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गुरुवार, 30 जून 2011

मनमोहन के अपने भी है नाराज

महेश राठी 
राजनीति जब अपनी दिशा और अपना विश्वास खो देती है तो अस्थिरता और अराजकताओं को जन्म देती है। वर्तमान भारतीय राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी भी इसी राजनीतिक दिशाहीनता का शिकार हो रही है। भ्रष्टाचार और महंगाई को लेकर सरकार के खिलाफ जनाक्रोश और आंदोलन बेशक सरकार और सत्तारूढ़ दल के लिए चिंता का विषय है, लेकिन जनांदोलन और प्रतिरोधी आंदोलनों से निपटने का ढंग सरकार और कांग्रेस की बौखलाहट को उजागर कर रहा है। ऐसा जान पड़ता है कि महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी सरकार के पास इन सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक संकटों का मानो कोई समाधान ही नहीं है। समस्याओं के समाधान की विफलता से भी बड़ा यह सरकार की नीयत और नीतियों का सवाल है। विकास के मुद्दे पर सत्ता में आए संप्रग-2 के अभी तक केशासन से लगता है कि यह विश्वास खो चुकी नीतिविहीन राजनीतिक दिशाहीनता की शिकार सरकार है। सरकार की इस दिशाहीनता के कारण गठबंधन सरकार के घटकों और खुद कांग्रेस के भीतर से भी असंतोष के स्वरों की गूंज लगातार सुनाई पड़ रही है। कांग्रेस का मुखपत्र जहां एक ओर बाबा की आगवानी के लिए चार मंत्रियो के भेजे जाने की सार्वजनिक आलोचना कर चुका है तो वहीं सदा अपने विपक्षी तेवरों के लिए पहचाने जाने वाले मणिशंकर अय्यर ने फिर एक बार आंदोलन से निपटने के सरकारी तरीके की सार्वजनिक रूप से आलोचना करके सरकार के लिए परेशानी बढ़ा दी है। हमेशा से सरकार की आर्थिक नीतियों पर सवाल उठाने वाले मणिशंकर अय्यर ने एक प्रकार से प्रधानमंत्री के नेतृत्व पर प्रश्नचिह्न लगाने की मुद्रा में कहा कि अगर मैं प्रधानमंत्री होता तो ऐसा नहीं करता। सोते हुए लोगों पर पुलिस कार्रवाई की जरूरत नहीं थी। साथ ही उन्होंने यह भी दोहराया कि अन्ना और बाबा के आंदोलन से निपटने के लिए सरकार ने सही तरीका नहीं अपनाया। दरअसल, असंतोष के यह स्वर केवल मणिशंकर अय्यर की और से ही नहीं, बल्कि रक्षात्मक मुद्रा में खड़ी कांग्रेस के हर स्तर पर दिखाई देते हैं। बाबा और अन्ना हजारे के आंदोलन के जवाब के तौर पर जिस जनांदोलन की रूपरेखा कांग्रेस तैयार कर रही है, उससे भी अधिकतर राज्य इकाइयों की असहमति ही है। असल में जमीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं की परेशानी यह है कि भ्रष्टाचार विरोध और काले धन पर वह जनता के बीच जाकर क्या सफाई देंगे। इसके अलावा शहरी मध्यम वर्ग तक सीमित भ्रष्टाचार विरोधी इस मुहिम को कांग्रेसी अभियान से प्रचार ही मिलेगा। वास्तव में सरकार और कांग्रेस की इस बौखलाहट के दो मुख्य कारण हैं। एक, कालेधन और भ्रष्टाचार में घिरी सरकार और दूसरा, अल्पमत सरकार की स्थिरता पर लगातार बढ़ता खतरा। संप्रग सरकार अपनी स्थिरता और बहुमत के लाख दावे करे, लेकिन वास्तविकता यह है कि यह एक ऐसी अल्पमत सरकार है, जिसे हमेशा अपने अस्तित्व पर खतरा दिखाई देता है। यह सरकार असल में उत्तर प्रदेश के दो चिरप्रतिद्वंद्वियों मुलायम सिंह यादव, मायावती और बिहार में बेहद कमजोर हो चुके लालू यादव के बाहरी समर्थन पर टिकी है। यह भी एक जगजाहिर तथ्य है कि माया और मुलायम का समर्थन कोई राजनीतिक समर्थन नहीं, बल्कि उसमें सीबीआइ की भूमिका ही अहम है। अब देखें कि सत्ता द्वारा ब्लैकमेलिंग की यह राजनीति कितनी दूर तक जाती है। पांच राज्यों के चुनावों में बेशक संप्रग की जीत के दावे किए जा रहे हों, मगर इन चुनाव नतीजों में छिपे खतरे को भांपकर और भ्रष्टाचार के मुद्दा बनने के कारण कांग्रेस के चेहरे से जीत की खुशी गायब है। अन्ना हजारे के आंदोलन के दबाव में जन लोकपाल बिल के लिए कमेटी गठन करने के बाद भी सरकार की परेशानियां जस की तस बनी हुई थी कि तभी बाबा रामदेव ने भी काले धन की वापसी और भ्रष्टाचार की ताल ठोक दी। दरअसल बेहतर शासन, आर्थिक, सामाजिक कार्यक्रम और सहयोगियों के प्रति भी कोई स्पष्ट नीति नहीं होने के कारण दिशाहीनता की शिकार सरकार को ऐसी अस्थिरता की और धकेल रहा है, जिसकी परिणति निश्चित ही एक मध्यावधि चुनाव में होगी। अब भ्रष्टाचार और काले धन पर युक्तिपूर्ण तरीके से बचना चाह रही कांग्रेस के लिए अस्थिरता का अहसास ही सरकार में बौखलाहट का कारण बन रहा है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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