दिखाई दिया। पिछले लोकसभा चुनाव में हार और उसके बाद पश्चिम बंगाल में पराजय के बाद अब भाकपा और माकपा में एकीकरण की चर्चा हो रही है तो सवाल यह है कि यह क्या महज सत्ता खिसक जाने जैसे सतही कारण से है अथवा इसके पीछे पुरानी सैद्धांतिक स्थिति से स्थानांतरण भी है। दरअसल, भाकपा की ओर से पहले भी यह चर्चा कई बार करने की कोशिश की गई परंतु माकपा ने राज्यों में सत्ता में रहने तक इनको हमेशा ही नकार दिया था। भाकपा के चंडीगढ़ महाधिवेशन से पहले भी ए बी बर्धन ने इस बाबत पेशकश की थी जिसे तत्कालीन माकपा महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने यह कहकर खारिज कर दिया था कि जिसे आना है वह आकर माकपा में शामिल हो जाए। लेकिन बदली हुई नई परिस्थितियों में माकपा का सकारात्मक रवैया संभवत: कम्युनिस्ट एकता के सवाल पर देश में एक नई बहस की शुरुआत करेगा। इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय लोकतंत्र और समाज के तर्कसंगत विकास के लिए एक मजबूत वामपंथ की आवश्यकता है और जिसके लिए वामदलों में एकता आवश्यक है। लेकिन यदि यह एकता भारतीय सामाजिक, सांस्कृ तिक और आर्थिक परिस्थितियों को समझने वाले सिद्धांतों पर आधारित हो तभी प्रभावोत्पादक परिणाम दे सकती है। सैद्धांतिक दिग्भ्रमों के साथ सत्ता खिसकने के डर से बनी एकता न कम्युनिस्ट आंदोलन और न ही देश को कोई दीर्घकालिक लाभ दे सकती है।
     

1 टिप्पणी:

  1. com. apka essay kafi deeply study ke baad taayar hooya dikhta hai.sattha jane ki wazah se akkikaran ki demand shayad satta ki lalaz hi dikhata hai.warna hindi belt mai sikudte janadhar ki chinta unhe jaroor hoti. abhi bhi we hindi belt mai apne paw pasarte nahi dikh rahe hai .left movement kewal baton ki roti khana chahta hi karmo ki nahi . use ac room se bahar akar janta ke beech kam karna hoga.

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