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मंगलवार, 5 जुलाई 2011

संसद बनाम सड़क की लड़ाई


महेश राठी 
भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल के लिए संघर्ष सहमतियों और असहमतियों के द्वंद्व की अवस्था में पहुंच चुका है। राजनीतिक वर्ग और नागरिक समाज के टकराव से शुरू हुआ भ्रष्टाचार के खिलाफ एक पारदर्शी जनवाद का यह संघर्ष अंतोगत्वा संसद बनाम सड़क की निर्णायक, लेकिन सकारात्मक बहस की दिशा में बढ़ रहा है। संसद बनाम सड़क के इस संघर्ष में सामाजिक संक्रमण का एक ऐतिहासिक संदर्भ भी निहित है तो वहीं वर्तमान लोकतंत्र में परिवर्तन की सार्थक आवश्यकता भी। सत्तापक्ष के तर्क कि कानून सड़क पर नहीं संसद में बनता है, वास्तव में सत्ता में भागीदारी और हस्तक्षेप की नागरिक समाज की कोशिशों को आंशिक रूप से नकारने की युक्ति भर ही है, लेकिन गांधी के राजनीतिक वारिस होने का दावा करने वाली देश में सत्तारूढ़ राजनीतिक धारा संभवतया यह भूल जाती है कि अनावश्यक जनविरोधी कानून तोड़ने और नए जनपक्षीय कानून बनाने का काम सड़कों और संघर्ष के मैदानों में ही होता रहा है। दांडी मार्च से नमक पर अंग्रेजों के आधिपत्य और एकाधिकार को चुनौती देने का काम महात्मा गांधी ने इसी राजनीतिक समझदारी के तहत किया और देश की आजादी, भारत की संसद और संसदीय लोकतंत्र सड़क से कानून तोड़ने और नए कानून बनाने के इन्हीं संघर्षो की परपंरा का ही नतीजा है। वर्तमान लोकतांत्रिक परंपराओं और संसद में कानून बनाने का तर्क भी दुनिया में कहीं नहीं होता, अगर स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का नारा देने वाली फ्रांस की क्रांति सड़क की नहीं, किसी संसद की मोहताज होती। वर्तमान संसदीय जनवाद के आधार वाली तमाम यूरोपीय संसदों की रचना सड़कों के संघर्षो से ही हुई हैं, लेकिन सभी ऐतिहासिक तथ्यों और दंतकथाओं के बावजूद कानून के संसद में ही बनने के तर्क की अपनी आवश्यकताएं और विवशताएं हैं। दरअसल, वर्तमान समय सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संक्रमण का दौर है, जिसमें उत्पादन के तरीके बदल रहे हैं तो अर्थव्यवस्था का स्वरूप भी और समाज एवं संस्कृति भी मूल बदलावों से होकर गुजर रही है। अगर कुछ नहीं बदल रहा है तो वह है वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था, लेकिन अब लोकतंत्र में पारदर्शिता के लिए खडे़ हो रहे जनांदोलन वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था को सीधा चुनौती दे रहे हैं। वास्तव में वर्तमान प्रतिनिधि लोकतंत्र ऐसी राजनीतिक व्यवस्था है, जो एक अवस्था विशेष में पंहुचकर कुलीनतंत्र में बदल जाती है। वैसे तो समाज अपने हितों की रक्षा और समाज को बेहतर ढंग से संचालित करने के लिए ही प्रतिनिधियों का चयन करके उन्हें संसद में भेजता है, लेकिन विडंबना यह है कि चुने हुए प्रतिनिधियों का यह समाज एक नए राजनीतिक वर्ग में परिवर्तित हो जाता है। यह नया राजनीतिक वर्ग अपने हितों के अनुकुल जनवाद की नई परिभाषाएं बनाता है। संविधान को अपने हितों के अनुरूप नए ढंग से परिभाषित भी करता है। इस नए वर्ग के लिए राष्ट्र एक संपत्ति की तरह है, जिसके संसाधनों का वह अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए भरपूर उपयोग एवं दुरुपयोग करता है। अब लोकपाल बिल के प्रतीक के रूप में लोकतंत्र में पारदर्शिता के इस संघर्ष द्वारा खड़ी की गई चुनौतियां वर्तमान प्रतिनिधि लोकतंत्र के लिए नया और गंभीर संकट लेकर आई हैं। हालांकि भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्षरत लोकपाल अधिनियम समर्थकों की भी अपनी विवशताएं हैं। विडंबना यह है कि नागरिक समाज के आंदोलन का प्रतिनिधित्व गैर-सरकारी संगठनों की संस्कृति में प्रशिक्षित एवं पारंगत नेतृत्व कर रहा है। इन गैर-सरकारी संगठनों की भी अपनी एक अलग संस्कृति और कार्यशैली पिछले कुछ वर्षो में विकसित हुई है। राजनीतिक विरोध इन गैर-सरकारी संगठनों की संस्कृति का एक प्रमुख स्वभाव है, जो किसी नए राजनीतिक विकल्प बनने की राह में हमेशा एक बड़ी बाधा का काम ही करेगा। लेकिन बगैर एक राजनीतिक ढांचे के किसी भी राष्ट्र और व्यवस्था की कल्पना भी बेमानी है। हालांकि अब बदलाव की शुरुआत हो चुकी है। सूचना और प्रौद्योगिकी में तेज विकास के स्तर पर और विकास जनित नई ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था के स्तर पर भी। अब पारदर्शिता के लिए हो रहे जनांदोलनों के विरुद्ध व्यर्थ प्रलाप करने वाले और जनवादी सुधारों के लिए संसदीय एकाधिकार के तर्क देने वाली राजनीति को समझना चाहिए कि सड़क की यह लड़ाई केवल भारतीय ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लोकतंत्र को नया विकल्प और अधिक मजबूती देगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं

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